दुनिया को आज फिर है जरूरत हुसैन की…

अब्दुल वाहिद आज़ाद

यौम-ए-आशूरा के मौके से ये सवाल ज़ेहन में आना ज़रूरी है कि आखिर 14 सौ साल बाद हम इस दिन को इतनी शिद्दत से याद क्यों करते हैं? वैसे तो इस दिन को लोग मातम का दिन कहते हैं, लेकिन असल में ये दिन मातम से ज्यादा मलामत का दिन है. यज़ीद की मलामत का दिन है. ये दिन हमें बताता है कि अपने वक्त में अपनी ताकत के बल पर हुकूमत चाहे जितना भी ज़ुल्म कर ले… उस समाज में, उस दौर में कुछ हक पसंद लोग होंगे, जो उस पहाड़ सी ताकत से बे-सरोसामानी में भी टकरा जाएंगे… और कुछ लोग ऐसे भी होंगे, जो इस दर्द को अपने सीने में महफूज़ रखेंगे. बल्कि यूं कहें, उनकी पीढ़ियों में … कि दिल के दाग़ को किस तरह से रखते हैं रौशन, ये हुनर भी रखने वाले होंगे.बनू उमय्या के दूसरे शासक यज़ीद के माथे पर नवास-ए-रसूल हज़रत इमाम हुसैन के कत्ल का दाग़ है. इस शहादत को गुजरे 1380 साल हो गए, लेकिन हर दौर में, हर ज़माने में…. लोग यज़ीद को मलामत करते आ रहे हैं और ये सिलसिला आज भी जारी है.

इमाम हुसैन को शहादत क्यों देनी पड़ी?मामला कुछ यूं है कि पैगंबर मोहम्मद(ﷺ) के इंतकाल के तीस साल बाद अमीर माविया शासक (असल खीलाफत का दौर जाता रहा) बने. अपने दौर में उन्होंने खूब जंगें लड़ी, खूब फतूहात हासिल कीं. मौटे तौर पर उनकी रियासत में अमन चैन भी था…लेकिन वो उसूल नहीं थे, जो इस्लामी हुकूमत का तुर्र-ए-इम्तियाज़ होता है. अपने मुखालिफीन को जमकर कुचला, जब चाहा जिसे चाहा मावरा-ए-अदालत (extra judicial) कत्ल को अंजाम दिया. 15 साल तक जुल्म-व-सितम की हुकूमत चला चुका तो अपनी मौत से पांच साल पहले अपने बेटे को हुकूमत देने का एलान किया. तब तीन महादेशों तक हुकूमत फैल चुकी थी, लेकिन सिर्फ 5 लोगों ने मौजूदा हुकूमत के फैसले का विरोध किया.सन 680 में जब माविया का इंतेकाल हुआ तो बेटे यज़ीद को ताज पहनाई गई. एलान से ताजपोशी के दौरान पांच साल में मुखालिफीन पांच में से एक शख्स का इंतेकाल हो चुका था. चार बचे. चार में से अब दो की ये राय हुई कि जब यज़ीद ने हुकूमत ले ली है तो बगावत न की जाए. बाकी बचे दो… इन दोनों की दो राय थी. एक की राय थी कि हिजाज़ (मक्के-मदीने) में रहकर विरोध किया जाए. जबकि इमाम हुसैन ने कूफा (इराक) जाने का फैसला किया. कूफा गए और करबला में शहादत का जाम पीया.

इस पूरे घटनाक्रम से साफ है कि हक़ की आवाज़ बुलंद करने वाले हमेशा कम लोग होते हैं. मायूस न होंकरबला की घटना के 40 साल बाद… उसी उम्मया शासक में एक खलीफा हुए- उमर बिन अब्दुल अजीज. सिर्फ दो साल तक खलीफा रहे. लेकिन इस इंसाफपसंदी से हुकूमत की कि शिया और सुन्नी दोनों उन्हें पहला मुजद्दि-ए-इस्लाम करार देते हैं. हमें क्या करना चाहिए?अगर इमाम हुसैन के सच्चे पैरोकार हैं तो हालात कैसे भी हों, सच के साथ रहिए… ग़लत के खिलाफ अलम उठाएं. दूसरे हालात से मायूस नहीं होना चाहिए… आखिर आज़र के यहां भी इब्राहीम पैदा होते हैं.सबक क्या है?हाकिम वक्त का हुकमरा होता है, जो चाहे सो कर ले…. लेकिन इतिहास कभी माफ नहीं करता. मरने के बाद भी मलामत जारी रहती है. यज़ीद सबसे बड़ी मिसाल है. लानत है यज़ीद पर.

अब्दुल वाहिद आजाद की फेसबुक वाल से साभार