।। कम्पनी बाग में कान-कुरेदिए ।।

राजेश्वर वशिष्ठ
वे कान से मैल निकालते हैं
और उसके साथ चुपके से पौंछ लेते हैं
थोड़ा सा दुख,
थोड़ी सी नफरत और थोड़ी सी आग;
जो न जाने कब से धधक रही थी
उनके दिमाग की भट्ठी में
किसी ज्वाला मुखी की तरह।
वे हल्का कर देते हैं सबका दिमाग
निकाल लेते हैं भीतर अटकी
तमाम तरह की आवाज़ें,
जो नारों, जुमलों और न जाने
कितने तरीकों से धकेली गईं होंगी
कानों के भीतर।
वे खानदानी हैं
बादशाहों के ज़माने में भी
यही काम करते थे उनके बापा दादे।
कहते हैं – एक बार बहादुर शाह ज़फर ने
हिकारत से भगा दिया था उन्हें
अपने महल की चौखट से,
फिर रंगून की जेल में मरते दम तक
बादशाह घुमाते रहे उँगलियाँ कानों में
पर कुछ भी नहीं हुआ;
बादशाह की अक्ल और दिमाग
दोनों सुन्न हो गए।
हमारे प्रजातंत्र में चुनावों से पहले
सभी लोग जाते हैं इन कान-कुरेदियों के पास।
सब चाहते हैं उन्हें मिले सत्ता का सुख
और किसी भी हरकत को पकड़ने के लिए
दिमाग हो जाए फाइन-ट्यून;
सुनाई देने लगें अपने-परायों के सभी सम्वाद।
इनके यहाँ से कान साफ करवाने के बाद
सियासी लोग अक्सर बदल लेते हैं पार्टियाँ;
इसमें इनका कोई हाथ नहीं
ये तो कान से निकला मैल भी
समेट कर रख देते हैं ग्राहक की हथेली पर
इसके बाद माँगते हैं पैसा।
इन्हें कई बार बुलाया है
वज़ीरों और आला हज़रात ने अपनी कोठियों पर,
पर ये छोड़ कर नहीं जाते दिल्ली का कम्पनी बाग
इन्हें अब भी याद है ज़फर का वाकया।
पछताते हुए कहते हैं अरबाज़ मियाँ
शायद गरीबी ले गई होगी उन्हें वहाँ;
अब हम कहीं नहीं जाते।
अब क्या करें बड़े लोग
झख मारकर बड़ से खुरच लेते हैं अपने कान।
मैल कुछ निकल जाता होगा
पर निकल नहीं पातीं
दफ्न हुए अरमानों की तस्वीरें।
जनता से किए अधूरे वादों की खलिश
और आसन्न हार की छाया;
इसीलिए वे कन्फ्यूज़ हैं
पता नहीं किसकी बनेगी सरकार।
टेलिविजन चैनलों के सम्वाददाता
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने
कम्पनी बाग़ में अक्सर आ जाते हैं,
इनसे दिमाग का कचरा साफ करवाने
ताकि सही सही अनुमान लगा सकें
पार्टियों को मिलने वाली सीटों का इस चुनाव में,
इसलिए वहाँ हर चैनल पर
रोज़ होता है एग्ज़िट पोल
हर चैनल रोज़ बनवाता है
अलग अलग पार्टियों की सरकारें।
मुझे लगता है
टेलिविजन के सामने बैठे आदमी के लिए
अब ये चैनल ही बन गए हैं आधुनिक कान-कुरेदिए
पर इनमें वह गुरूर कहाँ कि मना कर दें
बादशाहों और भामाशाहों को बिकने से
और ईमानदारी से साफ करें
जनता के कान का मैल।
बादशाह की तरह इनका भी सुन्न है दिमाग
पर खुली हैं जेबें।
ये ही हैं लोकतंत्र के असली मैल तराश
जिन्हें अक्सर रिमोट पर खोजते रहते हैं आप।