बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर का जीवन संघर्ष

लहर डेस्क

अंबेडकर जयंती विशेष रूप से देश आज संविधान निर्माता डॉ बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जयंती मना रहा है। आज ही के दिन समाज के शोषित और वंचित तबके के लोगों को आवाज देने वाले डॉ अंबेडकर का जन्म 1891 में हुआ था। डॉ अंबेडकर ने अपना पूरा जीवन शोषितों, वंचितों और दलितों के उत्थान में लगा दिया और जीवन भर उनके हक की लड़ाई लड़ते रहे। शोषितों की आवाज थे बाबा साहेब।

बाबा साहेब महार जाति से आते थे जो कि उस समय अछूत माना जाता था। अंबेडकर को बचपन में ही समाज के विभेदकारी बर्ताव का सामना करना पड़ा था। उन्हें स्कूल में अलग बैठाया जाता था, ऊंची जाति के बच्चे उनसे ठीक से बात नहीं करते थे। अंबेडकर को ये बात काफी चुभती थी और उन्होंने उस अल्प आयु में ही समाज से इस विभेद को खत्म करने का प्रण ले लिया था।

अंबेडकर ने अपने जीवन में समाज से विभेद हटाने को अपना लक्ष्य बना लिया था और इसकी पूर्ति करने के लिए उन्होंने पढ़ाई को हथियार बनाया। बाबा साहेब बचपन से पढ़ाई में अव्वल आते थे और इसी का नतीजा था कि साल 1912 में बॉम्बे विश्वविद्यालय से राजनीति शास्त्र में ऑनर्स करने के बाद वो आगे की पढ़ाई करने के लिए अमेरिका चले गए। अंबेडकर की विदेश में पढ़ाई का खर्चा बड़ौदा के शासक ने उठाया था। यहां पढ़ाई करने के बाद बाबा साहेब ने साल 1921 में लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स से पढ़ाई पूरी की।

अंबेडकर ने पढ़ाई पूरी करने के बाद तमाम छात्रों की तरह नौकरी शुरू की, लेकिन बचपन में सामाजिक विभेद मिटाने की ली गई प्रतिज्ञा बार-बार उनके सीने में टीस मारती। इसी सबके बीच एक दिन उन्होंने सबकुछ छोड़ दिया और सामाजिक आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने 1936 में लेबर पार्टी का गठन किया। इससे पहले भी वह विभिन्न सामाजिक आंदोलनों का नेतृत्व करते आ रहे थे।

बाद में जब यह तय हो गया कि देश 15 अगस्त, 1947 को आजाद होगा तो संविधान बनाने की अहम जिम्मेदारी उन्हें उनकी बुद्धिमत्ता के कारण मिली। उन्होंने उस समय भारत के लिए ऐसा संविधान बनाया जो समाज के हर वर्ग को बराबर सम्मान और आवाज देता है। देश के आजाद होने के बाद वह भारत के पहले कानून मंत्री बने. अंबेडकर के जीवन में एक बड़ी घटना साल 1956 में घटी तब उन्होंने हजारों लोगों के साथ बौद्ध धर्म को अपना लिया था। अंबेडकर की मृत्यु उसी साल हो गई और उन्हें मरणोपरांत साल 1990 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से उन्हें नवाजा गया।

