क्यों कम होता जा रहा है आपसी सौहार्द!

जुलाई 2017, देश के प्रधानमंत्री देशवासियों को संबोधित कर रहे थे और कह रहे थे कि गाय के नाम पर हत्या “स्वीकार्य नहीं” है. और उनकी इस टिप्पणी के कुछ ही घंटे बाद कथित तौर पर भीड़ ने एक मुस्लिम व्यक्ति को मार डाला. भीड़ में शामिल लोगों का इल्जाम था कि वो व्यक्ति अपनी कार में बीफ़ ले जा रहा था…. इसके बाद ये सिलसिला जारी रहा. एक हत्या, फिर दूसरी हत्या और फिर जाने कितनी ही मौतें…
जब गाय का बहाना खत्म हुआ तो नए बहाने उपजे. कहीं बच्चा चोरी का शक हुआ, तो कहीं डायन होने का, किसी ने किसी को गाली दी तो किसी ने बस यूं ही चलते—चलते किसी अनजान पर लात घूंसे बरसा दिए. देश के अलग—अलग हिस्सों से बीते 5 साल में मॉब लिचिंग की एक से एक भयानक घटनाएं सामने आ रही हैं. मरने वाला मर जाता है, मारने वाली भीड़ तितर—बितर हो जाती है और बात खत्म. अगर कोई न्याय मांगे भी तो किसके खिलाफ? क्योंकि भीड़ का तो कोई चेहरा नहीं होता. मॉब लिचिंग की घटनाओं पर सरकार भला कैसे आंकड़े जारी कर सकती है इसलिए कुछ निजी संस्थाओं और मानव अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों ने सर्वे किया. इंडियास्पेंड की रिपोर्ट के मुताबिक 2010 से गौ-हत्या के शक में अब तक भीड़ ने 87 हमले किए, जिनमें 34 लोग की मौत हुई और 158 लोग गंभीर रूप से घायल हुए. इन आंकड़ों के अनुसार देश में 2014 से पहले गौ हत्या के नाम पर हिंसा की दो घटनाएं हुई थीं. गौ-हत्या के शक में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हुई हत्याएं साल 2014 के बाद हुई हैं. ‘दी क्विंट’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015 से अब तक भारत में भीड़ द्वारा हत्या (मॉब लिंचिंग) के 94 मामले सामने आ चुके हैं. इंडियास्पेंड की दूसरी रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2012 से 2019 में अब तक सामुदायिक घृणा से प्रेरित ऐसी 128 घटनाएं हो चुकी हैं जिनमें 47 लोगों की मृत्यु हुई है और 175 लोग गंभीर रूप से घायल हुए हैं. एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार एक जनवरी, 2017 से पांच जुलाई, 2018 के बीच दर्ज 69 मामलों में केवल बच्चा-चोरी की अफवाह के चलते 33 लोग भीड़ द्वारा मारे जा चुके हैं और 99 लोग पीट-पीटकर गंभीर रूप से घायल किए जा चुके हैं. इसके अलावा नौकरशाहों की एक समिति ने तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता वाले मंत्री समूह को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए बताया था कि साल 2017 में नौ राज्यों में मॉब लिचिंग की 50 से ज्यादा घटनाएं हुईं जिसमें 40 लोगों की हत्या कर दी गई. जैसे—जैसे साल बदले वैसे—वैसे मॉब लिचिंग के कारण बदलते गए. यानि लोग गाय की हत्या से बच्चे की चोरी तक पहुंचे और अब तो ऐसा कोई कारण ही नहीं है जो हत्या की वजह ना बनता हो.
यह मसला जितना संवेदनशील है उतना ही अहम भी. इसलिए मोबाइलवाणी ने अगस्त 2019 में अपने विशेष चर्चा प्रधान कार्यक्रम जनता की रिपोर्ट में इन घटनाओं के पीछे के कारण और रोकने के उपाय खंगालने की कोशिश की. जिसमें मप्र, झारखंड और बिहार के 25 से ज्यादा लोगों ने अपने संदेश रिकॉर्ड किए और बताया कि वे मॉब लिचिंग पर क्या सोचते हैं?
