लखनऊ की मुमताज खान महिला हॉकी के नए सितारे के रूप में उभर रही है

लखनऊ की मुमताज खान महिला हॉकी के नए सितारे के रूप में उभर कर सामने आ रही है। उसके माता-पिता गरीब हैं, पर समय से इस लड़की की प्रतिभा को पहचान लिया गया। गरीबी के कारण धूल-मिट्टी फाँकते तमाम बच्चों की प्रतिभा सामने नहीं आ पाती है। अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ की शुरुआत कुछ इस तरीके से की है-

हाल में युनिवर्सिटी ऑफ पेंसिलवेनिया में किए गए एक प्रयोग से पता लगता है कि इस समस्या की शिद्दत से हम किस कदर विचलित हो जाते हैं।3 शोधकर्ताओं ने छात्रों को एक सर्वे में भाग लेने के लिए 5 डॉलर दिए। इसके बाद उन्होंने उन्हें एक फ्लायर(बैनर) दिखाया और सेव द चिल्ड्रन नाम की विश्व प्रसिद्ध चैरिटी के लिए दान देने का आग्रह किया। उन्हें दो अलग-अलग फ्लायर दिखाए गए। फ्लायरों का चयन सांयोगिक यानी रैंडम था। कुछ छात्रों को यह फ्लायर दिखाया गयाः-

मलावी में खाद्य संकट के कारण तीस लाख से ज्यादा बच्चे प्रभावित हुए हैं। ज़ाम्बिया में सूखे की वजह से सन 2000 के मुकाबले मक्का की उपज में 42 फीसदी की गिरावट आई है। वहाँ तीस लाख लोगों के सामने भूख का खतरा है। अंगोला के चालीस लाख (कुल आबादी के तकरीबन एक तिहाई) लोग घर छोड़ने को मजबूर हो गए हैं। इथोपिया के तकरीबन 1.1 करोड़ लोगों को तत्काल खाद्य सहायता की ज़रूरत है।

दूसरे फ्लायर में एक बच्ची की तस्वीर थी और उसके नीचे लिखा थाः-

सात साल की रोकिया अफ्रीका के माली देश की रहने वाली है। यह बेइंतहा गरीब है और इसके सामने भुखमरी का जबर्दस्त खतरा है। आपकी आर्थिक मदद से इसके जीवन में कुछ बेहतरी आ सकती है। आपकी और अन्य प्रायोजकों की मदद से सेव द चिल्ड्रन रोकिया के परिवार और समुदाय को अन्य लोगों के साथ मिलकर काम करेगा। ताकि रोकिया को भोजन और शिक्षा के अलावा बुनियादी मेडिकल सहायता और साफ-सफाई आदि की शिक्षा मिल सके।

पहले फ्लायर की मदद से औसतन हर छात्र से 1.16 डॉलर की मदद मिली। और दूसरे फ्लायर के रास्ते, जिसमें लाखों के बजाय एक बच्चे की व्यथा दर्ज थी, औसतन 2.83 डॉलर मिले। ऐसा लगता है कि छात्र रोकिया की कुछ जिम्मेदारी लेने को राज़ी थे, पर जब उनके सामने वैश्विक स्तर की समस्या रखी गई तो वे विचलित हो गए।

कुछ अन्य छात्रों को भी ये फ्लायर दिखाए गए। पर उसके पहले उन्हें यह भी बताया गया कि लोग प्रायः ऐसे पीड़ित व्यक्ति की मदद को ज्यादा उत्सुक होते हैं, जिसे पहचाना जा सकता है। मुकाबले उसके, जिसके बारे में जानकारी सामान्य होती है। जिन्हें पहले माली, ज़ाम्बिया और अंगोला वाला फ्लायर दिखाया गया तो उन्होंने 1.26 डॉलर, यानी तकरीबन उतनी ही राशि दी जितनी बिना चेतावनी के मिली थी। अब जिन्हें, चेतावनी के बाद रोकिया वाला फ्लायर दिखाया गया था, उन्होंने 1.36 डॉलर दिए। यानी बगैर चेतावनी के दान करने वाले अपने साथियों के मुकाबले आधी से भी कम राशि उन्होंने दी। जब छात्रों को और विचार करने के लिए प्रेरित किया गया तो उनके मन में रोकिया के प्रति उदारता में कमी तो आई, पर माली के बड़े समूह के बरक्स उनकी दरियादिली में कोई इज़ाफा नहीं हुआ।