भीमराव अंबेडकर के पास थीं 26 उपाधियां

आज भारत के संविधान निर्माता, समाज सुधारक डॉ. भीमराव अंबेडकर की जयंती है। राष्ट्र निर्माण में अहम सहयोग देने वाले अंबेडकर का जन्म मध्य प्रदेश के महू में 14 अप्रैल 1891 को हुआ था। अबंडेकर को अपनी पढ़ाई और देश के लिए कई अहम कार्यों के लिए जाना जाता है। ऐसे में जानते हैं कि आखिर कितने पढ़े-लिखे थे बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर, आइए जानने की कोशिश करते हैं ;
• भीमराव अंबेडकर की शुरुआती पढ़ाई दापोली और सतारा में हुई और वे साल 1907 में बंबई के एलफिन्स्टोन स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए. इस अवसर पर एक अभिनंदन समारोह आयोजित किया गया था और उसमें भेंट स्वरुप उनके शिक्षक श्री कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर ने अपनी पुस्तक ‘बुद्ध चरित्र’ उन्हें प्रदान की थी।
• बड़ौदा नरेश सयाजी राव गायकवाड की फैलोशिप पाकर अंबेडकर ने 1912 में मुबई विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की. संस्कृत पढने पर मनाही होने से वह फारसी से पास हुए।
• बी.ए. के बाद एम.ए. की पढ़ाई के लिए बड़ौदा नरेश सयाजी गायकवाड़ की दोबारा फैलोशिप पाकर उन्होंने अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में दाखिला लिया. साल 1915 में उन्होंने स्नातकोत्तर उपाधि की परीक्षा पास की. साथ ही उन्होंने अपना शोध ‘प्राचीन भारत का वाणिज्य’ लिखा।
• साल 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय अमेरिका से ही उन्होंने पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की. उनकी पीएच.डी. शोध का विषय था, ‘ब्रिटिश भारत में प्रांतीय वित्त का विकेन्द्रीकरण’।
• उसके बाद उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स एंड पोलिटिकल सांइस में एम.एससी. और डी. एस सी. और ग्रेज इन नामक विधि संस्थान में बार-एट-लॉ की उपाधि के लिए रजिस्टर किया और भारत लौटे. साथ ही छात्रवृत्ति की शर्त के अनुसार बड़ौदा नरेश के दरबार में सैनिक अधिकारी और वित्तीय सलाहकार का दायित्व स्वीकार किया।
• उन्होंने मूक और अशिक्षित और गरीब लोगों को जागरुक बनाने के लिए मूकनायक और बहिष्कृत भारत साप्ताहिक पत्रिकाएं संपादित की और अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी करने के लिये वह लंदन और जर्मनी जाकर वहां से एम. एससी., डी. एससी., और बैरिस्टर की उपाधियां प्राप्त की।
• उनके एम. एससी. का शोध विषय ‘साम्राज्यीय वित्त के प्राप्तीय विकेन्द्रीकरण का विश्लेषणात्मक अध्ययन’ और उनके डी.एससी उपाधि का विषय ‘रुपये की समस्या उसका उद्भव और उपाय’ और ‘भारतीय चलन और बैकिंग का इतिहास’ था।
• बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर को कोलंबिया विश्वविद्यालय ने एल.एलडी और उस्मानिया विश्वविद्यालय ने डी. लिट् की मानद उपाधियों से सम्मानित किया था।
• इस प्रकार डॉ. अम्बेडकर वैश्विक युवाओं के लिये प्रेरणा बन गए, क्योंकि उनके नाम के साथ बीए, एमए, एम.एससी, पीएच.डी, बैरिस्टर, डीएससी आदि कुल 26 उपाधियां जुड़ी हैं।

ये वर्ष 2005 के आसपास की बात है। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और अंग्रेज महिला फ्रांसिस फिट्जेराल्ड के बीच लंबे पत्राचार को किताब के रूप में प्रकाशित करने की योजना बनाई गई। ये कुल मिलाकर 92 पत्र थे, जिनसे जाहिर होता है कि इंग्लैंड में पढ़ाई के दौरान फ्रांसिस और अंबेडकर करीब आ गए थे। कुछ की नजर में ये एक प्लेटोनिक रिश्ता था। इन 92 पत्रों में फ्रांसिस का अंबेडकर के प्रति अपनत्व झलकता है और प्यार भी। उनके प्रति फिक्र भी और कुछ हद तक अधिकार की भावना भी। कुछ पत्र प्यार के अहसासों में डूबे हुए थे। किताब के लेखक थे प्रोफेसर अरुण कांबले, जो न केवल अंबेडकर के विश्वस्त सहयोगी थे बल्कि अंबेडकर पर साहित्य प्रकाशित करने को लेकर महाराष्ट्र सरकार द्वारा बनाए गए संपादकीय मंडल के सदस्य भी। हालांकि इस किताब के प्रकाशन पर अंबेडकर के पोते प्रकाश अंबेडकर ने आपत्ति की थी।

आखिरी किताब फ्रांसिस को समर्पित की थी। अंबेडकर और फ्रांसिस के बीच पत्राचार 1923 में शुरू हुआ और 1943 तक चला। उसके बाद ये रिश्ता अचानक खत्म हो गया। डॉ. अंबेडकर की बायोग्राफी लिखने वाले सीबी खैरमोडे ने 12 खंडों की सीरीज की दूसरे खंड की किताब में फ्रांसिस का जिक्र विस्तार से किया है। जब अंबेडकर ने अपनी आखिरी किताब ‘व्हाट कांग्रेस एंड गांधी हैव डन टू अनटेचेबल’ लिखी तो ये किताब उन्होंने फ्रांसिस को समर्पित की।

इंडिया हाउस में टाइपिस्ट थीं फ्रांसिस

ये 92 पत्र अंबेडकर के जीवन पर नई रोशनी डालते हैं। ये भी कहा जाता है कि ये दो बौद्धिक हस्तियों का रिश्ता था। फ्रांसिस उन दिनों हाउस ऑफ कामंस और इंडिया हाउस में टाइपिस्ट थीं। अंबेडकर से वह 1920 के आसपास लंदन में ही मिलीं। वह अपनी मां के साथ बोर्डिंग हाउस चलाती थीं जहां अंबेडकर भी लंदन में पढ़ाई के दौरान रहे थे।

भारत भी आना चाहती थीं फ्रांसिस

अंबेडकर के पत्रों से लगता है कि वह फ्रांसिस को डी कहकर बुलाते थे जबकि उनकी अंग्रेज मित्र उन्हें प्यारे भीम के रूप में संबोधित करती थीं। वह वर्ष 1943 में भारत आना चाहती थीं। लेकिन तत्कालीन राजनीतिक हालात के चलते उन्हें वीजा नहीं मिल सका। 1964 में बाबासाहेब के सहयोगी और बैरिस्टर केके खाडे लंदन में फ्रांसिस से मिले। जब उन्होंने उनसे पूछा, ‘क्या उन्हें मालूम है कि डॉ. अंबेडकर ने अपनी आखिरी किताब उन्हें समर्पित की है’ तो उनका कहना था, ‘हां मुझे मालूम है। ’

