जाते हुए सिद्धार्थ का दृश्य

अनुराग अनंत

यूँ तो बहुत से दृश्य हैं
जिन्हें अंधेरे में दीपक बना लिया करता हूँ

तुम ढलान चढ़ रही हो और मैं सड़क किनारे खड़ा हूँ
तेज़ धूप है और मैं भीग रहा हूँ
इस एक दृश्य ने हाथ पकड़कर न जाने कितनी बार सड़क पर कराया है
जबकि दुर्घटना तय थी हर बार
मैं हर बार बच निकला बस इसी एक दृश्य के बदौलत

तुम अपने छत पर खड़े होकर रच देती थी इंद्रधनुष
और मैं आसमान की तरफ देखते हुए कृतज्ञता से भर जाता था कि
तुम नहीं होती तो प्रेम में अनपढ़ ही जाता मैं

तुमने अपनी उंगली पर उठाए रखी थी मेरी दुनिया
और मैं तुम्हारे नाम में खोजता रहता था अमृत
अमरता तुम्हारे पैताने बैठती थी उन दिनों

न जाने कितने ही दृश्य हैं जिन्होंने मुझे नास्तिक होने से बचाए रखा
नहीं तो मूर्तियां तोड़ते हुए एक दिन टूट जाता
बिना कोई आवाज़ किए

मेरे पास एक दृश्य वह भी है जिसमें मुझे लगा था तीर
और तुम मुझे सीने से लगाए कर रहे थे प्रेम पर बहस
एक दृश्य वह भी

जिसमें तुम जा रहे मुझे छोड़ कर
और मैं व्याकुल होकर सिद्धार्थ सिद्धार्थ कह रहा हूँ
इस बात से अनजान कि सिद्धार्थ कभी किसी का साथ नहीं देते
सब के हिस्से में आते हैं उनके अपने अपने बुद्ध
जैसे हर किसी के जीवन में होती है कोई न कोई
दृश्यात्मक त्रासदी

जाते हुए सिद्धार्थ का दृश्य
आते हुए बुद्ध के दृश्य पर भारी पड़ता है
हर बार, बार-बार