महामारी के दिनों में

अनुराग अनंत

मैं कहाँ हूँ इन दिनों
पूछोगे, तो बता नहीं पाऊंगा

आंखों के नीचे जमता जा रहा है
जागी हुई रातों का मलबा
सिर में सुलगते रहते हैं ख़्याल
छत से देखता रहता हूँ गंगा के किनारे जलती हुई चिताएं

एक मौन है जहां हूँ मैं या नहीं
ठीक ठीक कह नहीं सकता
एक चीख़ है, जिसके दोनों सिरों पर मेरे दोनों पाँव की चप्पलें पड़ी हुई हैं

मैं जहां कहीं भी हूँ
नंगे पांव हूँ
छिले हुए घायल पांवों से ही पार करना है मुझे यह समय
यह मौन और यह चीख़