ऐतिहासिक है मॉब लिचिंग का चलन
बिहार के मुजफ्फरपुर के मोहम्मद तारुफ कहते हैं, जो आज हो रहा है उसमें नया क्या है? ये तो हमारा इतिहास रहा है. जो कमजोर है उसे दबाओ, ना दबे तो कुचल दो. एक उदाहरण रखो और पूरे समाज को सबक सिखाओ. तारूफ ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड की. वे कहते हैं कि आज मीडिया मॉब लिचिंग की घटनाओं को हाईलाइट कर रहा है इसलिए ये हमें पता चल रही हैं वरना दूर—दराज के गांवों में तो ये चलन कभी बंद हुआ ही नहीं था. अगल—अलग धर्म तो क्या, लोग तो अमीर—गरीब और जात—पात के नाम पर एक—दूसरे को काटने को तैयार हैं. ये सब केवल राजनीति और वर्चव्य का खेल है. सम्प्रदाय और जातियों को केवल राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है. लोग भूल गए हैं कि जब भारत में अंग्रेजों के खिलाफ जंग होनी थी तो खून हिंदू, सिख और मुसलमान सबका बहा था. तब कोई भी खुद को खुदा का बंद या भगवान का रखवाला नहीं समझता था. तब कोई सनातन या इस्लामिक पहचान नहीं थी. कुछ था तो केवल भारतीयता. तब देश ही धर्म था और वही पहचान था. आज अपना नाम, अपना धर्म, अपनी जाति, अपनी पहचान है. इसके बाद कहीं जगह बच गई तो देश. पहले लोग देश के नाम पर दुश्मनों से लोहा लेते थे अब अपने नाम को बनाएं रखने के लिए अपने जैसे लोगों से ही जूझ रहे हैं.
वैसे मोहम्मद तारुफ की बात सोलह आने सच है. मॉब लिचिंग की घटनाओं से भारत का इतिहास भरा पड़ा है. बहुत दूर मत जाइए.. 1984 का सिख विरोधी दंगा और 2002 का गुजरात में मुस्लिम विरोधी दंगा इसी तरह की हिंसा का उदाहरण है. फर्क बस इतना है कि उस वक्त इसे दंगा कहा गया क्योंकि एक साथ कई लोग मारे गए और आज मॉब लिचिंग कहा जा रहा है जिसमें एक—एक कर लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा है.
इतिहासकार संजय सुब्रह्मणयम ने मॉब लिचिंग की घटनाओं के संदर्भ में लिखे अपने एक लेख में कहा था कि “मुझे इस बात का शक है लेकिन मैं इसे साबित नहीं कर सकता कि जो लोग इस तरह की वारदातों को अंज़ाम देते हैं, वो मनोरोगी होते हैं और इससे उन्हें ताकतवर होने का बोध होता है. मैं यकीन नहीं कर सकता कि मानसिक रूप से सामान्य इंसान इस तरह की भीड़ का हिस्सा हो सकता है.” लेकिन इस बारे में मोबाइलवाणी के श्रोता कुल अलग ही सोचते हैं. बिहार से मोबाइलवाणी के रिपोर्टर रंजन कुमार ने अपना संदेश रिकॉर्ड करवाया है. उन्होंने कहा कि बेरोजगारी और अशिक्षा के कारण समाज में ये हालात बने हैं. लोग सिस्टम को बदलने की कोशिश कर रहे हैं वो भी गलत तरीके से. वे समाज की कुरीतियों को आगे तक ले जा रहे हैं जबकि समय की मांग है कि अब समाज जाति प्रथा और सम्प्रदायवाद से हटकर देश के विकास के बारे में सोचे. जाहिर सी बात है कि आम लोग ये नहीं समझते कि भीड़ में खड़ा हर आदमी मनोरोगी है. हां ये जरूर है कि वो किसी विशेष तरह की विचारधारा के समर्थन में है.
आखिर कौन है खलनायक!
भारत के राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो (एनसीआरबी) की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2001 से 2014 तक देश में 2,290 महिलाओं की हत्या डायन होने की आशंका में पीट-पीटकर की गई. इनमें 464 हत्याएं अकेले झारखंड में हुईं. ओड़िशा में 415 और आंध्र प्रदेश में 383 ऐसी हत्याएं हुईं. राजधानी दिल्ली से सटे अपेक्षाकृत एक छोटे राज्य हरियाणा में 209 ऐसी हत्याएं हुईं. आज भारत में इस प्रकार की हत्याओं में साल-दर-साल बढ़ोतरी देखी जा रही है. किसी समय जब संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में इस तरह की हत्याएं शुरू हुईं, तो जहां 1890 में केवल 137 ऐसी घटनाएं सामने आईं, वहीं दो साल बाद 1892 में यह आंकड़ा बढ़कर 235 हो चुका था. सार बस इतना है कि हम मॉब लिचिंग के घिनौने इतिहास का हिस्सा बनते जा रहे हैं.
आपको फिल्म ‘मुन्नाभाई एमबीबीएस’ का वह सीन तो याद होगा जिसमें लोग एक साधारण से जेबकतरे पर टूट पड़ते हैं और हरिप्रसाद शर्मा की भूमिका में सुनील दत्त उस जेबकतरे (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) को भीड़ से बचाते हुए कहते हैं- ‘जानते हो ये (भीड़) कौन हैं? ये हमारे देश की जनता है जनता. इनके चेहरे देखे, कितने गुस्से में हैं! कोई बीवी से लड़कर आया है. किसी का बेटा उसकी बात नहीं सुनता. किसी को अपने पड़ोसी की तरक्की से जलन है. कोई मकान मालिक के ताने सुनकर आ रहा है. सरकार के भ्रष्टाचार से लेकर क्रिकेट टीम की हार तक हर बात पे नाराज हैं. लेकिन सब चुप हैं. किसी के मुंह से आवाज नहीं निकलती. और ये सारा गुस्सा तुझपे निकालेंगे. कर दूं इनके हवाले? सर फोड़ देंगे तेरा.’
