चिंतक -विचारक रवीन्द्रनाथ टैगोर

प्रेमकुमार मणि
” आज सभी अपराधों में ,राष्ट्रवाद शायद सबसे अधिक घिनौना तथा घातक है . -टैगोर “
रवीन्द्रनाथ टैगोर कवि-लेखक के साथ कई दूसरी खूबियों के स्वामी थे। वह चित्रकार -पेंटर थे ,नाट्य -निदेशक थे और शिक्षाशास्त्री भी थे। इन सबके साथ वह एक मौलिक चिंतक -विचारक थे। उनके विचार केवल उनकी साहित्यिक कृतियों में ही नहीं ,बल्कि अलग से भाषणों और लेखों में भी प्रकट हुए हैं। उनके विचार कई दफा प्रचलित मान्यताओं के विरुद्ध भी होते थे। पूरी दुनिया में जब राष्ट्रवाद और देशभक्ति विविध रूपों में अंगड़ाइयां ले रही थीं ,तब उन्होंने इसके खतरों से आगाह किया। कवि लोग प्रायः भीरु स्वभाव के होते हैं और सीधे तौर पर कुछ कहने के बजाय घुमा -फिरा कर अपनी बातें कहने के अभ्यस्त होते हैं। लेकिन टैगोर तो बाज दफा अक्खड़ की तरह अपनी बात रख देते हैं। सर्वविदित है कि 1913 में उन्हें जब साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला ,तब अचानक से उनकी ख्याति दुनिया भर में फ़ैल गई। वह आधुनिक ज़माने के संभवतः प्रथम भारतीय थे, जिन्हे वैश्विक ख्याति मिली थी। गाँधी को यह ख्याति बहुत बाद में मिली। इतनी बड़ी ख्याति को संभालना सहज नहीं होता।
लेकिन टैगोर ने इसका रचनात्मक उपयोग किया। वह समझ रहे थे कि उनकी बातें लोग अब ध्यान से सुनेंगे। इसका उन्होंने खूब उपयोग किया। उन्होंने कई बार दुनिया के कई हिस्सों की यात्रा की। प्रथम विश्वयुद्ध ने पूरी दुनिया को हिंसा के लावे में झोंक दिया था। वह इस मामले में प्रथम चिंतक थे ,जिन्होंने इस महायुद्ध के केन्द्रक अथवा मूल कारण को समझा था। वह केन्द्रक था राष्ट्रवाद। यह वह समय था ,जब उनके अपने भारत में भी राष्ट्रवाद नई अंगड़ाइयां ले रहा था। उनके बंगाल में राष्ट्रवादी अनुशीलन समिति बीसवीं सदी के आरम्भ में ही गठित हो चुकी थी और उससे जुड़े लोग अपने राष्ट्र के लिए जान की बाज़ी लगाने हेतु उद्धत थे। टैगोर इन सब से बहुत प्रभावित नहीं होते। बंगाल के भद्रलोक में इन सब केलिए उनकी अनेक स्तरों पर आलोचना हो रही थी। इन्ही दिनों 1909 में उनका उपन्यास आता है “गोरा ” इसमें आप टैगोर के विचारों को देख सकते हैं।

गौरमोहन मुखर्जी उद्धत राष्ट्रवादी है ,मानो तिलक की प्रतिमूर्ति। उसकी चेतना में राष्ट्र और ब्राह्मणत्व एकमेव है। उसे अपने वर्णधर्म और राष्ट्र दोनों पर गुमान है। सामाजिक सुधारों का वह पूरी तरह विरोधी नहीं है। लेकिन सुधारवादियों के पश्चिमाभिमुख रुझानों का वह कट्टर विरोधी है। विदेशी नस्ल से ही उसे नफरत है। इस नफरत की गहराई को ही वह देशभक्ति की गहराई समझता है। उसे अपनी माँ से परेशानी है कि वह छूत-अछूत का भेद नहीं मानती। दुसाध जाति की लछमिनिया उसके यहाँ बतौर नौकरानी है और माँ उसे अपना कहती है। गोरा बंगाल के युवकों का स्वाभाविक नायक बना हुआ है, क्योंकि उसकी राष्ट्रनिष्ठा अद्भुत है। वह भारतमय हो चुका है।
