कोरोना संकट ,पूंजी पतियों की बढ़ती बेचैनी, मसलों का हल एप और हेल्पलाइन के जरिए क्या ढूँढना सही है?

लेखक – रफी अहमद सिद्दीकी

कोरोना का रोना दुनियाभर में मचा हुआ है मज़दूरों को पूँजी बनाने का जरिया  मानने वाले सरमायेदार मज़दूरों के आराम और प्रदूषण के कम होने से काफ़ी बेचैन हैं अर्थ व्यवस्था को बढ़ाने के लिए मज़दूरों को खपाना और प्रदूषण को बढ़ाना ज़रूरी हैं इस लिये दुनियाभर के नेता और सरमायेदार इन दिनों मानवजाति,मानव कल्याण,इंसानियत,भलाई,मानव जाति को बचाने का राग अलाप रहें है और एक पल में दुनिया तबाह करने वाला परमाणु बम रखने वाले लोग मानवता का रोना रो रहे हैं जहाँ दुनियाभर में उत्पादन ठप पड़ा है और पूँजी बिना श्रम के दम तोड़ रही है वहां ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की हवस और मज़दूरों से पूँजी बनाने के लिए 12 से 15 घण्टे खपाने वाले पूंजीपतियों को मज़दूर अब इंसान नज़र आने लगें हैं।


पूंजीपतियों की मानवता शाखा इन दिनों बहुत सक्रिय है CSR से पलने वाली यह शाखा इन दिनों मदद-मदद का खेल खेल रही है और मदद फ़ोटो अगले प्रपोज़ल के लिए फेसबुक वादियों की सैर कर रही है ताकि मरती पूंजी और वेंटिलेटर पर पड़ी संक्रमित व्यवस्था का यक़ीन बनाये रखा जाए| अब तो मज़दूरों को शहरी फ़क्ट्रियों में खपाने का सपना भी दम तोड़ता नज़र आ रहा है मजदूरों का इतना खौफ़ है कि शहर में उन्हें भूखा रखना ख़तरे से ख़ाली नहीं इसलिए स्पेशल ट्रेन्स चलाकर शहरों से दूर गाँव भेजने का काम शुरू कर दिया और यह काम साबित करता हैं कि अभी यह लाक डाउन का सिलसिला भी जल्दी ख़त्म होने वाला नही हैं|

राशन का वितरण करा रहे समज सेवी और कतार में खड़ी बेबस प्रवासी मज़दूर जनता – फोटो नॉएडा से है .


सिस्टम को सही करने में हेल्प लाइन नम्बरों की भरमार लगी है जिसमें कभी-कभार कोई बात कर लेता है दिल्ली के कापसहेड़ा गांव में रहने वाले प्रवासी मज़दूर साथी बताते हैं एम्बुलेंस के लिए कॉल किया था पता भी बता दिया फिर भी 3 दिन गुज़र गए लेकिन एम्बुलेंस अभी तक नही पहुंची और इधर डिजिटल इंडिया का बोलबाला – एप की बाढ़ लगी है कई नयी प्रजातियां जन्म ले रहीं है और सभी समस्याओं का हल एप में तलाश किया जा रहा है हर एक विशेष समस्या के लिए एक विशेष एप  हैं लेकिन इन एपों के संक्रमण के बाद भी समस्याओं का सिलसिला ख़त्म ही नहीं हो रहा है।
इंटरनेट पर बुद्धिजीवियों का विकास सूत्र अपने चरम पर है और दुनियाभर की पूंजीपतियों की सरकारें डेटा पर विकास कर रही हैं। यानि की अब हर कोई अपना सामन बेचने के लिए गरीब , मज़दूर या यूं कहें की ग्रामीण आबादी पर कैसे गिद्ध की नज़र है मार्किट की तलाश है . प्रदूषण कम करने वाली और पृथ्वी सुरक्षित करने वाली मीटिंग्स बिना मोहिम के कामयाब होती नज़र आ रहीं है।

उधर पूँजी से इस संसार को बेहतर बनाने का दावा करने वाले लोग जल्द से जल्द मज़दूरों को फ़ैक्टरियों में खपाने का मौका तलाश रहें हैं और बड़े बड़े बंगलों में रहने वाले लोग मजदूरों को सामाजिक दूरी का गीत सुना रहें हैं जहां मज़दूर साथी महानगरों के छूटे छुटे कमरों में 5 लोगों के साथ रह रहे हैं और एक शौचालय में 20 लोंगों जाना आम बात है महानगरों में मज़दूरों को फ़ैक्टरियों में खपाने के लिए मुर्गी के दरबे की तरह बनी कॉलोनियों में रहने वालो लाखों प्रवासी मज़दूरों को सामाजिक दूरी और भूखे रखकर कानून का पालन करने का पाठ पढ़ाया जा रहा है और मज़दूर साथियों को 2 गज़ दूर रहने को बोला जा रहा है|

