गाँवों में मजदूरों को रोज़गार इसलिए नहीं दिया जाएगा, ताकि मजबूरी में बिना विरोध किए फिर से शहरी फैक्ट्रियों में खपने के लिए तैयार रहें
रफ़ी अहमद सिद्दीकी
इन दिनों मुद्रा के बाज़ार में श्रम का संक्रमण रूकने के साथ ही क़ानूनों के उत्पादन और सुधारों का सिलसिला बहुत तेज हो गया है। पूँजी को क़ानून की वैक्सीन से बचाने की तैयारी चल रही है। जहाँ एक तरफ़ कोरोना संक्रमण ने श्रम, पूँजी और उत्पादन को संकट में डाल दिया है, तो वहीं दूसरी तरफ़ बरसों से खुद संक्रमित व्यवस्थाएँ इस संकट को दूर करने में लगी हुई हैं। बीमार होते मुद्रा के बाज़ार को पर्यावरण की तबाही तक सजाए रखना अब मुश्किल होता जा रहा है और हर तबाही पर क़ानून के पिटारे से संशोधन की खुराक देना भी अब आम बात हो चुकी है। इस समय मज़दूरों के तेवर ने पूँजी की भक्ति को मुश्किल में डाला दिया है, इसीलिए मज़दूरों को थकाने वाले अड्डे इन दिनों शान्त नज़र आ रहे हैं। मज़दूर साथी बतातें हैं काग़ज़-दर-काग़ज़ हस्ताक्षर करने और इनसे-उनसे मिलने का सिलसिला अब थम चुका है। कोरोना-संक्रमण और लॉक डाउन ने इस खोखली हो चुकी व्यवस्था की पोल खोलकर रख दी है।जहाँ एक तरफ़ मज़दूरों के सैकड़ों मील की दूरी को पैदल नापने का भरोसा सरकार, क़ानून और संगठनों पर इनके विश्वास को खून के आंसू रुलाता है, तो दूसरी तरफ़ उस क़ानून को भी मुँह चिढ़ाता नज़र आता है, जो उनके अधिकारों के रक्षा की डुगडुगी बजाते हैं और यह साबित करता है कि ये सारी व्यवस्थाएँ मज़दूरों के कल्याण की आड़ में उनके श्रम से पूँजी की सेवा कराने के लिए सिर्फ़ छलावा मात्र हैं।
भूख और मौत से लड़ते हुए प्रवासी मज़दूर जब सरकारी व्यवस्थाओं के ख़िलाफ़ सड़कों पर बग़ावत कर रहे थे, तब संगठनों, नेताओं, क़ानून के ठेकेदारों और व्यवस्थाओं की बयानबाज़ी नारों, माँगों और तस्वीरों के रूप में फ़ेसबुक और ट्वीटर की डिजिटल वादियों की सैर कर रही थी। फिर मज़दूरों के दबाव में सरकार द्वारा लॉक डाउन हटाने के बाद इन संगठनों की बेचैनियाँ बढ़ती गयीं, आंदोलनों का सिलसिला तेज होता गया और साथ ही ये भी साफ़ हो गया कि इन संगठनों की नीतियाँ भी सरकारी गतिविधियों की हमराह हैं।जो सार्वजनिक क्षेत्र को नष्ट करने की अंदरूनी सरकारी प्रक्रिया को शुरू कर पूँजीपतियों की पालित सरकारें स्थायी नौकरियों को समाप्त कर, उसकी जगह असुरक्षित-अनियमित-अस्थायी श्रमिकों की बहाली को बढ़ती बेरोज़गारी का इलाज समझती रहीं। जैसे-जैसे अपने कार्य में माहिर मज़दूरों की संख्या बढ़ती गयी, सरकारी उद्योगों ने उन्हें ठेके और अस्थायी रूप में काम पर रखना शुरू कर दिया और जब न्यायालय ने इस व्यस्था पर सवाल उठाया तो सरकार ने नया श्रम अधिनियम पारित कर ठेके पर मज़दूरों की बहाली का निर्णय लेने का अधिकार अपने पास रख लिया। आज क़ानून के दायरे में रहकर मज़दूरों के अधिकारों की लड़ायी लड़ने वाले संगठन उसी दायरे में कमजोर होते नज़र आ रहे और आंदोलनों के माध्यम से अपने अस्तित्त्व की लड़ायी लड़ रहे हैं।
अब मज़दूर साथियों ने क़ानूनी मापदंडों वाली लड़ायी को बहुत पीछे छोड़ते हुए नियम-क़ानून वाली दुकानों से किनारा कर लिया है। कोरोना-संक्रमण से पैदा हुए संकट ने नैतिकता की सारी दीवारें गिरा दी हैं और पूँजी की सेवा में लीन सरकारों द्वारा अपने नागरिकों के मन में संसदीय लोकतंत्र का भ्रम क़ायम रखना अब मुश्किल हो गया है। कुछ महीने पहले वे लाखों मज़दूर, जो सड़कों पर थे, आज बेरोज़गार होते जा रहे हैं और इसके साथ ही खुलता जा रहा है समस्त संसदीय पार्टियों का कच्चा चिट्ठा।श्रमिक संगठनों ने नियम-क़ानूनों का राग अलापते-अलापते खुदके ऊपर इतनी बंदिशें लगा ली हैं कि मज़दूरों का दैनिक संघर्ष इन्हें अब नज़र ही नहीं आता, जिसके कारण मज़दूरों के संघर्ष में ये कहीं भी उनके साथ खड़े नज़र नहीं आते। और मज़दूरों से इनकी दूरियाँ बढ़ती हुए नज़र आ रहीं हैं और इनकी छवि मज़दूरों के श्रम और हितों का मोलभाव करने वाले संगठनों में बदलती जा जा रही है।आज जब अधिकांश कम्पनियाँ श्रम की क़िल्लत से जूझ रही हैं, कुछ मज़दूर साथी लॉक डाउन के बाद शहर से होकर वापस गाँव आ गए हैं।
दावा किया जा रहा है कि शहर में बहुत काम है, लेकिन ऐसा नहीं है, अब काम मिलना उतना आसान नहीं रहा। श्रमिकों का काम की तलाश में शहर आना अब पर्यटन की तरह होता जा रहा है, जब उन्हें पैसों की ज़रूरत होती है, तब वे शहर आकर अपनी ज़रूरतें पूरी कर फिर से गाँव चले जाते हैं।इस तरह मज़दूरों का इन कम्पनियों की सरकारों और व्यवस्था पर विश्वास का समाप्त होना बर्बरता के एक नए स्वरूप को जन्म दे सकता है। कुछ मज़दूर साथी बताते हैं कि अब तो गाँवों में भी निगरानी बढ़ती जा रही है। क्वारंटीन के बहाने उनसे उनकी सारी जानकारियाँ ले ली गयी हैं और गाँवों में उन्हें रोज़गार इसलिए नहीं दिया जा रहा, ताकि वे मजबूरी में बिना विरोध किए फिर से शहरी फैक्ट्रियों में खपने के लिए जा सकें।