बटला हाउस एनकाउंटर के खौफ और डर का हिसाब…

रिज़वान रहमान की स्पेशल रिपोर्ट (पार्ट 2)
अब जबकि बाटला हाउस एनकाउंटर पर साकेत कोर्ट का फैसला आ चुका है और आतंकी आरिज़ खान को फाँसी की सजा सुनाई जा चुकी है लेकिन बहुत सारे सवाल अभी भी वैसे ही मुँह बाए खड़े हैं जिनका जवाब अभी खोजना बाकी है। ऐसा लगता है कि फैसला सुनाने में तथ्यों से ज़्यादा भावनाओं का ख्याल रखा गया है। ये फैसला वैसे ही है जैसे बाबरी मस्जिद विध्वंश राम जन्म भूमि विवाद का फैसला था जिसमे तमाम साक्ष्य होने के बावजूद अलग तरह का फैसला सुनाया गया। निश्चित रूप से इस फैसले का बटला हाउस और उसके आस पास रह रही आबादी पर भी पड़ेगा। बल्कि बटला हाउस एनकाउंटर के बाद हालात काफी कुछ बदले हैं और यहां रह रहे लोग इसे महसूस भी करते हैं।
रिपोर्ट में लगी इस तस्वीर को ध्यान से देखिये। हालाँकि की ये तस्वीर केवल प्रतीकात्मक है लेकिन बदनुमा सच यही है कि बटला हाउस को लेकर आज भी माना जाता है कि वहां आतंकी रहते हैं। आप कभी किसी कैब ड्राइवर से बता कर देखिए कि बटला हाउस जाना है और ठहर कर इंतजार कीजिए कि उधर से जवाब क्या आता है। शायद वे यह कहते हुए आने से मना कर दें, “सर/मैडम वहां जाने से डर लगता है.” हालांकि कैब वालों का यह बर्ताव कभी-कभी ही होता है, फिर भी कुछ एक से तो यहां तक कहते सुना है कि बटला हाउस में आतंकवादी रहते हैं।
क्या इसके जिम्मेदार देश के वे आम लोग हैं जिन्हें बटला हाउस आने से डर लगता है। नहीं, बिल्कुल भी नहीं। वे मासूम लोग हैं। उनमें डर बिल्कुल प्राकृतिक रूप में बसा है जिसकी जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ इस देश की सरकारें हैं। चाहे वो सरकार कांग्रेस की हो अथवा बीजेपी की, सभी सरकार एक डरा हुआ नागरिक पैदा करना चाहती है। एक ऐसी भीड़ जो एक दूसरे को शक की नज़र से देखे, भरोसे नहीं करे, सामने वाले की हरारत को भी खतरनाक गतिविधि माने। सरकारी तंत्र का काम करने का तरीका ही यही है। इसिलिए इसमें उन लोगों का कोई दोष नहीं जिनके दिमाग में शक का पैबंद दक्षिणी दिल्ली के एक ऐसे इलाके को लेकर चिपका है जहां अभी भी लोग मानते है कि एनकाउंटरफर्जी था, को बीते हुए भी करीब 13 साल हो गए हैं। जिसे लेकर दिमाग में अविश्वास इतना छप चुका है कि मिटाए नहीं मिटता। लेकिन अगर इस फर्जी एनकाउंटर की न्यायिक जाँच हुई होती तो जरूर ही बटला हाउस को लेकर आम आदमी का यह नजरिया नहीं होता लेकिन की कांग्रेस की शीला दीक्षित की सरकार केवल इस लिए मना कर दिया कि इससे पुलिस का मनोबल गिरेगा। हां, हम अपने कंफर्ट रूम में बैठ कर जरूर कह सकते हैं, “अब ऐसा कुछ भी नहीं है। ”
