फिल्म समीक्षा: महिलों की जिंदगी पर एक गहरी लकीर खीचती फिल्म Mrs.

-रोली शिवहरे
पिछले कई दिनों से #Mrs. फिल्म की रील्स देख रही थी। मन में एक अजीब दुविधा थी—देखूं या न देखूं? कहीं देखने के बाद उदास न हो जाऊं? लेकिन खुद को रोक नहीं पाई और आखिरकार फिल्म देख ही ली। यकीन मानिए, निर्देशक ने इस फिल्म को बहुत धैर्य और बारीकी से गढ़ा है।
फिल्म की शुरुआत ही एक गहरे संदेश के साथ होती है—एक ओर लड़कियों के सपने, और दूसरी ओर रसोई में कैद उनकी वास्तविकता। टूटे पाइप से टपकता पानी, चाय या शिकंजी में घुलते अरमान, ये सभी प्रतीकात्मक रूप से समाज की सच्चाई बयां करते हैं। खासकर, “सेल्फ-लव” और “प्राइम नंबर” की तुलना तो अद्भुत है। फिल्म के संवाद भी बहुत ही सटीक और सोच-समझकर लिखे गए हैं।
लेकिन यह फिल्म सिर्फ महिलाओं के लिए नहीं, बल्कि पुरुषों के लिए देखना और समझना अधिक जरूरी है। समाज में गहराई तक जड़ें जमा चुकी पितृसत्ता को समझने और उसे बदलने के लिए यह फिल्म एक महत्वपूर्ण जरिया बन सकती है। यह हर घर की कहानी है—जहां सास, ससुर, पति, ननद, माता-पिता के रूप में समाज की जड़बद्ध सोच देखने को मिलती है।
उदाहरण के लिए आज भी भारत में त्योहारों के दौरान महिलाएं ज्यादातर समय रसोई में ही बिता देती हैं, और इसे एक सामान्य व्यवस्था मान लिया जाता है। स्त्रियों के उपवासों का महिमामंडन तो होता है, लेकिन उनके पीछे की थकान और त्याग पर कोई सवाल नहीं उठाता। घर के लोग भी इसे सामान्य सामाजिक या धार्मिक कर्म कांड के नाम पर अनदेखा कर देते हैं।
फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे एक महिला को सुबह चार बजे जबरदस्ती रसोई में धकेल दिया जाता है। कुछ परीवारों में उसे छुट्टी केवल तब मिलती है जब वह पीरियड्स में होती है, लेकिन वह भी इसलिए नहीं कि उसे आराम की जरूरत है, बल्कि इसलिए कि उस पर ‘छुआछूत’ का ठप्पा लगा दिया जाता है। फिल्म में दिखाए गए कई दृश्य हमारे समाज की जमी-जमाई सोच को उजागर करते हैं—चाहे वह सिल-बट्टे पर बनी चटनी हो या रात में जूठे बर्तन छोड़ने पर होने वाली बहस।
अभी भी कई घरों में पुरुषों को पहले भोजन करते देखा जा सकता है, जबकि महिलाएं उनकी सेवा में लगी रहती हैं। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक आईना है, जिसमें हमें अपने परिवारों की तस्वीर देखनी चाहिए। अगर हमारे घरों में भी इस तरह की सोच और परंपराएं कायम हैं, तो क्या हमें उन्हें बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए?
यह फिल्म न सिर्फ देखने लायक है, बल्कि उस पर गंभीरता , परीवर और समाज में गहन मंथन जरूरी बदलाव लाने के लिए प्रेरित भी करती है। देखना बाकी होगा क्या इस फिल्म को देखने बाद कुछ सामाजिक बदलाव भी होते हैं , हिन्दी फिल्मों और साहित्यों ने तो अब तक न जाने ऐसे कितने कुरीतियों पर प्रकाश डाला और बहूत ही गंभीरता से समाज में चल रही जटिल परंपराओं पर विचार मंथन के लिए उकसाया लेकिन उसके बाद महिलों के खिलाफ हो रही हिंसा में कुछ खास बदलाव नहीं आया। ऐसा लगता है की समाज में इन सब फिल्मों , साहित्यों की पहुँच एक खास वर्ग तक सिमट कर रह जाता है नतीजा वही धाक के तीन पात निकलता है ।