मीडिया का बाहुबली था आम लोगों का हीरो

एजाज़ अहमद

बिहार के सामाजिक न्याय के संघर्ष के दौर में उभरने वाले नामों में से एक नाम मोहम्मद शहाबुद्दीन का था। कहते हैं जब क़लम कमज़ोर पड़ने लगते हैं, बंदूक़ें आवाज़ करने लगती हैं। एक तरफ़ उनके नाम की हनक थी तो दूसरी तरफ़ शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनके किये गए काम। चर्चा में एक ही व्यक्तित्व रहता था, नाम था मोहम्मद शहाबुद्दीन। लालू यादव ने सामाजिक न्याय की जो लड़ाई शुरू की थी शहाबुद्दीन ने उसको भी आगे बढ़ाया और दबे कुचलों की आवाज़ भी सुनी।

बात 2004 की है जब असदुद्दीन ओवैसी पहली बार लोकसभा पहुंचे। बीजेपी नेता ने असदुद्दीन ओवैसी को “जंगली जानवर” शब्द का इस्तेमाल करते हुए सम्बोधित किया। औवैसी बोलने के लिए उठे और बीजेपी नेता के भाषण का जवाब उसी भाषा मे दिया तो बीजेपी के क़ई सांसद आस्तीनों को चढ़ा औवैसी की तरफ़ बढ़ने लगे। बीजेपी सांसदों को औवैसी की तरफ़ बढ़ता देख सीवान से तीसरी बार लोकसभा सांसद चुने गये शहाबुद्दीन संसद में खड़े हुए तो बीजेपी के सांसदों को वापस अपनी कुर्सी की तरफ़ भागना पड़ा और चुपचाप जाकर अपनी जगह पर बैठ गये। औवैसी ने अपने चुनावी रैलियों के दौरान जनता को शहाबुद्दीन का ज़िक़्र करते हुए “सीवान का शेर” लफ्ज़ इस्तेमाल किया।

शहाबुद्दीन अपने घर में जनता दरबार लगाते थे जिसमें हर पीड़ित को न्याय और साथ मिलता था। कोई अपना घर,ज़मीन दबंगो द्वारा कब्ज़ाने को लेकर शिकायत लेकर आता तो कोई महिला ससुराल वालों से परेशानी की शिकायत लेकर आती। यहां तक कि तलाक़ के मामले में शहाबुद्दीन के दरबार में आने लगे। दबंगो से अपनी जमीन को मुक्त करवाने के लिए शिकायत का निवारण यू होता कि अगले ही दबंग जमीन या घर को खाली कर चले जाते थे। क़ई बार तो ऐसा हुआ कि जो पीड़ित शिकायतें लेकर पुलिस स्टेशन जाते थे पुलिस भी कह देती थी कि अपनी समस्या के लिए शहाबुद्दीन साहब के दरबार मे जाओ जल्दी हल निकलेगा।

2015 में बिहार में राजद ने अपना समर्थन देते हुए नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया तो पत्रकार रंजन के मर्डर केस में 2006 से जेल में सज़ा काट रहे शहाबुद्दीन को 2016 में पटना हाइकोर्ट से जमानत मिली और 300 गाड़ियों के काफ़िले के साथ भागलपुर जेल से घर तक का सफ़र तय किया। जेल में रहते हुए भी उनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। जेल से रिहा होने के बाद शहाबुद्दीन ने बयान दिया कि नीतीश कुमार परिस्थितियों के मुख्यमंत्री है वह मेरे नेता नही हो सकते। मेरा नेता तो सिर्फ़ लालू प्रसाद यादव है।

शाहबुद्दीन के इस बयान पर बिहार में मुख्यमंत्री खेमे में हलचल मच गई और नीतीश कुमार को नेता ना मानने के बयान से ख़फ़ा होकर बिहार सरकार ने शहाबुद्दीन को मिली हुई ज़मानत को ख़ारिज कर वापस जेल भेजने के लिए सुप्रीम कोर्ट गई जहां सरकार को सफलता भी मिली। सुप्रीम कोर्ट ने शहाबुद्दीन की जमानत पर रोक लगाते हुए जेल भेजने का हुक्म दे दिया। नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री रहते हुए भी ठुकरा देना शहाबुद्दीन को फिऱ से जेल ले गया। शहाबुद्दीन 2 बार विधायक और 4 बार लोकसभा चुनाव जीते। साल 2009 ने चुनाव आयोग ने शहाबुद्दीन के चुनाव लड़ने पर बैन लगा दिया तो उनकी पत्नी हिना शहाब चुनावी मैदान में उतरी लेकिन वह चुनावी मैदान में हार गई।

ये हक़ीक़त है कि उनकी पहचान एक बाहुबली के रूप में बनाई गयी। और इसमें सबसे बड़ी भूमिका निभाई तथाकथित वाम दलों ने और जेएनयू के छात्रों और मीडिया संस्थानों ने। खास तौर पे डॉक्टरों की फीस को लेकर शहाबुद्दीन ने काफी कोशिश की जिससे डॉक्टर खेमे में काफी नाराज़गी थी। चूँकि ज़्यादातर डॉक्टर उच्च जाती के थे तो उनको मन माना फीस लेने में शहाबुद्दीन दिक्कत पेश आ रहे थे। उच्च जाती वाली हिंदी मीडिया को मसाला मिल गया और फिर इसी बीच चंरशेखर की सरे आम हत्या हो गयी जो जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष थे।

फिर क्या था मीडिया ने तथाकथित वाम दलों के साथ मिलकर शहाबुद्दीन के खिलाफ माहौल बनाना शुरू कर दिया जिसका खामियाजा वो मरते दमतक भरे। शहाबुद्दीन तथाकथित वाम दलों, उनकी तथाकथित राजनीती और उदारवादी लोगों के पॉलिटिक्स की भेट चढ़ी जिनके तार कहीं ना कहीं संघी मानसिकता से मिलते जुलते हैं। शहाबुद्दीन कोई संत नहीं थे। राजनीति में आने वाले तो कथित सन्त भी अपराधी ही निकलते हैं।लेकिन इतना ज़रूर कहेंगे कि उन पर किसी परिवार को नेपाल सीमा पार करवाने का इलज़ाम नहीं लगा और न ही किसी देश विरोधी ताक़त से हाथ मिलाने या उनके आगे कभी झुकने का।

शाहबुद्दीन ने मीडिया को साक्षात्कार देते हुए कहा था कि मैं अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि एक एक रिकॉर्ड मेरे नाम रहा है कि मैं कभी भी चुनाव नही हारा,मैं ये कहकर जाऊँगा कि मैं जब भी हारूँगा सांसे हारूँगा,और आज ये ही हुआ कि शहाबुद्दीन अपनी सांसे हार इस दुनिया को अलविदा कह गये।