जहाँ इंसानियत वहशत के हाथों ज़ब्ह होती हो , जहाँ तज़लील है जीना वहाँ बेहतर है मर जाना ।।

लेखक: हाफिज़ किदवई
यही तो अल्फ़ाज़ रह गए जो अब कानो में गूजेंगे । मनहूस कोरोना को तो हरा ही दिया था मगर क्या कहें कमबख्त मौत,जिसने अच्छे लोगों को ले जाने की ठान रखी है, लिए गई मेरे आनन्द मोहन जुत्शी यानि गुलज़ार देहलवी को । वह शेर जो उनकी आवाज़ में रूबरू सुना हो,महसूस किया है उनकी बेचैनी बदलती फ़िज़ाओं में,यह शेर उनकी रूह था,उनकी घुटन थी ।
शेरवानी और चूड़ीदार पैजामा,शेरवानी में लगा गुलाब का फूल और सर पर टोपी,हमने पण्डित जवाहर लाल नेहरू को नही देखा था मगर हमने पण्डित आनन्द मोहन को देखा है यही तो गुमान था । तलफ़्फ़ुज़ ऐसा की अच्छे अच्छे शर्मा जाएँ, उठने बैठने की ऐसी अदा की घण्टो देखते रहने का दिल करे । एक शायर, जिसका गोशा गोशा शायरी की गवाही दे,जो नेहरू से इस क़दर मोहब्बत करता कि नेहरू टोपी उसके जिस्म का हिस्सा थी ।
उनकी शेरवानी में गुलाब के फूल को लपेटे एक सुनहरी चेन लटकती रहती थी । उस चेन में एक लॉकेट था,जिसके दो रुख थे । आपको पता है उन दो रुखों में क्या था,एक तरफ अल्लाह लिखा तो दूसरी तरफ कृष्ण जी की तस्वीर,यही तो उनकी खूबसूरती थी । पण्डित जी का दिल गुलाबी था और रूह इतनी पवित्र की नफ़रत के हमेशा ख़िलाफ़, मोहब्बत के पैरोकार ।
पण्डित आनन्द मोहन जी से बड़ा पण्डित भला कौन था । देश की पहली साइंस की मैगज़ीन को उर्दू में निकालने वाले और उसके एडिटर थे पण्डित जी । उर्दू की खिदमत करने वाला उसका सादतमन्द बेटा,एक ऐसा बेटा जिसने उर्दू को हर उस जगह सहारा दिया,जहाँ वह लड़खड़ाई । जब उर्दू पर मज़हबी और फिरकेवराना हमले हुए,तो यह शख्सियत सीना खोलकर सामने खड़ी हुई और कहा यह मेरी ज़ुबान है । जब मज़हबी खाँचो में लोगों को बांटने के खेल शुरू हुए,तो आवाज़ लरज़ी की अभी हम हैं, यह बंटवारे मेरे रहते मुमकिन नही मगर हालात ऐसे बदले की ऐसी आवाज़ों की गूंज नफरत भरी दहलती हुई आवाज़ों के सामने कमज़ोर हो गई ।
हो सकता है, किसी के लिए गुलज़ार देहलवी का जाना एक शायर का जाना हो मगर मेरे लिए एक तहज़ीब का जाना है । आज जब ऐसे लोगों का रहना जरूरी था,तब बारी बारी सब हमारे कमज़ोर हाथों से फिसलते जा रहे हैं । दिल डूबने को होता है कि बताओ हम यह नफ़रत से लबरेज़ तपिश भरे दिन कैसे काटेंगे,जब सर पर इस तपन को बचाने वाले हाथ ही नही रह जाएँगे । नेहरू से हम सबने मोहब्बत की है मगर नेहरू के पांडित्य को जिस कश्मीरी पंडित ने जीवन भर जिया है, वह एक ही थे,पण्डित आनन्द मोहन जुत्शी ।
मुलाकात और उसमें गुंधे एहसास की यादें ही तो रह गई हैं । मेरे सर से लगातार वह हाथ हटते जा रहें,जिनकी दुआओं से,जिनकी मोहब्बत भरी हथेलियों से हमने नरमी सीखी थी । जिनके होने से ही यह एहसास था कि अभी तो वह हैं, हमे काहे की फिक्र,एक हाथ थोड़े ही हटा है हमारे सर से,एक ज़माना, एक तहज़ीब खींच ले गया कोई हमारे सरों से….
गुलज़ार देहलवी साहब के ही अल्फ़ाज़ कहते जा रहे हैं,हमने उनको देखा है, उनके दौर को देखा है, उस मोहब्बत को जीया है, जो अच्छो अच्छो को नसीब नही हुई,हमने इस फ़ख्रिया चलती तहज़ीब की लरज़ती हुई आवाज़ को यूँ दास्तान बनते देखा है, हमेशा हमारे दिलों में ज़िन्दा रहेंगे गुलज़ार देहलवी साहब,हम सब कान्हा के प्रेमी,कभी जुदा हो भी कहाँ सकते हैं, सिवाए कहानी बन जाने के..
हाए क्या दौर-ए-ज़िंदगी गुज़रा
वाक़िए हो गए कहानी से ।