ग्रामीण भारत में यौन उत्पीड़न और अर्थव्यवस्था पर उसका प्रभाव
#MeToo आंदोलन की प्रबलता अर्थव्यवस्था के उच्चतम क्षेत्रों में बखूबी देखने मिली पर हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आंदोलन के अंतिम छोर तक कहीं भी ग्रामीण क्षेत्र को महत्व नहीं दिया गया. यह आंदोलन जितनी आग मल्टी नेशलन कंपनीज, राजनीति, मीडिया और फिल्म जगत में लगा रहा था उसकी छोटी सी चिंगारी समाज के चौथे स्तर तक पहुंची ही नहीं. ये मध्य और उच्च मध्य वर्ग की शिक्षित और सबल महिलाएं ही हैं, जिनमें कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न करने वालों के नाम सामने लाने की हिम्मत है. पर आधी आबादी का आधा हिस्सा जो निम्न वर्ग या ग्रामीण क्षेत्र से ताल्लुक रखता है उसमें यौन हिंसा के प्रति सहज स्वीकार्यता सी आ गई है.
लम्बे अर्से से उनकी जिंदगी का ताना-बाना मौजूदा स्त्री द्वेष और भारत में गहरे जड़े जमाई पितृसत्ता में उलझा हुआ है. वे ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं और मान चुकी है कि यौन हिंसा को बर्दाश्त करना उनके काम का एक हिस्सा है. छींटाकशी, गाली और जाति सूचक शब्द तो रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल हैं.
गांव की रहने वाली कुम्हार जाति की गरीब भंवरी देवी वो पहला और आखिरी नाम था जिसने गांव में महिलाओं के साथ होने वाली यौन हिंसा के विरूध आवाज बुलंद की थी. यदि याददाश्त पर जोर दिया जाए तो इसके बाद फिर कोई और नाम याद नहीं आता. भंवरी देवी को भी उसकी हिम्मत के लिए नहीं बल्कि हश्र के लिए याद किया जाता है.
गांव में भनक तक नहीं लगी
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के 2016—17 की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में बलात्कार के मामले 2015 की तुलना में 2016 में 12.4 फीसदी बढ़े हैं और 2017 में 12.8 प्रतिशत की तेजी आई. एनसीआरबी के ही डेटा के मुताबिक देश में हर तीन मिनट में महिला के खिलाफ कोई न कोई अपराध होता है और हर 15 मिनट में एक महिला बलात्कार की शिकार होती है. आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि देश में कथित छोटी जाति या कमज़ोर तबके की महिलाओं के खिलाफ होने वाले सेक्सुअल अपराधों में बर्बरता ज़्यादा देखी जाती है.
दुर्भाग्यवश, ग्रामीण महिलाओं की परवरिश ही इस सोच के साथ की जाती है कि वे पुरुषों से हीन हैं. शादी के बाद पति उन्हें पीटेंगे और काम देने वाले को उनके साथ बदसलूकी का पूरा अधिकार होगा. साल 2017 में कराए गए राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार सर्वेक्षण के अनुसार, 54.4 प्रतिशत ग्रामीण महिलाओं का मानना है कि घरों में होने वाला र्दुव्यवहार और हिंसा सामान्य बात है जबकि 46.8 प्रतिशत शहरी महिलाओं की भी यही सोच है. वहीं दूसरी ओर यौन उत्पीड़न के बगैर आप काम नहीं कर सकतीं, क्योंकि नियोक्ता महिलाओं को रोजगार देने के एवज में इसी तरह की उम्मीदें रखते हैं.
शहरों में #METOO आंदोलन के बाद हालत सुधरने की कुछ उम्मीद जागी है पर छोटे जिलों और कस्बों में हालात अब भी जस के तस हैं. ग्रामवाणी ने जब राजनंद गांव के वीरेंन्द्र गंधारी से बात की तो उन्होंने साफ कहा कि #METOO आंदोलन को डिजिटल प्लेटफार्म से उतारकर जमीन पर लाना होगा. शहरों में इस आंदोलन के प्रभाव से महिलाओं की स्थिति में शायद सुधार हो भी जाए पर गांव में तो किसी को भनक भी नहीं है. घरेलू नौकरानियां, खेत में काम करने वाली या मनरेगा में मजदूरी कर रही महिलाओं में विरोध करने की हिम्मत न के बराबर है.
