चालाकी- समझदारी और सीधापन में क्या कोई रिश्ता है?

अपने अथवा समूह-विशेष (परिवार, विद्यालय, संस्थान, क्षेत्र, जाति, रंग, लिंग, धर्म, प्रान्त, देश, देशों का समूह-विशेष) के हानि-लाभ को ध्यान में रख कर बुद्धि-ज्ञान का प्रयोग करना चालाकी-समझदारी हैं। अनेक प्रकार के लाभ हैं। अनेक प्रकार की हानि हैं। जो सही आंकलन कर सके वह समझदार। जो कम सही हिसाब लगा सके वह चालाक। जोड़-तोड़ में, झूठ बोलने में, सच बोलने में जो माहिर हों वह चालाक-समझदार हैं….. सच कई प्रकार की हैं। क्या है सच? क्या है झूठ? सच और झूठ, दोनों गड़बड़ा गये हैं।

चालाकी यह नहीं देखती कि सम्बन्धों का क्या हो रहा है। समझदारी सम्बन्धों को टूटने नहीं देती क्योंकि कहीं न कहीं, कभी न कभी काम में आ सकते हैं। समझदारी से काम चलाऊ सम्बन्ध बनते हैं। समझदारी से लोगों के बीच मधुर सम्बन्ध नहीं बन सकते। चालाकी और समझदारी विगत में महाभारत लिये थी – बन्धुओं द्वारा परस्पर हत्यायें।

आज चालाकी और समझदारी बहुत-ही व्यापक हैं। हर क्षेत्र में आज चालाकी और समझदारी का बोलबाला है। हर व्यक्ति, प्रत्येक संस्थान आज हर समय, हर स्थान पर विक्रेता अथवा ग्राहक बनी-बना है या फिर ऐसा होने के लिये प्रयासरत हैं। प्रकृति के संग हानि-लाभ वाले, चालाकी-समझदारी वाले सम्बन्ध पर्यावरण के बारे में हाय-तौबा के बावजूद पृथ्वी पर जीवन को विनाश के कगार पर ले आये हैं। अन्य जीव योनियो …… अपनों के संग चालाकी-समझदारी वाला व्यवहार अकेलेपन की महामारी लाया है। और, अपने स्वयं के साथ चालाकी-समझदारी, यानी व्यवहारिकता व्यक्तित्व में एक ही नहीं, कई विभाजन लाई है। चालाकी-समझदारी का बोलबाला सामाजिक मनोरोग का बोलबाला है।

चालाकी-समझदारी अधिक चालाकी-समझदारी को जन्म देती है, टेढापन टेढेपन को बढाता है। महाभारत के दौर से बहुत अधिक विकट स्थिति में हम आज अपने को पाते हैं। गीता ज्ञान की तुलना में आज ज्ञान बहुत अधिक घातक है। और, उपरोक्त के दृष्टिगत यह कहना कि इस युग में सीधापन नहीं चलेगा…….अति निराशा, अति हताशा की अभिव्यक्ति है – असहायता के दर्शनों की पुष्टि करना है।

ऊँच-नीच वाली विद्यमान व्यवस्था में ही समस्याओं के समाधान ढूँढने के प्रयास चालाकी-समझदारी के आधार हैं। सामाजिक समस्याओं के निजी समाधानों, समूह-विशेष के हित में समाधानों के प्रयास हैं चालाकी समझदारी। वर्तमान व्यवस्था में ही समस्याओं के समाधान ढूँढना काफी समय तक बहुत व्यापक होता है। अत्याधिक विकट स्थिति आज फिर वर्तमान व्यवस्था के पार जाने के लिये दस्तक पर दस्तक दे रही है।

छिपाने से वास्तविकता बदलती नहीं है। चालाकी, समझदारी, झूठ, छल-कपट वास्तविकता को सामने नहीं आने देते। सन्देह और अविश्वास का इनके साथ चोली-दामन का साथ है। पीडा, बढती पीड़ा, असहय पीड़ा। …. वास्तविक स्थिति को सामने रखेंगे तो ही एक-दूसरे की पीड़ा को जानेंगे, समझेंगे और, वास्तविकता को बदलने के लिये मजदूरों का, लोगों का आपस में जुड़ना प्राथमिक आवश्यकता है….

