विकास की झूटी दीवारें ढहने लगी है

लेखक – रफ़ी अहमद सिद्दीकी ,सुल्तान अहमद
लॉक डाउन का खेल ख़त्म हो चुका है और इंसान,इंसानों के हक़ के लिए चिल्लाने वाले नेताओं में निरंतर कमी आती जारही है। डूबती अर्थव्यवस्था को बचाने और मजदूरों को खपाने के लिए वैक्सीन तैयार हो चुकी है। हालांकि चुनावी वैक्सीन चुनावी रैलियों के बाद भी लोगों को कोरोना संक्रमण से बचाने में काफ़ी उपयोगी साबित हुई है। आंदोलनों,धरनों और रैलियों का सिलसिला पिछले साल की तरह नये मुददों के साथ फिर से शुरू हो गया है। लाखों की संख्या में किसानों के रूप में बैठी मानवता कॉम्पनियों के मज़दूर बनने को तैयार नहीं हैं| कॉम्पनियाँ और उनकी सरकारें किसानों को मज़दूर बनाने के लिए सभी हथकंडे अपनाए हुए हैं|
कोरोना से संक्रमित व्यक्तियों से कहीं ज़्यादा बेरोज़गारों का संक्रमण बढ़ता जा रहा है जो कॉम्पनियों और उनकी सरकारों के लिए बड़ी मुसीबत है और उधर कंपनियों में छटनियों का दौर चालू है बेरोजगारी आन्दोलनों और धरनों का रूप धारण करती जा रही है। दूसरी तरफ लेबर चौक चौराहों पर झुंड बनाकर खडे होते मज़दूर बड़ी संख्या में आजकल इस आंदोलनों का हिस्सा बनते जनज़र आरहे हैं , जजिस नवउदारवाद के चलते किसानों को मजदूर बनाया गया , खेती को घटे का सौदा साबित किया गया , फसल उत्पाद का दाम न मिलने के कारण युवाओं को खेती घटे का धंधा लगने लगा , किसान अपने बेटे को किसान न बनाकर तकनीक के सहारे रोज़गार दिलाने का भरोषा कायम किया गया , आई टी आई और अनेकों प्रशिक्षण कार्यक्रम जैसे स्किल इंडिया कार्यक्रम की केंद्र और राज्य सरकार के जरिये शुरू तो किया गया , जिसने न्यूनतम मजदूरी की बात तो की गयी लेकिन यह मजदूरों को मिलना सुनिश्चित नहीं किया गया, कोरोना में अनेकों वादे किए गए , आह्वान होते रहे और मजदूर सड़कों पर पैदल चलते रहे और अब यही मजदूर किसान अपनी मेहनताना मांगने के लिए जो पहले आन्दोलन का रूप लिया अब क्रांति में दब्दिल होता नज़र आरहा है .
जहाँ दुनिया भर की कॉम्पनियों की सरकारें यह मान चुकी हैं कि मजदूरी कराना अब आसान नहीं रहा है दुनिया भर में गिरती अर्थव्यवस्था और बदलते श्रम कानून इस बेचैनी का जीता जागता सबूत हैं| जहां परत दर परत मज़दूरों की निगरानी में खपती पूँजी सरमायेदारों की नींद हराम किये हुए है जिसको मज़दूरों की रोती गाती तस्वीरों के ज़रिये छुपाने की कोशिश की जा रही है सख़्त से सख़्त क़ानून बनाकर भी पूंजीवादी व्यवस्थाओं का सिंघासन डामाडोल है|
लोगों का व्ययस्थाओं पर बढ़ता गुस्सा और किसानों ,मजदूरों की मेहनत की लूट, कॉम्पनियों और उनकी सरकारों पर भारी पड़ रही है| हाल ही बैंगलुरु के पास स्थित कोलार जिले के नरसापुरा औधोगिक इलाके में आईफोन कॉम्पनी में काम कर रहें हजारों मजदूरों का गुस्सा फूट पड़ा| मज़दूर साथियों का दावा हैं कि चार महीने से कॉम्पनी मज़दूरों के वेतन में कटौती कर रही थी और शिकायत पर मैनेजमेंत चुप्पी साधे रहा जिसका नतीजा यह हुआ कि हिंसक प्रदर्शन में कॉम्पनी का दावा है कि 437 करोड़ का नुकसान हो गया है कुछ मज़दूर साथी इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कहते हैं कि कॉम्पनियाँ इंसानों को मशीन समझती हैं इनके मालिकों को पैसे के फ़ायदे और नुकसान की ही भाषा समझ आती है| कॉम्पनी का नुकसान होने पर फौरन हिसाब सामने आ गया, लेकिन किस आधार पर यह रकम सामने आया इसका आधार बताना भूल गए , हायद जल्दी इसलिए भी की गयी इन्सुरेंसे कंपनी और सरकारी मुआवज़े समय पर मिल जाए , लेकिन मजदूरों और गन्ना किसानों की बकाया रकम और उसके ब्याज की भरपाई न तो सरकार को याद रहती है और नहीं इन्सुरेंसे कंपनी और न ही कंपनी मालिकों को . मजदूरों के पैसे का हिसाब सकड़ों साल तक सामने नहीं आता है| न जाने कितनी हीं कॉम्पनियाँ और ठेकेदार हम मजदूरों का कितना पैसा मारकर बैठें हैं उसका आज तक कोई हिसाब नहीं हैं|