अपने नियोक्ता की ओर से किए जा रहे यौन उत्पीड़न का विरोध करने वाली छोटे कस्बों की ज्यादातर महिलाओं को अपनी नौकरी गंवानी पड़ती है. बहुत सी ग्रामीण महिलाओं को सार्वजनिक परिवहन में होने वाले उत्पीड़न के कारण काम छोड़ना पड़ता है. वे उत्पीड़न करने वालों का मुकाबला करने और उन्हें अदालत में चुनौती देने से डरती हैं. इसका दूसरा असर देश की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा है.
जीडीपी में लगातार कम हो रहा योगदान
हमारे देश की आबादी का आधा हिस्सा महिलाएं हैं, लेकिन जीडीपी में उनका योगदान केवल 17.1 प्रतिशत है. उनका आर्थिक योगदान वैश्विक औसत के आधे से भी कम है. जबकि आबादी में हमसे दोगुने देश चीन में, महिलाएं जीडीपी में 40 प्रतिशत योगदान देती हैं. विश्व बैंक के अनुसार, यदि भारत में 50 प्रतिशत महिलाएं श्रमशक्ति का हिस्सा बन जाएं, तो भारत की विकास दर में 1.5 प्रतिशत से 9 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हो सकती है. पर हकीकत इससे जुदा है.
महिलाओं का काम न करने या काम छोड़ देने के पीछे कार्यस्थल पर होने वाली यौन हिंसा बड़े कारण के रूप में सामने आई है. श्रमशक्ति में महिलाओं की भागीदारी में कमी आ रही है और यह 1990 में 34.4 प्रतिशत से घटकर 2016 में 27 प्रतिशत रह गई. यह सरकार और समाज दोनों कोई उपलब्धि तो कतई नहीं है, क्योंकि देश भर में महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ने के बावजूद हजारों महिलाएं हर साल श्रमशक्ति से बाहर हो रही हैं. विश्व बैंक की रिपोर्ट कहती है कि बीते 4 सालों में भारत में महिलाओं पर केंद्रित कल्याण कार्यक्रमों में इजाफा हुआ है, बावजूद इसके महिलाओं को श्रमशक्ति का हिस्सा बनाने के प्रयास विफल रहे.
मैकिंस्की ग्लोबल इंस्टीट्यूट द्वारा कराए गए एक अध्ययन के अनुसार, यदि ज्यादा महिलाएं श्रमशक्ति में योगदान देने लगें, तो भारत 2025 तक अपने जीडीपी में 60 प्रतिशत या 2.9 ट्रिलियन डॉलर तक की वृद्धि कर सकता है. लेकिन यह आदर्श स्थिति लाने के लिए कार्य स्थल पर ऐसा वातावरण बनाने की जरूरत है कि जहां महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें. महिलाओं के श्रमशक्ति से बाहर होने के कारण देश में बेरोजगारी का स्तर तेजी से बढ़ रहा है.
कहां हैं विशाखा!
जब #METOO की चर्चा जोरों पर थी तो उस शोर में कहीं—कहीं विशाखा का नाम भी सुनाई दे रहा था. पर आरोपों—प्रत्यारोपों के शोर में शायद कोई ठीक से इस पर ध्यान नहीं दे पाया. यदि विशाखा पर ध्यान दिया जाता तो शायद हमें #METOO की जरूरत ही नहीं होती.
भंवरी देवी केस की सुनवाई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के खिलाफ फैसला सुनाया था. भंवरी ने राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में सरकारी विभाग में काम करते समय बाल विवाह पर ऐतराज जताया था और इसी का बदला लेने के लिए उसके साथ सामंती जमींदारों ने सामूहिक दुष्कर्म कर हत्या कर दी थी. तक विशाखा नाम संगठन ने इस मामले को सर्वोच्च न्यायलय की चौखट तक पहुंचाया और तभी विशाखा गाइडलाइंन का गठन किया गया था.