यानि एक निहत्थे मासूम पर जानवरों की तरह टूट पड़ने वाले लोगों के पास ऐसा करने की कोई खास वजह नहीं है. आज के समय में मार डालने वाली यह भीड़ हीरो बनकर उभरी है. विशेषज्ञों का कहना है कि नायक के रूप में ये भीड़ दो अवतारों में दिखाई देती है.
पहला, भीड़ बहुसंख्यक लोकतंत्र के एक हिस्से के तौर पर दिखती है जहां वह ख़ुद ही क़ानून का काम करती है. अफ़राजुल व अख़लाक़ के मामले में भीड़ की प्रतिक्रिया और कठुआ व उन्नाव के मामले में अभियुक्तों का बचाव करना दिखाता है कि भीड़ ख़ुद ही न्याय करना और नैतिकता के दायरे तय करना चाहती है. जान से मारने वाली भीड़ की बात करें तो यह तानाशाही व्यवस्था का ही विस्तार है. भीड़ सभ्य समाज की सोचने समझने की क्षमता और बातचीत से मसले सुलझाने का रास्ता ख़त्म कर देती है.
दोनों ही मामलों में तकनीक इस गुस्से के वायरस को और फैलाने का काम करती है. तकनीक के इस्तेमाल से अफ़वाहें तेज़ी से फैलती हैं और एक-दूसरे से सुनकर अफ़वाह पर भरोसा बढ़ता जाता है. पहले तकनीक का विकास बहुत ज़्यादा न होने के चलते अफ़वाहें ज़्यादा ख़तरनाक रूप नहीं लेती थीं. लेकिन आज घटना को वारदात बनाने में तकनीक आग में घी की तरह काम किया है. मध्यप्रदेश के कालीचरण ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड की. वे कहते हैं कि बात कुछ होती है और जब तक वो हम तक पहुंचती है तब तक उसका स्वरुप कुछ और ही होता है. लोगों को धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा और अधूरे तकनीकी ज्ञान के प्रति जागरुक होने की आवश्यकता है.
बिहार से सुनील कुमार कहते हैं कि बिहार में तो शिक्षा का स्तर इतना गिर गया है कि बच्चों को आपसी सौहार्द का उदाहरण सिखाने वाले तक कोई नहीं है. बच्चों को देश की आजादी की कहानियां सुनाने वाला कोई नहीं है. अब वे केवल मॉब लिचिंग की घटनाएं देखते और सुनते हैं. अब खुद ही सोचिए कि हम आने वाली पीढ़ियों को किस माहौल में बड़ा कर रहे हैं?
तो फिर कैसे रूकेगा ये सिलसिला?
संजय सुब्रह्मणयम मानते हैं, “इस तरह की हिंसा देश के कई हिस्सों में हो रही है क्योंकि राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद जैसे हिंदू कट्टरवादी संगठन समाज में इस तरह की रूढ़िवादी धारणाओं को बचाने में सक्रिय तौर पर लगे हुए हैं. इसी तरह के कई संगठन मुस्लिम समाज में भी है और इसी तरह से काम करते हैं.” उनका मानना है कि हिंसा ख़त्म करना बहुत मुश्किल है क्योंकि, “यह छिटपुट और अव्यवस्थित तरीके से होती है. यह सिर्फ कानून और उसकी प्रक्रिया में समाज का विश्वास कायम करके ही किया जा सकता है.”
कुशल युवा प्रोग्राम की ट्रेनर सोनम कुमारी ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड करते हुए कहा कि लोग किसी को बचाने के लिए भी आगे नहीं आते हैं, ये सोचते हैं कि कोर्ट उन्हें ही परेशान करेगी. या फिर जो किसी और के साथ हुआ है वो हमारे साथ भी हो सकता है! हर चीज सरकार नहीं कर सकती, क्योंकि ये काम सरकार नहीं बल्कि हम लोग कर रहे हैं इसलिए ये हमारी जिम्मेदारी है कि अपने समाज को हिंसा के चंगुल में फंसने से रोकें.
खैर जो भी हो इतना तो सच है कि भीड़ में बहुत ताकत होती है. 1789 की फ्रांस की क्रांति और 1917 के रूसी विद्रोह की शुरुआत भी भीड़ ने ही की थी. भारत की आजादी के लिए हुए आंदोलन तो हमारा गौरवपूर्ण इतिहास दर्शाते हैं. कभी इस भीड़ का नेतृत्व महात्मा गांधी ने किया तो कभी हिटलर ने. दोनों के ही नतीजों ने दुनिया का नक्शा बदल दिया और तात्कालिक समाज को सोचने पर मजबूर किया कि शांति और युद्ध में किसे चुनना चाहिए. लेकिन सवाल ये है कि इस बार भीड़ का नेतृत्व कौन करेगा?
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