सब समय तय करेगा

नदीम अहमद
बिहार विधान सभा में कल जो कुछ हुआ उसमें ऐसा क्या नया है कि उसपर बहुत अफसोस किया जाए। जनता जब सड़कों पर प्रताड़ित हो रही थी तो नेता ख़ामोश थे। जनता जब झुंड में मारी जा रही थी तो नेता हेलीकप्टर में जन्मदिन मना रहे थे और समाज जब टूट-टूट कर बिखर रहा था तो नेता सत्ता पाने के लिए जातीय समीकरण बना रहे थे। संघर्ष के वो कुछ साथी जिनके साथ चलकर और लड़कर कभी सत्ता तक पहुंचे थे वो जब अपनी लड़ाई अकेले लड़ रहे थे तो नेता अपने एयर कंडीशंड खिड़कियों से झांक रहे थे।
आज सिर्फ ये हुआ है कि दो सत्ता लुलुप धरे अपनी अपनी ज़मीन बचाने के लिए भीड़ गए हो। ज़ाहिर है जो मज़बूत है वो कुटेगा और जो कमज़ोर है वो कुटायेगा। हां इसमें कुछ संघर्ष के साथी भी होंगे जिनके साथ आम संवेदना हो सकती है। लेकिन गेहूं के साथ साथ जौ भी पिस्ता ही है। आज जो लोग नारे लगा रहे हैं जो कल सत्तापक्ष के गिर्द टिकट के लिए मंडरा रहे थे। सिर्फ लोहिया के कथन ‘ सड़कें खामोश हो जाएं, तो संसद आवारा हो जाएगी’ लिख देने या नारा लगा देने से सदन की गरिमा नहीं बच सकती न सदन को आवारा होने से रोका जा सकता है। भगत सिंह ने जो कहा था ‘ “पिस्तौल और बम इंकलाब नहीं लाते, बल्कि इंकलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है।
और यही चीज थी, जिसे नागरिकता कानून या फिर अब किसान बिल के खिलाफ लोग प्रकट करना चाहते थे लेकिन उस समय तथाकथित सेक्युलर पार्टियों ने कब का ताक पर रख दिया है। ये सारी पार्टियां कब के विचारों से दूर हो चुके हैं । जब जड़ें कमज़ोर हो जाती हैं तो वृक्ष कितना भी बड़ा क्यों न हो उसको हवा का झोंका उखाड़ सकता है। सत्ता पक्ष की नीतियों के विरोध प्रकट करने की प्रकिर्या में विचारों का भारी अभाव दिखता है। विरोधके तरीके में विचारों की सान नहीं बची इसलिए सत्तापक्ष उग्र और आवारा हो चुका है।
बतौर नागरिक मेरी आँखें सुनी हैं, शून्य में हैं। हम ये सब होते सिर्फ़ देख सकते हैं क्योंकि इसकी इस पटकथा लिखने के साथी ये तथाकथित सेक्युलर पार्टियां भी रही हैं। लोहिया और भगत सिंह जहां भी होंगे सुकून से होंगे। उन्हें सुकून इस बात का होगा कि उन्हें साथी ईमानदार, वफादार और बलिदानी मिले जो साथ में सूली चढ़ गए। कभी साथ नहीं छोड़ा। ये तथाकथित सेक्युलर पार्टियां तो वैसे भी नहीं, ये सिर्फ झुंड है जो कल किसी के साथ आज किसी के साथ हैं और कल शायद फिर किसी और के साथ चले जाएं। कल शायद यही तथाकथित सेक्युलर पार्टियां फासीवादियों से हाथ मिला लें क्या भरोसा। बतौर नागरिक हम सिर्फ ये सब होते देख ही सकते हैं। इसकी बुनियाद भी तो तथाकथित सेक्युलर पार्टियों ने ही रखी है।
सबसे दिलचस्प बात ये कि सुना है लाठी चारज हल्का-हल्का होता है। समझ में नहीं आ रहा कि ये किसने किया या किसने करवाया। कहीं ऐसा तो नहीं कि दिया बुझने के आसार दिखने लगे हैं। आखिर बिहार के मुख्य मंत्री नीतीश में इतनी हिम्मत है कि वो विरोधी पार्टियों के विधायकों को पिटवा दे। इस प्रकार के साहसिक कार्य के माहिर मोदी-शाह की जोड़ी ही है। क्या सुशासन बाबू को बदनामी का डर नहीं रहा ही होगा जिसका राजनीतिक फायदा बाकी पार्टियों को मिल सकता है। कहीं ये सब कुछ किसी इशारे की बात तो नहीं? ये आनेवाला समय ही बताएगा।
खैर, एक बात बिलकुल शीशे की तरह साफ़ है कि इस पुरे घटनाक्रम का फायदा बीजेपी को ही होगा। जितना जल्दी संभव हो नीतीश कुमार की छवि खराब हो जाए ताकि बीजेपी को राजनितिक मोबिल मिले और उसको बिहार में सत्ता परिवर्तन का मौका मिले। आरजेडी का भी फायदा है कि उसे जनता की सहानुभूति मिलेगी। काश ! ये लोग समय रहते जागे होते और लोगों के संघर्ष के साथी बने होते तो शायद अभी तस्वीर कुछ और होती और जो हमने विधान सभा में देखा वो शायद देखने को नहीं मिलता। समाजवाद के चोले से अभी बहुत सारे वैचारिक नंगे निकलने बाक़ी हैं। लेकिन लब्बोलुआब ये है कि बौराए हुए घूम रहे सुशासन बाबू इस हाल में है कि, हम तो डूबेंगे सनम पार्टी भी ले डूबेंगे।