बटला हाउस एनकाउंटर का आंखों देखा हाल जानने वाले बताते हैं, “ उस दिन अचानक हवा में फायरिंग की आवाज़ गूंजी और पूरे इलाके में सन्नाटा पसर गया। रमजान के महीना में भी खौफ का ऐसा माहौल तारी हुआ कि पूरी रात जगमगाने वाले बटला हाउस में या तो आवारा कुत्ते भौंकते हुए नज़र आते या फिर पुलिस के जवान और इसके बाद सिलसिला शुरू हुआ इलाके के मुस्लिम नौजवान को दबोचे जाने का। तब ओखला इलाके में जूलेना, सरिता विहार, आश्रम, महारानी बाग और आसपास में रहने वाले हिंदू मकान मालिक तो क्या मुस्लिम मकान मालिकों ने भी अपने घरों से जामिया में पढ़ने वाले बच्चों को निकाल दिया। हर कोई एक दूसरे को शक की निगाह से देखता। वे दोस्त जो पहले एक साथ कैंटीन में बैठकर चाय पीते, घंटों गप्पे मारते, अब दूर-दूर रहने लगे थे। चारों ओर शक और संदेह का एक माहौल बन गया कि वर्षों के दोस्ती में भी ज़हर घूल गई.“
कुछ आंखों देखा बयान
1.उस वक़्त मैं वहीं था। आप अगर वहा के किसी भी अवाम से पूछेंगे तो यही बात सुनने को मिलेगा के गोली बारी हुई ही नहीं बस पुलिस ने बाहर निकल कर इधर-उधर फायर किया जिससे अवाम में अफरा तफ़री फ़ैल जाये और जब तक कुछ समझ मे आता सब कुछ खत्म हो चूका था।
2. बटला हाउस के बाद की दहशत हमने देखी है उस वक्त हम छठी क्लास में थे और पूरा इलाका पुलिस की छावनी बन गया था। घरों के दरवाजे तोड़कर पुलिस वाले लोगों के घर की तलाशी लेते, बदतमीजी करते थे। संजरपुर गांव तो छोड़ दीजिए आसपास के 50 किलोमीटर एरिया में दिन ढलने के बाद लोग सड़कों पर जाने से कतराते थे। उन्होंने अपने बच्चों का स्कूल कॉलेज छुड़वाना इसलिए शुरू कर दिया था कि पढ़ने वाले बच्चों को ही मारा जा रहा है। और यह दहशत कोई एक-दो दिन नहीं, सालों साल थी, आज भी है।
3. बटला हाउस होने के बाद जब विरोध प्रदर्शन हो रहे थे तो हमारी एक मैडम ने हमसे कहा, तुम लोग तो एक पाकिस्तान पहले ही ले चुके हो, अब क्या एक और देश बनाओगे क्या. इस पर हम महीनों शर्म के मारे स्कूल नहीं गए थे।
इस तरह एक कथित सेक्यूलर मुल्क में मुसलमान भय में तो चले ही गए, कैफ़ी आज़मी का आज़मगढ़ रातो-रात आतंकगढ़ बन गया। लखनउ रिहाई मंच के नेता मसीहुद्दीन संजरी कहते हैं, “बटला हाउस फर्जी एनकाउंटर के बाद आजमगढ़ में बच्चो के घर वाले सोच-सोच कर गहरे सदमे में पहुंच गए, दिल की बीमारी के शिकार हो गए। एनकाउंटर में मारे गए साजिद के पिता डॉक्टर अंसारुल हस्सान बेटे की मौत की ख़बर के बाद बुत बन गए तो मां ने बिस्तर पकड़ लिया। आख़िरकार डॉक्टर साहब दुनिया का अलविदा कह गए. आरिफ़ बदर के पिता बदरुद्दीन चल बसे तो वहीं उसकी मां का दिमाग़ी संतुलन बिगड़ गया। आरिज खान के पिता ज़फ़र आलम, सलमान के दादा शमीम, अबू राशिद के पिता एख़लाक़ अहमद अपने बेटों के ग़म में चल बसे। ” आरिज खान वही हैं जिसे पिछले दिन अदालत ने सजा सुनाई है.
लेकिन इस सदमा, इस खौफ, इस डर का हिसाब कौन लगाए…