अपने ही पैरोकार वयवस्था की बलि चढ़े रोहित

रिज़वान रहमान

किसी की मौत उपयोगी है या बेमानी, यह वक़्त, हालात और मौत की वजह पर निर्भर करता है। एक दंगाई, मास मर्डरर, जनसंहार करवाने की प्रवृति रखने वाले की अचानक हुई मृत्यु चल रही व्यवस्था में जरा भी गतिरोध पैदा नहीं करती है, बल्कि उसका स्थान ग्रहण करने के लिए उसी प्रवृत्ति या उससे खतरनाक प्रवृत्ति के दस दौड़ पड़ते है। और नरपिशाचों की महफिल में हर्ष-उन्माद बदस्तूर चलता ही रहता है।

इसिलिए फासिस्टों को मुसोलिनी जैसी मौत मिलनी चाहिए जैसे कि उसे गोली मारकर पेड़ से लटका दिया गया था। यह भी नहीं तो कम से कम हिटलर जैसी मौत होनी ही चाहिए कि वह बागियों के डर से खुद को गोली मार ले। अगर किसी फासिस्ट की इससे कमतर मौत होती है, मसलन वह महामारी का शिकार हो जाए, तो मुझे उसके ठंडे पड़े जिस्म पर रहम आता है। मैं सोचता हूं, ओह! इसे इतनी आसान मौत मरनी थी। आखिर इसका नतीजा भी क्या निकलेगा।

मुसोलिनी को उसकी प्रेमिका और 16 अन्य लोगों के साथ वहीं मारा गया था जहाँ उसने 8 महीने पहले अपने 15 विरोधियों को गोली से उड़वा दिया था। लेकिन फर्ज कीजिये, किसी रात हिटलर अचानक से हार्ट अटैक का शिकार हो काल के गाल में समा गया होता, तो क्या उसकी मृत्यु की खबर प्रसारित होते ही, नस्लीय जनसंहार रुक जाता? या फिर उसका सूचना मंत्री ‘गोएबल्स’ या कोई और जनरल उसकी जगह लेकर उसी तरह खून बहा रहा होता, ज्यूस को भट्ठियों में झोंक रहा होता, जैसे हिटलर करता था।

आज जर्मनी में नाजी विचारधारा से सहमति रखना कानूनन जुर्म है। यह इसलिए संभव हुआ कि हिटलर नैचुरल डेथ या महामारी का शिकार नहीं हुआ था। एक डरे हुए तानाशाह ने खुद को गोली मार ली थी। उसे मालूम पड़ गया था कि उसका खतम हो चुका है, और ऐसे में खुद को जिंदा रखना अंतहीन सज़ा है। आज रोहित सरदाना मर गया। इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। उसकी जगह कई दूसरे रोहित सरदाना पैदा हो सकते हैं, क्योंकि व्यवस्था नहीं बदली है। दक्षिणपंथी उन्माद में कमी नहीं आई है। हां अगर उसने आज की गिल्ट, आने वाले दिनों के डर में खुद की जान ली होती अथवा किसी के गुस्से का शिकार हुआ होता तो शायद कुछ फर्क पड़ता। शायद कोई और, उसका स्थान लेने में भय खाता। लेकिन वह इतनी आसान मौत मरा है कि अब तक कईयों ने उस जैसा बनने की कसम खा ली होगी।

इसलिए मुझे उस दलाल, दंगाई के मरने पर तनिक भी खुशी नहीं हुई है। मैं फिर से उसके ठंडे पड़े जिस्म पर अफसोस जाहिर करता हूं। जिस तरह वो सरकार से मिली भगत करके जिस वयवस्था का निर्माण किया है वो कितना भयावह होगा उसकी झलक हमें देखने को मिल रही है। चारो तरफ मौत का हाहाकार मचा हुआ है। रोहित जैसे लोगों ने कभी सिस्टम से सवाल नहीं किया उल्टा उसकी गोदी में बैठ कर उसका जय जय जैकार करने लगे। मुझे दुख है कि जिस व्यवस्था का वह पैरोकार रहा, उसी ने उसकी जान ले ली।