भिनभिनाती हुई मक्खियाँ और मुसलमान

आमिर मलिक
अजीब शीर्षक है. काफ़ी भ्रमित करने वाला भी। ये दर्शाता है कि मुसलमान गन्दगी में जीते हैं। एक ऐसा शीर्षक जो मुसलमानों को बदनाम कर रहा है जिससे एक समुदाय की भावना आहत हो सकती है। पर मुसलमानों की भावना की किसे पड़ी है, जब दुनिया ख़ुद मुसलमान की परवाह नहीं करती. जो चंद लोग फ़िक्र करते हैं वो सिर्फ़ उनकी मौत के बाद या कभी – कभी इतनी भी नहीं करते।
एक परवाह ऐसी भी है जो दिखावे की है। वो लोग जो ख़ुद मुसलमान नहीं हैं पर समाज को ये बताने के लिए कि वो इस क़ौम के दुःख–दर्द समझते हैं, कई बार मुसलमानों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर चलते हैं और वक्त पड़ने पर सबसे पहले ये लोग पीठ दिखा देते हैं। ये सच्चाई का वो कड़वा घूंट है, जिसे कोई पीना नहीं चाहता। नागरिकता कानून के समय के विरोध प्रदर्शन को देख लीजिए। जिस तरह का सपोर्ट मिलना चाहिए था वैसा नहीं मिला। क्योंकि लोगों को लगा की ये अकेले मुसलमानों की समस्या है जबकि हक़ीकत इसके परे है। अगर 20 करोड़ से अधिक आबादी वाले समुदाय की समस्या देश की समस्या नहीं है तो फिर ये लोकतंत्र कैसे कहलाएगा।
देश का मुसलमान इस बात को समझता है पर वो मजबूर है। उसे बड़े राजनैतिक दुश्मन का सामना करना है जो उसने ख़ुद नही चुना बल्कि उसपर थोपा गया है। दशक–दर–दशक दुश्मन मज़बूत होते गए और मुसलमानों को कमज़ोर किया जाता रहा। जहां पूरे जिस्म पर अजगर लिपटा हो वहाँ आस्तीन के साँपों की तो फिर कभी देखी जाएगी.
आप दिल्ली के किसी इलाक़े में जाइए जहां अधिकतर मुसलमान बस्ते हों, आपको गन्दगी से दो–चार होकर जाना पड़ेगा. वहां भिनभिनाती हुई मक्खियां आपका स्वागत करेंगी। बच्चे पतली–पतली गालियों में एक ओर से दूसरे छोर पर दौड़ लगाते हुए दिखेंगे। शिखर और पान–मसाले के निशान हर कोने में पड़े मिलेंगे जैसे अपने मौजूद होने का सुबूत दे रहे हों। हाँ , एक चीज़ ने खूब तरक्की की है मुस्लिम बहुल आबादियों में वो है पुलिस का मकड़ जाल। पुलिस थाने खूब बने हैं और बन रहे हैं। पुलिस का रोल हमेशा से मुसलमानो के लिए संदेह भरा रहा है. याद कीजिए मेरठ के मलियाना की वो घटना जहाँ ने निहत्थे 42 लोगों को इस सिर्फ अपनी पूर्वाग्रह की वजह से पुलिस ने गोलियों से रौंद डाला। अभी हाल ही कि दिल्ली दंगे में दिल्ली पुलिस का रोल काफी संदेह भरा रहा।
आपको ज़्यादातर ये दृश्य देखने को मिलेगा कि किसी छोटी बच्ची की नाक बह रही होगी और वहां उसकी बहती नाक पर मक्खियां बैठी मिलेंगी. लक्मे, गार्नियर और हर्बल एवम फूलों वाले शैंपू लगाने वाले हम फेसपैक का इस्तेमाल करने वाले हम, कहां समझेंगे इस बात को की वो लड़की सांस नहीं ले सकती. अगर वो सांस लेने का जुर्म करती है तो मक्खी अंदर चली जाएगी।
वो कौन है जिसने मुसलमानों की सांसों पर मक्खियों का पहरा बिठा दिया है? क्या ये बायोलॉजिकल वार-फेयर नहीं है? दिल्ली ही की सड़कों पर एक तरफ़ बड़े–बड़े मकानात हैं, जहां सब के सब बड़े–बड़े लोग रहते हैं. कोई मक्खी नहीं, कोई गटर नहीं. घूमने के लिए पार्क. टहलने के लिए सुबह और सुस्ताने के लिए शाम. सब कुछ है।
दूसरी ओर मुसलमान, जिसे कमरा किराए पर नहीं मिलता. बड़ी जद्दोजेहद के बाद मिल भी जाए तो अगले महीने रेंट कैसे अदा हो, इस महीने से ये सोच खाए जाती है. एक–एक कमरे में कई परिवार के लोग ठूंसे हुए दिखाई देते हैं. जैसे दरबे में मुर्गियां ठेल दी गई हों. मुसलमानों का इलाक़ा दरबे से ज़्यादा कुछ नहीं. घेट्टो भी कहिए, अगर आपको सोफ़िस्टिकेटेड दिखना हो. अब यहां गन्दगी न हो तो क्या हो?
वो लाइन जो बहुत इस्तेमाल की जाती है, “अत्तहारतो निफसुल ईमान”, जिसके मानी हैं, सफ़ाई आधा ईमान हैं, तब कहना मुनासिब होगा जब, मुसलमान रहने के लिए जगह ले लें. शीर्षक—भिनभिनाती हुई मक्खियाँ और मुसलमान— बहुत अच्छा है. अगर थोड़े भ्रमित हो गए भी तो कोई बात नही।
नोट : भारत का एक अख़बार अपने सम्पादकीय में किसी ख़ास क़ौम की तारीफ़ करते हुए. साफ़ कह दिया है की नेशन 18 करोड़ सड़े सेब की मेज़बानी कर रहा है. ज्ञात हो, देश में मुसलमानों की तादाद लगभग इतनी ही है. दिल इस बात को सोचकर खुश है कि चलो अख़बार ने मुसलमानों को सड़ा कह दिया तो क्या हुआ, सड़ा सेब कहा है. सम्पादक का शुक्रिया।