गुड़गाव के सहरौल गांव में रहने वाले मज़दूर साथी बताते है मेरा कमर ही 10 x10 का है उसमें 5 लोग रहते हैं 2500 महीना किराया देते है तो यह कैसे मुमकिन है कि 2 गज़ दूरी बनायी जाये।
महानगरों में मज़दूरों के लिए बनाई गई माचिस की डिब्बी जैसी इमारतें इन दिनों पूरी तरह से भरी है और जो मज़दूर नियम,कानून,राज्य,पूँजी बनाने की शहरी फ़ैक्टरियों से बच के निकल गये उनकी चिंता सरमायेदारों की मुश्किलें बढ़ाती जा रही है फ़ैक्टरियों में लगे रोबोट बिना मज़दूरों के चलने को तैयार नहीं हैं|

शारीरिक श्रम और फील्ड में काम करने वाले लोंगों को बेवकूफ समझने वाले तकनीकी तन्त्र (technocrats) इन दिनों इन्हीं के रहमोकरम पर पल रहें हैं मशीनों से इंसानों को चलाने वाले लोग, अब इंसान को मशीन चलाने के लिए ढूंढ रहे हैं। पूंजीपतियों के लिए कोरोना वायरस ने सामाजिक दूरी का ऐसा ताना-बाना बुन दिया है कि प्रदूषण से लेकर उत्पादन तक घट गया है “जो काम करेगा वही अपने परिवार का पेट भरेगा” कहने वाले पूंजीपति इन दिनों “जो काम करेगा वही मरेगा” कहने को मजबूर हैं।

पूरी दुनियां की डरी हुईं सरकारें और पूंजीपतियों को मज़दूरों के विद्रोह का डर सता रहा है।
दान दाता मज़दूरों के श्रम से बनी पूँजी को दान कर वाहवाही बटोर रहें हैं। बरसों से “संक्रमित व्यवस्था” कोरोना के संक्रमण से लड़ रही है लाखों मन अनाज गोदामों में पड़े संक्रमित व्यवस्थाओं का इन्तेज़ार कर रहें हैं मज़दूरों के श्रम का हक़ टुकड़ों में दिया जा रहा है इंसानों के लिए बनी धरती पर चन्द पूंजीपतियों का कब्ज़ा था जो इन दिनों उनके हाथ से निकलता जा रहा है कुछ ज्ञानी पूंजीपति काम के घंटे बढानें का ज्ञान दे रहें हैं अर्थ व्यवस्था की खराब हालत ही धरती (earth) नई ज़िन्दगी दे रही है.

इस संक्रमित व्यवस्थाओं का हॉटस्पॉट कार्यालयों में से निकल कर अब हेल्पलाइन नम्बरों और एपों पर नज़र आ रहा है एजेंटों की जगह एपों और हेल्पलाइन नम्बरों ने लेली है।
इस “सिस्टम वायरस” से संक्रमित सबसे ज़्यादा मज़दूर और ग़रीब व्यक्ति ही होते हैं सिस्टम वायरस से संक्रमित इंसानों में व्यवस्थाओं पर विश्वास बढ़ता जाता है और वह इन्सान कार्यालयों के चक्कर लगा लगाकर वर्तमान काल से भूतकाल में बदल जाता है और इंसान इस संक्रमित व्यवस्था में ही इलाज दूँढता रह जाता है ।

आप श्रमिकों , किसानों , फ्रंट लाइन वर्करों , खेतिहर मजदूरों और अपने आप को पूंजी का हिस्सा मानने वाले सफेद पोश प्रबंधकों और उनके नीचे के समन्वयकों अगर आपको अब तक संकर्मन का जवाब , हेल्प लाइन , एप पर नहीं मिला है और व्यवस्था आप को केवल उम्मीद दिखा रहा है तो आप जरूर अपनी राय हम से साझा करें , आप की राय लेखकों और पाठकों को सोचने के आयाम पैदा करता है , बहस से बेहतर की और कदम बढ़ता है , अँधेरे से उजाले की रौशनी की लौ दिखती है . आपके सुझाव और सवाल का इंतज़ार रहेगा.