#MeToo के हाशिए पर आधी आबादी का आधा तबका

समाज में सम्मान के लिए अभियान
साल 2018 के सबसे चर्चित मसलों का जिक्र किया जाए तो लाजमी है कि अधिकांश लोगों का मत #metoo अभियान को जाएगा. एक ऐसा अभियान जो विश्व में किसी धमाके से कम नहीं था. भारत में #metoo आया तो अभियान के रूप में ही था पर देखते ही देखते आंदोलन में तब्दील हो गया. फिल्म जगत से लेकर राजनीति के गलियारों, मीडिया संस्थानों से मल्टीनेशनल कंपनियों के कॉरीडोर तक की कालिख सामने आ गई. देश की नामचीन हस्तियों की मुस्कुराहटों के पीछे छिपे राज खुलकर सामने आए. कुल मिलाकर #metoo की क्रांति अपने साथ कईयों को उजाडकर चली गई. पर अब सब कुछ पहले की तरह शांत है. जैसे तूफान के गुजर जाने के बाद की शांति.
इस क्रांति से जिन्होंने सबक ले लिया है वे सम्हल गए हैं और कुछ अब भी उभरने की कोशिश कर रहे हैं. शहरी महिलाओं को अपनी ताकत समझ आ गई है. उनके पास #metoo नाम का हथियार है, जो यह बताने के लिए काफी है कि “यदि दोबारा हिम्मत की तो बचोगे नही”. पर ध्यान रहे कि इस हथियार की ताकत और इस्तेमाल का तरीका शहरी महिलाओं के पास ही है. शहरी महिलाएं भी वे जो उच्च वर्ग से ताल्लुक रखती हैं या मध्यम वर्ग के सबसे उपरी पायदान पर हैं. यानि आधी आबादी का आधा तबका ऐसा भी है जिस पर इस महाक्रांति का कोई खास असर नहीं हुआ.
यह तबका बसता है हमारे गांवों में, कस्बों में, घरेलु कामगारों की बस्तियों में, उंची ईमारतें बनाने वाली “नीची औरतों” के की झुग्गी बस्तियों में. यानि जब कोई पढी लिखी महिला #metoo के जरिए सोशल नेटवर्क पर अपने साथ हुए अत्याचार की कहानी कह रही थी, ठीक उसी वक्त उसके आसपास की कोई महिला वैसे ही अत्याचार को सह रही थी. तो सवाल यह उठता है कि क्या #metoo आंदोलन केवल एक वर्ग की महिलाओं को अपनी बात कह पाने का हक दे पाया?
चूंकि सबसे निम्नतर स्तर पर हालात अब भी जस के तस बने हुए हैं. #metoo आंदोलन के शुरू होने के बाद थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की एक रिपोर्ट ने चौंकाने वाला खुलासा किया. इस रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत महिलाओें के लिए सबसे असुरक्षित जगह है. खासतौर पर कामकाजी महिलाओं के लिए. इसकी भयावहता ग्रामीण और मजदूर वर्ग में और भी बदत्तर है. ग्रामवाणी के आईवीआर प्लेटफार्म मोबाइलवाणी ने हाल ही में इस मसले पर उत्तर प्रदेश्, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखंड और बिहार के ग्रामीण तबके की ग्राउंड रिपोर्ट तैयार की.
छत्तीसगढ़ के राजनंद गांव के स्कूल में बतौर शिक्षक काम कर रहे वीरेन्द्र गंधारी ने स्पष्ट रूप से कहा कि #metoo बेशक सोशल मीडिया और शहरों में सनसनी फैला रहा है पर गांव की महिलाएं इससे कोसो दूर हैं. उन्होंने कहा कि न तो महिलाएं ऐसे किसी आंदोलन के बारे में जानती हैं और न ही जानने की कोशिश करती हैं. इस आंदोलन को जमीनी स्तर पर लागू करने की जरूरत है. लखनउ के आदाब खान ने मोबाइलवाणी पर जब अपना संदेश रिकॉर्ड करते हुए स्पष्ट कहा कि इस आंदोलन का असर तब तक दिखाई नहीं देगा जब तक दोषियों को सजा न मिले. गांव में तो रोजाना ऐसी घटनाएं होती हैं. कारखानों और कंस्ट्रक्शन साइट पर भी महिला मजदूरों को यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है पर यह आंदोलन उनकी पहुंच से बहुत दूर है.