कैसे होते थे पत्र

किताब के लेखक अरुण कांबले को लगता था कि फ्रांसिस बाबासाहेब के प्यार में थीं। भारत आने के बाद अंबेडकर जब भी इंग्लैंड जाते थे तब वह 10 किंग हेनरी रोड स्थित हेम्पस्टीड स्थित फ्रांसिस के अपार्टमेंट ठहरते थे। फ्रांसिस अपने पत्रों का अंत योर लविंगली या विद फांडेस्ट लव के साथ करती थीं।
इन पत्रों में प्यार की गर्मी और अहसास महसूस होते हैं। चूंकि फ्रांसिस हाउस आफ कामंस में काम करती थीं लिहाजा वहां की गतिविधियों की जानकारी उन्हें देती रहती थीं।

पत्रों में स्वास्थ्य को लेकर चिंता

अक्सर उनके पत्रों में अंबेडकर के स्वास्थ्य को लेकर चिंता झलकती है। वह एक पत्र में लिखती हैं, ‘मैं सोचती हूं 16 पाउंड वजन कम होना बड़ी बात है। मैं डर रही हूं कि अगर आप वहां लंबा रह गए तो कंकाल न बन जाएं। आपकी काम करने की क्षमता पर भी असर पड़ेगा। ’

फ्रांसिस का एक पत्र

10, किंग हेनरी रोड
प्रिमोर्स हिल
एन डब्ल्यू 3

डियर तुम्हारे पत्र और पांच पाउंड के चेक के लिए धन्यवाद। मैने एलीन के लिए गोल्ड रिस्टलेट वाच औऱ ब्रेसलेट खरीदी है। वह इससे खुश होगी। मुझे दुख है कि तुम यहां पार्टी में नहीं होगे। तुमने अभी तक नहीं बताया तुम कहने के बाद भी क्यों नहीं आए। क्या दिक्कतें तुम्हें आने से रोक रही थीं। जल्दी से जल्दी आने की कोशिश करो। मैं दिन गिन रही हूं। मेरे प्यार और देखभाल से तुम फिर अच्छे हो जाओगे। अगर तुम मुझे अपने आने के बारे में बता दोगे तो मैं स्टेशन पर आउंगी। भगवान तुम्हें हमारे मिलने तक सुरक्षित रखे।

प्यार सहित
हमेशा तुम्हारी

आगाह भी किया

अपने एक पत्र में फ्रांसिस ने उन्हें आगाह भी किया कि वह उसके प्यार में नहीं पड़ें, वह केवल उनके हैं। लेकिन न जाने क्या हुआ कि वर्ष 1943 के बाद दोनों के बीच पत्राचार औऱ संबंध खत्म हो गया। अंबेडकर की व्यस्तताएं भी भारतीय राजनीति में बढ़ गईं थीं।

बाबासाहेब की पहली शादी

बाबासाहेब की पहली शादी 1906 में हुई थी। बाबासाहेब 15 साल के थे। पहली पत्नी रमाबाई और कम उम्र की थीं। शादी के बाद अंबेडकर की पढ़ाई जारी रही। बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के लिए वह इंग्लैंड गए। लौटकर दलितों के उत्थान के अभियान से जोरशोर से जुड़ गए। पहली पत्नी से पांच बच्चे हुए। लंबी बीमारी के बाद रमाबाई का 1935 में निधन हो गया।

डॉक्टर सविता से नजदीकी और दूसरा विवाह

वर्ष 1947 के आसपास बाबासाहेब डायबिटीज, ब्लड प्रेशर से काफी परेशान थे। पैरों में दिक्कत बढ़ गई थी। इलाज की सलाह दी गई। मुंबई की डॉक्टर सविता ने इलाज शुरू किया। वह पुणे के सभ्रांत मराठी ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखती थीं। इलाज के दौरान वह डॉक्टर अंबेडकर के करीब आईं। दोनों की उम्र में अंतर था। 15 अप्रैल 1948 को अंबेडकर ने अपने दिल्ली स्थित आवास में उनसे शादी कर ली।

दूसरी शादी से फैली नाराजगी

जब शादी हुई तो न केवल ब्राह्मण बल्कि दलितों का बड़ा वर्ग भी खासा कुपित था। अंबेडकर के बेटे और नजदीकी रिश्तेदारों को भी ये शादी रास नहीं आई। रिश्तेदारों में यह खटास जिंदगी भर बनी रही। विवादों को किनारे रखें तो कोई शक नहीं कि डॉक्टर सविता माई (बाद में उन्हें माई ही कहा जाने लगा था) ने पूरी निष्ठा के साथ मरते दम तक अंबेडकर का ख्याल रखा। उनकी सेवा में जुटी रहीं।