छात्रों की यह प्रतिक्रिया तकरीबन वैसी है जैसा ज्यादातर हम लोगों का रुख, गरीबी जैसी समस्याओं का सामना होने पर होता है। पहली नज़र में हम दरियादिल होते हैं। खासतौर से तब, जब सात साल की लड़की की मुश्किलें दिखाई जाएं। पर पेंसिलवेनिया के छात्रों की तरह, हम दुबारा सोचते हैं तो लगता है कि यह वाहियात है। हमारा योगदान पानी की बाल्टी में एक बूंद जैसा होगा। शायद बाल्टी में छेद भी हैं। यह किताब आह्वान करती है कि फिर से सोचें। फिर से-ताकि आप उस मनोदशा से बाहर आएं कि गरीबी से लड़ाई बहुत भारी है। और सोचना शुरू करें कि यह कुछ ठोस या मूर्त समस्याओं की चुनौती है। जिन्हें ढंग से पहचाना और समझा जाय, तो एकबारगी उनका समाधान हो सकता है।

…सहायता की इस बहस में किसी को इस बुनियादी बात पर असहमति नहीं है कि हमसे जब बन पड़े गरीबों की मदद करनी चाहिए। दार्शनिक पीटर सिंगर ने उन लोगों की जीवन रक्षा करने के नैतिक दायित्व के बारे में लिखा है, जिन्हें हम नहीं जानते। उन्होंने लिखा है कि हममें से ज्यादातर लोग किसी तालाब में डूबते बच्चे की जान बचाने के वास्ते 1000 डॉलर के सूट की फिक्र नहीं करेंगे। उनका कहना है कि डूबते बच्चे और उन नब्बे लाख बच्चों में कोई फर्क नहीं जो हर साल अपने पाँचवें जन्मदिन के पहले मर जाते हैं। तमाम लोग नोबेल विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन की बात से सहमत होंगे कि गरीबी के कारण मानवीय मेधा (टेलेंट) की अक्षम्य क्षति होती है। वे कहते हैं कि गरीबी माने सिर्फ धन की कमी होना नहीं है। इसका मतलब है एक इंसान की पूर्ण क्षमताओं का लाभ उठाने में असमर्थ होना।अफ्रीका की एक गरीब लड़की, चाहे वह कितनी भी होशियार क्यों न हो, कुछेक साल ही स्कूल जा पाएगी। और भले ही उसमें विश्व स्तरीय एथलीट बनने की कुव्वत हो उसे पौष्टिक आहार कभी नहीं मिलेगा। भले ही उसके पास बेहतरीन बिजनेस आइडिया हो, उसे उसे शुरू करने के वास्ते पैसा नहीं मिलेगा।

यानी हिंदुस्तान और अंतराष्ट्रिय स्तर पर चंदा , ग्रांट देने वाली संस्थाएं भी इन्हीं बुनियादी चीज़ों को बदलाव का मानक मान कर फंडिंग करती है जिसका नतीजा प्रोजेक्ट के आउटकम के तौर पर पर तो निश्चित ही पूरा कर लिया जाता है लेकिन हर एक बच्चे में छुपी प्रतिभा को शायद नज़र अंदाज कर दिया जाता या अगर किसी तरह सामने आभी जाए तो मौजूदा संस्थाएं फण्ड करने के लिए तैयार नहीं होती.

शशि शेखर की वाल से साभार