15 से 49 साल की 83,703 महिलाओं के बीच किए गए स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा कराए गए नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे पर नजर डालना बेहद जरूरी है. रिपोर्ट बताती है कि यौन हिंसा झेलने वाले प्रति एक सौ महिलाओं में केवल एक महिला पुलिस में मामला दर्ज कराती है. अशिक्षित महिलाओं में करीब 44 फ़ीसदी महिला 15 साल की उम्र तक कभी ना कभी हिंसा का सामना करती है. 26 फ़ीसदी महिलाओं ने बीते 12 महीने के अंदर हिंसा को झेला है. हालांकि शिक्षा के होने से यह संख्या कम हो जाती है. 12 साल तक पढ़ाई करने वाली महिलाओं में 14 फ़ीसदी को हिंसा का सामना करना पड़ता है जबकि 12 साल से ज़्यादा उम्र तक पढ़ाई करने वाली महिलाओं में छह फ़ीसदी महिलाओं को हिंसा का सामना करना पड़ा है.
यदि मदद मांगने या घटना का विरोध करने का आंकड़ा देखा जाए तो कभी ना कभी हिंसा झेलने वाली हर तीन में से दो महिलाएं कभी मदद नहीं मांगती है और ना ही कभी किसी से इस हिंसा का जिक्र तक करती हैं. छोटी मोटी छींटाकशी, छेड़छाड़ का विरोध तो ग्रामीण महिलाओं के ख्यालों से भी दूर है. पुरूषों द्वारा किया जाने वाला यह व्यवहार उनके लिए स्वीकार्य सा हो चुका है. जैसे एक महिला मजदूर जानती है कि ठेकेदार की बुरी नजर उस पर है पर फिर भी उसे काम करना है.
दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि सामाजिक संगठनों और महिला आयोग जैसी संस्थानों की पहुंच गांवों तक नहीं हैं. आयोग और संगठन भी अपनी ओर से निचले तबके की महिलाओं के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाने की जहमत नही उठाते. जब #metoo आंदोलन शुरू हुआ तक भी महिला आयोग ने उन्हीं मामलों पर संज्ञान लिया जो मीडिया द्वारा हाईलाइट किए गए. स्वयं सेवी संगठनों ने भी लाइम लाइट में आने वाले मामलों में दिलचस्पी दिखाई. छोटे उद्योगों में, कारखानों में या निर्माणाधीन साइट पर काम करने वाली मजदूरों को #metoo का हिस्सा ही नहीं समझा गया.
यही कारण है कि वहां जो पहले हो रहा था वो #metoo के दौरान भी होता रहा और अब भी हो रहा है. सवाल यह उठता है कि जब तक किसी गांव में कोई “भंवरी देवी कांड” नहीं होता तब तक वह मीडिया की सुर्खिंयां नहीं बन सकता, तब तक कोई आयोग या संगठन वहां नहीं पहुंच सकता, तब तक हम यह नहीं मानते कि गांव की साधारण शक्ल सूरत वाली, अंग्रेजी न बोल पाने वाली, मेकअप से दूर धूल में रची—बसी महिला के साथ भी वो हो सकता है जो फिल्म—राजनीति और मीडिया की चमक धमक के बीच, एसी वाले बंद कमरों में होता है.
#metoo की इस आई और चली गई क्रांति के बाद भी आधी आबादी के आधे तबके के लिए कुछ नहीं बदला है. अब तो केवल कवि पुष्यमित्र उपाध्याय की ये पंक्तियां जहन में आती हैं—
“छोड़ो मेहंदी खडक संभालो, खुद ही अपना चीर बचा लो,
द्यूत बिछाये बैठे शकुनि, मस्तक सब बिक जायेंगे,
सुनो द्रोपदी शस्त्र उठालो, अब गोविंद ना आयेंगे।”