उपन्यास के आखिर में उसके बीमार पिता उसे बुलवाते हैं और उससे कहते हैं कि वह उसे मुखाग्नि नहीं देगा। गोरा के प्रश्न क्यों का जवाब उसकी माँ देती है। उसे बताया जाता है कि वह तो आयरिश दम्पति का बेटा है। 1857 के ग़दर के समय उसके मातापिता ने उसे मेरी गोद में डाल दिया कि इसकी रक्षा करना। उसके मातापिता गदर की भेंट चढ़ गए। तो यह है गौरमोहन की हकीकत। एकबारगी से उसका पूरा चरित्र डगमग हो जाता है। लेकिन ब्रह्मसमाज के नेता आशु बाबू ,जिनसे वह घृणा करता था , के पास जब वह जाता है तब उसे आश्वस्ति मिलती है। वह उसे देशभक्ति का एक नया पाठ देते हैं। दरअसल टैगोर देशवासियों को देशभक्ति का एक नया पाठ देते हैं। दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि इस उपन्यास की उतनी चर्चा नहीं हुई ,जितनी उनकी कविताओं की।
1916 में टैगोर जापान जाते हैं। जापान में राष्ट्रवाद की आँधी चल रही थी। इस आँधी में टैगोर जापानवासियों को नसीहत देते हैं कि वे राष्ट्रवाद के खतरों को जानें। किसी मुल्क में जाकर उसकी सरकारी वैचारिकी का विरोध एक कवि करे क्या यह साधारण बात है ? लेकिन टैगोर ने यह किया। वह ऐसे निर्भीक व्यक्ति थे। इसी वर्ष वह वह अमेरिका भी जाते हैं और पश्चिम के राष्ट्रवाद की आलोचना करते हैं। उनकी औद्योगिक सभ्यता मानवीयता की उपेक्षा कर रही है ,इस बात की भी हिदायत देते हैं। वह 1927 में रूस जाते हैं,जहाँ दशक भर पहले बोल्शेविक क्रांति हुई थी। वहाँ से परिवार जनों और मित्रों को वह चिट्ठियाँ लिखते हैं ,जो उनकी एक किताब ‘ रसियार चिट्ठी ‘ (रूस की चिट्ठी ) में संकलित है। इन चिट्ठियों में वह बतलाते हैं कि किस तरह वहाँ सार्वजानिक शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन वह किसी समाजवादी सभ्यता की तलाश की जगह मानवीय सभ्यता की ही तलाश करते हैं। उनकी चिंता केवल यह है कि किसी विचारधारा केलिए मनुष्य की उपेक्षा तो नहीं हो रही है।

मानवीय गरिमा और उसकी आज़ादी रवीन्द्रनाथ की पहली चिंता होती है। उनका एक लेख है ‘भारत में राष्ट्रवाद ‘ . इसके आरम्भ ही वह कहते हैं ” भारत में हमारी असली समस्या राजनीतिक नहीं ,सामाजिक है ” वह लिखते है – ‘ इतिहास के आरंभिक काल से ही भारत अपनी एक समस्या से लगातार जूझता रहा है -और वह समस्या है जातिप्रथा की। टैगोर की मान्यता है कि यह जातिप्रथा हमें केवल यही सीख देती है कि विभिन्नता में एकता के आदर्श को हम कैसे विकसित करें। वह पश्चिम के भारत प्रवेश का बुरा नहीं मानते ,बल्कि उनका मानना है कि इससे दोनों को एक दूसरे से सीखने का अवसर मिला है। उनका मानना है -‘ जो परायों से झगड़ते व उनके प्रति असहनशीलता का भाव बनाए रखते हैं ,वे विलुप्त हो जाएंगे। ‘
सबलोग जानते हैं कि गाँधी और टैगोर में कितनी मित्रता थी और दोनों एक दूसरे की फ़िक्र करते थे ,लेकिन दोनों में वैचारिक भिन्नता थी। इस भिन्नता को लेकर दोनों के बीच कई बार मतभेद सामने आये। वैचारिक तौर पर टैगोर का विरोध गाँधी से जबरदस्त तरीके से हुआ। गाँधी के कार्यक्रमों और विचारों का विरोध बाद में बहुत लोगों ने किया। कांग्रेस में ही तिलकवादियों का एक दल गाँधी का विरोध कर रहा था। इसके बाद कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों ने अपने- अपने स्तर पर उनके कतिपय विचारों का विरोध किया। नेहरू ने अपनी आत्मकथा में गांधीवाद की तीखी आलोचना की है। मुस्लिम लीग , हिंदूमहासभा का विरोध तो था ही ; डॉ आम्बेडकर दलित प्रश्नों के साथ गाँधी का विरोध कर रहे थे। लेकिन यह जानना दिलचस्प होगा कि इस देश में गांधीवाद विरोध का आरम्भ टैगोर ने किया। असहयोग आंदोलन और विदेशी वस्त्रों के जलाने के मुद्दे पर टैगोर बिलकुल सहमत नहीं थे ,बल्कि इनके आलोचक थे। चरखा का तो उन्होंने खासा मज़ाक उड़ाया था और इस पर गाँधी और उनमें थोड़ा वाद -विवाद भी हुआ था। गाँधी की निर्णायक टिप्पणी थी -‘ कवियों को किसी चीज को बढ़ा -चढ़ा कर कहने की आदत होती है और कवि के स्वेच्छाचार में किसी बात को अक्षरशः नहीं मानना चाहिए।’