इन दिनों लॉक डाउन के खुलने के बाद कंपनियों, फ़ैक्टरियों और उद्योगों में काम करने की स्थिति में हम मज़दूरों ने काफ़ी बदलाव देंखे हैं। यह बदलाव काम के घण्टे बढ़ाने से लेकर वेतन काटने तक सीमित नहीं रह गए हैं। बल्कि काम न मिलना भी एक बड़ी बड़ी चुनौती बना हुआ है। कॉम्पनियों की सरकारें मज़दूर बनाने में पूरी तरह फेल हो चुकी हैं मज़दूर लगाकर मुद्रा मंडी क़ायम रखना कंपनियों की सरकारों के बस में नहीं रहा।
कृषि व्यवस्था को बर्बाद कर मजदूरों की शहरों में बाँड़ तो लादी लेकिन अब यही बाँड सरकार के लिए सरदर्द बनती साबित हो रही है| इधर शहरों में बढ़ती हम मज़दूरों की आबादी फ़ैक्टरियों के लिए मुसीबत बनती जा रही है काम से निकाले जाने पर आज कल फ़ैक्टरियों में ही बैठ जाना आम बात हो गई है। सैकड़ों सालों से मजदूरों के मेहनत का नतीजा आज सबके सामने है कभी मज़दूर कंपनियों में बैठ जाते हैं और अभी किसान सड़कों पर। नौकरी जाने पर गांव जा कर बैठ जाना, जहाँ पाना वहाँ बैठ जाने का चलन बढ़ता जा रहा है। मज़दूर साथी कहते हैं हमारे बैठ जाने से कंपनियां बेचैन हो जाती हैं और जैसे रोड़ पर किसानों के बैठने से कंपनियों की सरकारें बेचैन हो रहीं हैं।
पूंजीपतियों की ओर से गढ़ा गया “कर्म करो फल की चिन्ता न करो”वाला गणित भी फेल हो गया है, मज़दूर साथी कहते हैं कि हमारे कर्मों का फल तो कॉम्पनियों के मालिक खाते जा रहें हैं जिससे इनकी संख्या बढ़ती जा रही है। कई पीढ़ियों से हम मजदूरों को कर्मों का मिला नहीं है। हमारे कर्मों से इनकी पीढ़ियाँ मज़ा कर रहीं हैं| दिल्ली के गाजीपुर के बोर्डर पर प्रदर्शन कर रहे किसानों का कहना था कि हमारे बकाया राशि के ब्याज के पैसे से एक कॉम्पनी से कई कॉम्पनियाँ बन गईं लेकिन किसान आत्महत्या कर रहा है, अगर चीनी मील को नुसान हो रहा है तो चीनी मील के मालिक क्यों नहीं आत्महत्या कर रहें हैं?
उधर तमिलनाडु तिरुपुर के सिड़को में काम करने वाले मज़दूर साथी कहते हैं हम लोग तो चार,पाँच महीने बिना काम किए गाँव में रह सकते हैं गाँव में खाने पीने की इतनी समस्या नहीं आतीं और न ही किराया देना पड़ता है लेकिन कॉम्पनियों के मालिक हम मजदूरों के बिना नहीं रह सकते| और कहते है कि हम मज़दूर अगर चार,पाँच महीने गाँव में रह लें तो इनकी कॉम्पनियाँ बंद हो जाएंगी इसीलिए हमारे खेतों को हड़पने की योजनाएं तैयार की जारही है ताकि हम लोगों को मज़बूरी में मज़दूरी करनी पड़े। लेकिन अब मज़दूरों को काम में लगाना और अपना पीछा छुड़ाना कॉम्पनियों की सरकारों के बस में नहीं रहा है|
नौकर न बना पाने वाली कंपनियों की सरकारें दुनियाभर में आंदोलनों और धरनों की भेंट चढ़ रही हैं। नौकरी लगाओ, नहीं आंदोलन कराओ वाला विकास का चलन माचिस के डिब्बे नुमा विकास की दीवारें ढहने लगी है , सरकारें और कमानियां भी अपने अजेंडे में सफल होती नज़र नहीं आरही हैं , जनता समझने लगी है और आरपार की लडाई शुरू होगई है .
किसान आन्दोलन में मौके को भांप किसान अपने साथ 6 महीने का राशन और धरने पर बैठने के लिए आवश्यक वस्तू लेकर आए हैं और बात बात पैर कह बैठते हैं की इस बार सरकार अगर नहीं सुनी तो ईंट से ईंट बजा देंगे , देखते जाइए आगे क्या होता है .