नहीं रहे लोकप्रिय इतिहासकार लालबहादुर वर्मा

प्रेमकुमार मणि

लोकप्रिय इतिहासकार लालबहादुर वर्मा अब इस दुनिया में नहीं हैं। रोज सुबह मिल रही मनहूस खबरों के साथ आज यह भी खबर मिली। इसी महीने वह कोरोना की चपेट में आए थे ,लेकिन कुछ रोज पहले उनकी बेटी द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी मिली कि वह बेहतर हो रहे हैं। थोड़ी तसल्ली मिली थी। उनके पूर्णरूपेण स्वस्थ होने की आश लगाए बैठा था कि आज यह मनहूस और उदास खबर मिली कि वह नहीं रहे। देहरादून स्थित अपने मित्र डॉ जितेंद्र भारती से फ़ोन कर परिस्थितियों को जानने की कोशिश की। हृदयाघात उनकी मृत्यु का कारण बना।

मेरी जानकारी के अनुसार लालबहादुर वर्मा का संबंध बिहार से था। छपरा जिले में उनका जन्म हुआ। उनकी कर्मभूमि उत्तरप्रदेश ही रहा। कुछ वर्षों से वह देहरादून में निवास कर रहे थे। वह उन लोगों में थे ,जिन्होंने ज्ञान को सामाजिक मुक्ति का औजार बनाने की पुरजोर कोशिश की। उन्होंने इतिहास जैसे अकादमिक विषय को जनप्रिय बनाने की भी कोशिश की।

अधिकतर उन्होंने हिंदी में लेखन किया। उनकी किताब ‘इतिहास के बारे में ‘ ,’ यूरोप का इतिहास ‘ और ‘आधुनिक विश्व इतिहास ‘ छात्रों के बीच बहुत चर्चित है। उन्होंने ‘इतिहास बोध ‘ और ‘ भंगिमा ‘ जैसी पत्रिकाएं निकाली। इतिहासकार रामशरण शर्मा जैसे छोटी से छोटी गोष्ठी में भी जाने केलिए उत्सुक रहते थे ,वैसा ही वर्मा जी भी करते थे। स्पष्टतः वह मार्क्सवादी थे और इस पर उन्हें थोड़ा गुमान भी था। कुछ वर्षों तक वह पेरिस में रहे और इस समय का उन्होंने अपने रिसर्च के अलावे भी रचनात्मक इस्तेमाल किया।

प्रो. वर्मा एक विचारक,लेखक,इतिहासकार,प्रोफेसर,आंदोलनों की प्रेरणा और मुँह में ज़ुबान होने का एहसास करवाने वाले, इतिहास लोगों तक पहुंचने वाले और सबको हिम्मत दिलाने वाले कार्यकर्ता भी थे। इतिहास विषय के बच्चों ने उनकी उंगलियों से निकले पन्नो पर चलकर इतिहास को समझा और उसे लोगों तक पहुंचाया।

कुछ साल पूर्व हमलोग दो रोज साथ रहे। एक ही कमरे में टिके थे। समकालीन राजनीति के पेचोखम पर हम देर तक बातें करते रहे। वह इस उम्र में भी उत्साह से भरे थे। उनके पास एक जज्बा था। अपने समाज को खूबसूरत बनाने का एक ख्वाब भी। आज उन घड़ियों को याद कर भावनाओं से घिर रहा हूँ।

उनकी स्मृति को प्रणाम

(लेखक बिहार विधान परिषद् के पूर्व सदस्य रहे हैं )