गाँधी -टैगोर की असली वैचारिक लड़ाई वर्णव्यवस्था के सवाल पर हुई। टैगोर का मई 1927 के मॉडर्न रिव्यू में एक लेख प्रकाशित हुआ ‘ द शूद्र हैबिट ‘। बाद में इसे बांग्ला में ‘शूद्र धर्म ‘ शीर्षक से प्रकाशित किया गया। मूल लेख बंगला में था ,या अंग्रेजी में यह ज्ञात नहीं है। इस लेख में टैगोर ने वर्णधर्म और जातिवाद की तीखी आलोचना की है। यह वह समय था जब तक आम्बेडकर भी खुल कर जातिप्रथा के विरुद्ध नहीं आए थे। टैगोर ने लिखा ‘ ब्राह्मणों द्वारा आँख मूँद कर कर्मकांड की पुनरावृत्ति ने मस्तिष्क को जकड़ रखा है। इससे न तो मानसिक और न ही चारित्रिक गुणों का विकास हो रहा है, जिन आदर्शों का आरम्भ में निर्धारण किया गया था। ‘ टैगोर ने पूछा – ‘ असली क्षत्रिय भारत में कहाँ पाया जाता है ? ‘ मज़ाकिया लहजे में उन्होंने बतलाया भारत में केवल शूद्रधर्म चल रहा है। दुनिया में आपको कहीं ऐसे लोग नहीं मिलेंगे जिनके धर्म ने उन्हें गुलाम बना दिया हो। इसी आदत ने भारतीयों को ब्रिटिश भारत के सबसे अच्छे नौकर के रूप में तब्दील कर दिया है।
इस लेख की आलोचना करते हुए गाँधी ने टैगोर के विचारों की आलोचना की। प्रसंगवश यह भी जानना चाहिए कि हिंदी कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला ने भी एक लेख लिख कर टैगोर की आलोचना की। लेकिन निर्भीक विचारक टैगोर पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ा। वह अपनी मान्यता पर अडिग रहे।
आधुनिककाल में जोतिबाबा फुले ने ब्राह्मणवाद पर जोरदार प्रहार किया था ;किन्तु पूरे वर्णधर्म पर सुसंगत विरोध करने वाले टैगोर संभवतः अपने ज़माने के पहले व्यक्ति थे। किसी खास जाति को खास पेशा से जोड़ देना वर्णधर्म की पहली शर्त होती है। यहाँ पेशा चुनने का अधिकार व्यक्ति को नहीं,, उस व्यवस्था को है, जिसे वर्णधर्म या ब्राह्मणधर्म कहा जाता है। टैगोर ने कहा – ‘ जन्म के आधार पर व्यवसायों के आबंटन से कार्यकुशलता नहीं आती। बल्कि यह व्यक्तिगत क्षमता से आती है। पीढ़ी दर पीढ़ी वंशानुगत धंधों में लगे रहने से लापरवाही और बोरियत होने की संभावना होती है। इससे दिमाग संकीर्ण हो जाता है।
टैगोर ने जोतिबाबा फुले की तरह पौराणिकता और इतिहास पर भी विचार किया है। महाकाव्यों और दूसरे संस्कृत साहित्य पर भी उन्होंने नए सिरे से सोचा है। बाणभट्ट की कादंबरी हो, या कालिदास की कृति अभिज्ञान शंकुन्तलम ,उन्होंने इसे अपनी ही तरह से विश्लेषित करने की कोशिश की , महाकवि वाल्मीकि को क्रौंचवध से नहीं, एक अछूत बालिका के वध से द्रवित को कर कवि होता देखा। उनका एक लेख है -‘ ए विज़न ऑफ़ इंडिया ‘ , उम्मीद है ,आप में से बहुतों ने पढ़ा होगा। इस लेख को बहुत पहले मैंने पढ़ा था। इस लेख को पढ़ने के बाद कई सवाल मन में उठते हैं। टैगोर मनु को भिन्न नजरिए से देखते हैं। यह मनु कौन था ? जिसकी स्मृति इतनी चर्चित व विवादित है। उसे ब्राह्मणवादी विचारों का आदि स्रोत बतलाया जाता है। आज तो वह प्रतिगामी सामाजिक चिंतन का आधार ही माना जाता है।
रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैं मनु तो स्वयं ब्राह्मण नहीं था ,वह क्षत्रिय था ;क्योंकि वह राजा था और राजा क्षत्रिय ही होता था। एक क्षत्रिय राजा ने स्वयं को कमतर और ब्राह्मण को श्रेष्ठतर कैसे बनाया ? रवीन्द्र इस पर गहराई से विचार करते हैं। वह बतलाते हैं जब क्षत्रियों को सत्ता चाहिए होती थी ,तब वे उनका समर्थन लेने केलिए उनकी महत्ता का समर्थन करते थे। ब्राह्मण सीधे सत्ता में नहीं होते थे। उनकी मनोकामनाओं की पूर्ति और स्वार्थों की रक्षा क्षत्रिय राजा करते थे। ऐसे राजाओं को ब्राह्मण लोग मर्यादा पुरुषोत्तम कहते थे। राम ऐसे ही राजा थे। क्षत्रिय ; लेकिन द्विज हितकारी ,विप्र सेवक। शम्बूक का शिरोच्छेद और सीता को घर निकाला देकर राम ने यह विरुद हासिल किया था।

क्षत्रियों के मोटे तौर पर दो समूह थे। एक समूह सत्ता- पसंद था , दूसरा ज्ञान- पसंद। जब क्षत्रियों को ज्ञान की भूख होती थी ;वे ब्राह्मणों से टकराने लगते थे। ब्राह्मण इसे पसंद नहीं करते थे। वह क्षत्रियों को कमतर मानते थे और ज्ञान जैसे क्षेत्र केलिए सर्वथा अयोग्य। बावजूद इसके जब क्षत्रियों ने ज्ञान केलिए अपनी जिद कायम रखी ,तो ब्राह्मणों के बीच से परशु या फरसाराम उठ खड़ा हुआ। परशुराम दरअसल ब्राह्मणों की अधीरता और उनके बीच छुपी खूंखार हिंसा का परिचायक है। संभवतः यह एक प्रवृति है क्योंकि परशुराम रामायण में भी है और महाभारत में भी। इस तरह यह ब्राह्मणों और क्षत्रियों के एक बहुत लम्बे संघर्ष की सूचना देता है। यूँ भी इक्कीस दफा क्षत्रिय संहार का मतलब लम्बा संघर्ष ही है। संभव है परशुराम के मिथक की संरचना क्षत्रियों ने ब्राह्मणों को नीचा और दुष्टतापूर्ण दिखाने केलिए की हो। क्योंकि इस तरह के निकृष्ट नायक की रचना ब्राह्मणों ने स्वयं की होगी ,यह विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता . परशुराम तो पुरंदर ( इंद्र ) का विकृत रूप लगता है। इतना लम्पट कि अपनी मां की हत्या करने में भी नहीं हिचकता।
क्षत्रिय जब सत्ताप्रिय होते थे तब ब्राह्मणों -क्षत्रियों का युग्म अथवा संयुक्त मोर्चा बनता था। इस मोर्चे की मजबूती के साथ ही शूद्रों और वैश्यों के बुरे दिन आ जाते थे। जब क्षत्रिय ज्ञानप्रिय होते थे वे ब्राह्मणों से जूझते टकराते थे। ऐसी स्थिति में उनका शूद्रों और वैश्यों से संयुक्त मोर्चा बनता था। यह तथाकथित निम्नवर्णीय समूहों के लिए अनुकूल समय होता था। भारत के वर्णवादी समाज का यही आत्मसंघर्ष या अंतर्संघर्ष था।
इस लेख में टैगोर ने रामायण और महाभारत पर भी अपनी तरह से विचार किया है। रामायण के राम कृषि केंद्रित समाज के नायक होना चाहते थे अथवा थे। उनके गुरु विश्वामित्र की सीख के तीन बुनियादी बिंदु थे –
1. बर्बरता का ख़ात्मा ,जिसके तहत राम ने ताड़का वध और दूसरे समाजविरोधी तत्वों का सफाया किया। आज उसे कानून का राज स्थापित करना कह सकते हैं।
2 . अहल्या उद्धार – अर्थात अहल्या भूमि (अकृषिकारी भूमि )को हल्या यानि हल (जोतदार भूमि ) के अधीन लाना। आज के अर्थ में कृषि पर जोर।