जिसके अनुसार आपके काम की जगह पर किसी पुरुष द्वारा मांगा गया शारीरिक लाभ, आपके शरीर या रंग पर की गई कोई टिप्पणी, गंदे मजाक, छेड़खानी, जानबूझकर किसी तरीके से आपके शरीर को छूना,आप और आपसे जुड़े किसी कर्मचारी के बारे में फैलाई गई यौन संबंध की अफवाह, पॉर्न फिल्में या अपमानजनक तस्वीरें दिखाना या भेजना, शारीरिक लाभ के बदले आपको भविष्य में फायदे या नुकसान का वादा करना, आपकी तरफ किए गए गंदे इशारे या आपसे की गई कोई गंदी बात, सब शोषण का हिस्सा है.
कानूनी तौर पर हर संस्थान जिसमें 10 से अधिक कर्मचारी हैं वहां, कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न (निवारण, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 के तहत अंदरूनी शिकायत समिति (ICC) होना जरूरी है. इस कमेटी में 50 फीसदी से ज्यादा महिलाएं होना आवश्यक है और इसकी अध्यक्ष भी महिला ही होगी. इस कमेटी में यौन शोषण के मुद्दे पर ही काम कर रही किसी बाहरी गैर-सरकारी संस्था (NGO) की एक प्रतिनिधि को भी शामिल करना ज़रूरी होता है. महिला को शिकायत 3 महीने के अंदर देनी होती है. उसके बाद कमेटी 90 दिन के अंदर रिपोर्ट पेश करती है.
‘विशाखा गाइडलाइन्स’ जारी होने के बाद वर्ष 2012 में भी एक अन्य याचिका पर सुनवाई के दौरान नियामक संस्थाओं से यौन हिंसा से निपटने के लिए समितियों का गठन करने को कहा था, और उसी के बाद केंद्र सरकार ने अप्रैल, 2013 में ‘सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ वीमन एट वर्कप्लेस एक्ट’ को मंज़ूरी दी थी.
लेकिन इन कागजी बातों से हटकर हकीकत पर नजर डालें तो विशाखा की हालात शहरों और गांवों में एक जैसी ही है. न तो कंपनीज में कोई जानता है कि विशाखा कहां है और गांवों में तो यह कोई वजूद ही नहीं रखती. जबकि होना यह चाहिए कि जब कोई महिला काम के लिए पहुंचती है तो उससे नियोक्ता द्वारा कागजी कार्रवाई के दौरान ही विशाखा कमेटी के होने न होने की जानकारी देनी चाहिए या जानकारी लेनी चाहिए.
भरोसा जीतना होगा
ग्रामवाणी के श्रोता सुधीर सैनी कहते हैं कि यौन हिंसा के प्रति जागरूकता लाने में #METOO आंदोलन ने शानदार प्रयास किया है पर गांव के हालातों को सुधारने के लिए यहां महिलाओं का भरोसा जीतना जरूरी है. पुलिस और न्याय प्रणाली पर ज्यादा भरोसा नहीं होने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों और छोटे शहरों की कुछेक महिलाएं ही पुलिस के पास जाती हैं. ज्यादातर महिलाएं पुलिस के पास जाने से बचना चाहती हैं, क्योंकि वे उसे असंवेदनशील मानती हैं तथा इससे जुड़ी प्रक्रिया पर बहुत सा समय और संसाधन खर्च होते हैं और आखिर में लड़की या महिला की छवि को ही नुकसान पहुंचता है, जो गांवों और छोटे कस्बों में बहुत मायने रखती है.
शिक्षा ने महिलाओं को कुछ साहसी बनाया है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार सर्वेक्षण के अनुसार स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं करने वाली 16 प्रतिशत महिलाओं ने घर या कार्यस्थल पर शारीरिक हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कराई है जबकि ऐसी रिपोर्ट दर्ज कराने वाली स्कूली शिक्षा प्राप्त महिलाओं की संख्या 38 प्रतिशत है. निर्माण क्षेत्र में, 78 प्रतिशत पीड़िताएं यौन उत्पीड़न की रिपोर्ट दर्ज नहीं करातीं. जब तक इन आंकड़ों में सुधार नहीं होता है तब तक न तो #METOO आंदोलन को सफल माना जा सकता है और न ही यौन उत्पीड़न के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव को कम किया जा सकता है.