हानि-लाभ के चक्रव्यूह की काट क्या है? चालाकी-समझदारी के फेर से कैसे निकलें? चौतरफा सन्देह और अविश्वास से पार कैसे पायें? व्यवहारिकता की चौखट से बाहर कैसे निकलें? यह हालात बनी कैसे? प्रश्न बहुत हैं। जड़ें बहुत पीछे जाती हैं। इन सब की चर्चा फिर कभी करेंगे। आज हर कोई जो आसानी से कर सकती-सकता है उस पर विचार-विमर्श के लिये आमन्त्रण के संग कुछ बिन्दुओं को देखें।

आज सीधापन व्यवहारिक नहीं है। इस टेढी दुनियाँ में सीधापन बेवकूफी है। हाँ, टेढेपन से टेढापन बढता है। पर हाँ… और हाँ, शायद सीधापन ही टेढेपन का उपचार है। मन्थन करते हुये आइये

— सीधेपन की राह पर चलने की कोशिश करें। अपने जैसों के संग प्रारम्भ करें। अपने सहकर्मियों और पड़ोसियों के साथ व्यवहार में शुरू करें।

— सन्देह और अविश्वास के बोलबाले में दरार डालने के लिये धीरज, बहुत धीरज आवश्यक है। अटपटे हँसी-मजाक के लिये तैयार रहना भी जरूरी लगता है।

— वर्तमान परिस्थितियों में सीधापन छोटे-मोटे नुकसान तो लिये ही लिये है। इन छोटी-छोटी परेशानियों को झेलना बहुत कठिन नहीं है।

— पड़ोसियों और सहकर्मियों के बीच अपने को इक्कीस दिखाने के प्रयास नहीं करना। पड़ोसियों और सहकर्मियों को उन्नीस दिखाने की कसरतें नहीं करना। अपनी बातें ऊपर रखना…..झूठे-थोथे सम्मान से अधिक कुछ नहीं दिला सकती।

— पड़ोस में और कार्यस्थल पर अपना बोझा दूसरों पर डालने की कोशिशें नहीं करना। पड़ोसियों-सहकर्मियों के ऐसा करने पर बिदकना नहीं। बिना अधिक परेशानी वाला ऐसा जो अतिरिक्त कार्य हो वह कर देना।

— पड़ोसियों और सहकर्मियों के नकारात्मक पहलूओं को तूल नहीं देना। उनके सकारात्मक पहलूओं को हाथों-हाथ लेना, स्वागत करना।

— चुगली की महामारी से बचना।

— पड़ोसियों और सहकर्मियों को काटने से, चपत लगाने से बचना। चायपानी के छोटे-छोटे खर्चे झेल सकते हैं, स्वयं झेलना।

— अपने को अच्छा और सहकर्मी-पड़ोसी को बुरा दिखाने से दूर रहना। अपने जैसों की परेशानी बढ़ाने वाले कदमों से कोसों दूर रहने की कोशिश करना।

बहुत-ही आसान। छोटे-छोटे कदम। धीरज। समय बीतने के साथ सीधापन सन्देहों को कम करेगा। अविश्वास की घटायें छंटने लगेंगी। चालाकी और समझदारी ढीले पड़ेंगे। टेढापन डगमगाने लगेगा…..

एक-दूसरे के नजदीक आते, जुड़ते-जोड़ते मजदूर सहज-ही वर्तमान वास्तविकता को बदलने की राहों पर बढ़ सकते हैं, मधुर सम्बन्धों की राहें खोल सकते हैं।

(मजदूर समाचार के दिसम्बर 2010 अंक से।पुस्तक “सतरंगी” में भी)