3 . नीचे के वर्णों से समझौता अर्थात ब्राह्मणों की श्रेष्ठता प्रदर्शित करनेवाली वर्णव्यवस्था की अवहेलना।
राम ने अपने जीवन के पूर्वार्द्ध में में यह किया। निषादराज से लेकर आदिवासियों तक से उन्होंने समझौते किये। जीवन की शुरुआत ही अयोनिजा (योनि से न जन्मी यानि वर्णहीन ) सीता से विवाह करके किया। जनक के दरबार में उनके भाई लक्ष्मण ने परशुराम की जम कर ऐसी -तैसी कर दी। परशुराम को भागना पड़ा। वशिष्ठ की सीधी उपेक्षा करते हैं राम। परशुराम और वशिष्ठ की ही कड़ी में रावण भी है , जो राम की स्त्री का अपहरण कर लेता है। वह दक्षिण का ब्राह्मण है। (सीता की खोज में जब हनुमान लंका पहुँचते हैं तब उनने अपनी बात संस्कृत में रखनी चाही ,लेकिन हनुमान को तुरत इस बात का भान हुआ कि संस्कृत तो ब्राह्मणों की भाषा है। सीता मुझे रावण का दूत मान लेंगी। इसलिए उन्होंने भाषा में बात की) लेकिन उत्तरार्द्ध के राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बनना है। वह उन शक्तियों के समक्ष आत्मसमर्पण कर देता है ,जिनके विरुद्ध अब तक लड़ते रहे थे। राम का यह भयानक पतन है ,जो उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम बना देता है। विश्वामित्र अब चुपचाप परिदृश्य से अनुपस्थित हो जाते हैं।

महाभारत को टैगोर कौरव – पांडवों का संघर्ष नहीं मानते। यह संघर्ष कृष्ण को मानने और नहीं मानने वालों के बीच का संघर्ष था। कृष्ण का जन्म विवादास्पद है। पांडवों का भी यही हाल है। दुर्योधन का तो यही कहना था कि ये सब पाण्डु की जायज संतान नहीं हैं। जन्म और वर्ण की शुद्धता -अशुद्धता के मुद्दे पर यह संघर्ष हुआ ,जिसमे कृष्ण ने वर्ण और जन्म के मुकाबले मनुष्यता का पक्ष लिया। टैगोर का यह दृष्टिकोण महाभारत को एक नया अर्थ दे जाता है। कन्नड़ लेखक भैरप्पा ने महाभारत को लेकर जो उपन्यास ‘ पर्व ‘ लिखा है ,उसकी प्रेरणा संभवतः टैगोर के इस दृष्टिकोण से ही मिली है।
कुल मिला कर यह कि टैगोर हमारे विचारों को झकझोरते हैं। आश्चर्य होता है अनेक प्रश्नों पर वह अपने समय से बहुत आगे के दिखते हैं। उन्होंने भारतीय दर्शनशात्र और प्राचीन संस्कृत वाङ्गमय का गहन अध्ययन किया था। लेकिन वह उसी का हिस्सा नहीं बन गए। अपने चिंतन से उसे नए अर्थ और गति दी . उसे आधुनिक विश्व साहित्य की ऊंचाइयां प्रदान की। वह जितनी गहराई से संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य से जुड़े थे ,उतनी ही गहराई से बाउल और भक्ति गीतों से भी। अपनी माटी के कबीर और लालन फ़क़ीर के जातिमुक्त समाज के आग्रह को उन्होंने अपनी संवेदना से संवारा और उनके आधुनिक अर्थ दिए . समाज ,राजनीति और साहित्य को मनुष्य के निकष पर देखना संवारना एक विचार ही है ,टैगोर ने इसे संभव किया।
आज उनका जन्मदिन है। 7 मई 1861 को कोलकाता में जन्मे टैगोर ने पूरी मानव जाति और उसकी चेतना को अपने साहित्य से समृद्ध किया। उन्होंने भारत को सांस्कृतिक ऊंचाइयां दी। मानव जाति को आज़ादी के नए अर्थ दिए। जब तुम्हारी बात कोई नहीं सुने तब उसे अकेले चलने का मंत्र दिया। आज उनके शब्द हमारी धड़कनों और वजूद के हिस्सा बन गए हैं। उनके जन्मदिन पर उनका नमन।
(लेखक बिहार विधान परिषद् के पूर्व सदस्य रहे हैं )