सड़क से संसद तक का खेल और आम बदहाल किसान

आसिफ सईद

डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने क्या खूब कहा है कि सड़के जब सूनी हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाता है। अभी के भारत के जो हालात हैं उसे ये कथन कितना चरितार्थ करता है। किसान आंदोलन को 4 महीने से ज़्यादा हो चुके हैं लेकिन सरकार की तरफ से कुछ ठोस कदम नहीं उठाए गए जिससे ये टकराव खत्म हो सके और किसान अपना आंदोलन खत्म कर सकें। तभी सभी किसान संगठनों ने 26 मार्च को भारत बंद का का एलान किया था जो हरयाणा और पंजाब में काफी सफल भी रहा। हालाँकि की बंद का असर भारत के अन्य हिस्से पर भी पड़ा खास तौर से रेल यातायात पे इसका असर देखने को मुला। अभी तक सरकार किसानों को ये भरोसा दिलाने में नाकाम रही है की तीनो कृषि कानून किसानों के हित में हैं।

किसानों को लगता है कि ये तीनो किसान बिल सरकार पूजीपतियों के दबाव में लेकर आई है. हालाँकि सरकार आर्थिक नव उदारवाद वाली निति को ही अपनाते हुए चल रही है। औद्योगिक घरानो को सरकार की तरफ से पूरा संरक्षण प्राप्त है और उनके हर तरह के हितोँ का ख्याल रखा जाता है। इसी का वो फायदा उठाते हैं। वे अरबपति है। वे किसी से नहीं डरते, सिर्फ इस बात से डरते है कि एक दिन गरीब निहथ्हे लोग उनसे डरना छोड़ देंगे। शायद वो वक्त आ गया है। किसान आन्दोलन व्यापक होता जा रहा है। शायद ऐसा पहली बार हो रहा है कि मुकेश अंबानी जैसे दिग्गज एवं शक्तिशाली उद्योगपति को ट्राई की शरण में जाना पड़ा रहा है। गुहार लगानी पड़ रही है की एयरटेल के खिलाफ कार्रवाई कीजिए। एयरटेल वाले लोगों को बरगला कर जियो नंबर पोर्ट करवा रहे हैं।


यह आवारा होते पूँजी को रास्ते पर लाने की निशानी है। शायद इसी स्थिति को देखते हुए डॉक्टर लोहिया ने कहा था कि जब सड़कें सुनसान हो जाती हैं तो संसद आवारा हो जाती है। हिन्दुस्तान जैसे देश में भले किसी को हजारों करोड़ का घर बनाने का कानूनी अधिकार हो, लेकिन नैतिक अधिकार कहाँ से मिलता है? इस नैतिकता की सीमा का अतिक्रमण देश के करोड़ों गरीबों को एंटीलिया या अदानी के घर के आगे जमा हो जाएँ तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि, भूख से अधिक अनैतिक और क्या हो सकता है।

मुनाफ़ा पूंजी का अंतर्निहित गुण है और इसमें कोई बुराई भी नहीं है। लेकिन, ये कौन सा क़ानून है, किस ग्रन्थ में लिखी नैतिकता है, जिसकी नींव पर किसी उद्योगपति के बैलेंसशीट पर 500% मुनाफ़ा दर्ज हो जाता है। अगर कोइ ऐसा क़ानून है, तो उसे तुरंत उस किताब से फाड़ कर हटा दिया जाना चाहिए। किसी ग्रन्थ में ऐसी नैतिकता है, तो उसे तुरंत पढ़ना-पढ़ाना बंद कर दिया जाना चाहिए। इस देश में कभी मोनोपोली रेस्ट्रिक्शन एक्ट हुआ करता था। फिर कंपीटीशन कमीशन ऑफ़ इंडिया आया। क्या करती है ये संस्थाए। कहाँ गुम जाते है ये क़ानून, जब टाटा नमक भी बनाए और जगुआर भी, रिलायंस तेल भी बेचे और खबर भी, अदानी कोयला भी बेचे और बेसन के साथ साथ तेल भी।

और इतने के बाद जब कोई बड़ा आदमी आपके बच्चे के सामने ये कहे की तुम भी धीरू भाई बन सकते हो, मेहनत करो, तो सतर्क हो जाना चाहिए। उससे कहिए, धीरू भाई अगर मेहनत से इतना धनवान बना होता, तो इस देश का किसान, मजदूर क्या मेहनत नही करता है क्या ? धीरू भाई हर उस नैतिक-अनैतिक तरीके का इस्तेमाल करके धनवान बना, जैसा करने की सलाहियत आम इंसान में इसलिए नहीं होती कि वैसे गुण अर्जित करने की क्षमता तक उसकी पहुँच ही नहीं बन पाती।

70 साल लग गए थे इस देश के आम लोगों को ये समझने में की सरकारी पैसा कुछ नहीं होता। सरकार अपने पिताजी की जमीन पर खेती नहीं करती बल्कि सारा पैसा जनता का है। टैक्स का पैसा है। दर्जनों टैक्स, उसमे से इनकम टैक्स तो लगभग 1.5 करोड़ लोग ही भरते हैं। लेकिन, अब लगता है कि अगले 5-10 साल में देश की जनता ये समझ जाएगी की जिन हजारों करोड़ की बिल्डिंग में ये उद्योगपति रहते है, जिन प्राइवेट जेट में चलते है, वो भी उनका अपना पैसा नहीं है. जनता का पैसा है। जिस दिन जनता ने हिसाब लेना शुरू किया, इन धन कुबेरों के लिए मुश्किलें खड़ी हो सकती हैं।

तो अभी भी वक़्त है सोचने समझने के लिए और स्थिति का सही मूल्यांकन के लिए। धन कुबेरों, देश रहेगा, देश के लोग रहेंगे, तो ही आप का बिज़नेस चलेगा। आप मुनाफा कमा पाओगे जो किसी भी उद्योगपति का प्राथमिक आकांक्षा होती है। वरना, मेहुल भाई, विजय माल्या की तरह आपको भी को भी एक दिन अपने देश छोड़ दूसरे की शरण की शरण में जाना पडेगा जो आप भी नहीं चाहोगे। फिर ना आपका देश होगा ना देशवासियों का की कोई हमदर्दी।