अबतक आशिक़ी का वो ज़माना याद है !

उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर, पत्रकार, इस्लामिक विद्वान, समाज सेवक और देश के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी मौलाना हसरत मोहांनी (1875-1951) को अब शायद ही कोई याद करता है। प्रबल साम्राज्यवाद-विरोधी पत्रकार, संपूर्ण स्वराज का नारा देनेवाले निर्भीक स्वतंत्रता सेनानी, कांग्रेस के दबंग नेता, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में एक, हमारे भारतीय संविधान का मसौदा तैयार करने वाली संविधान सभा के प्रमुख सदस्य मौलाना हसरत मोहानी उर्फ़ फजलुर्र हसन अपने दौर के विलक्षण व्यक्तित्व रहे थे।
वे मोहानी साहब थे जिन्होंने अहमदाबाद में कांग्रेस के 1921 के सत्र में ही भारत के पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव रखा था। महात्मा गांधी उस वक्त तक अंग्रेजों के अधीन होम रूल के समर्थक थे जिसकी वज़ह से उनका प्रस्ताव पास नहीं हो सका। कांग्रेस छोड़ने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में उनका बड़ा योगदान रहा था। देश को ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ का नारा उन्हीं का दिया हुआ है। वे सुलझे हुए राजनेता और निर्भीक योद्धा ही नहीं, मुहब्बत के बारीक अहसास के हरदिलअज़ीज शायर भी थे। जंगे आज़ादी की उलझनों और कई जेल यात्राओं की वज़ह से उन्हें ज्यादा कुछ लिखने के मौक़े नहीं मिले, लेकिन उनकी शायरी की मुलायम संवेदनाएं और नाज़ुकबयानी हैरान कर देने वाली हैं। उनकी दर्ज़नों ग़ज़लें उर्दू अदब की अमूल्य धरोहर हैं।
शायरी का शौक रखने वाले मोहानी ने उस्ताद तसलीम लखनवी और नसीम देहलवी से शायरी कहना सीखा था। ऐसा कहते हैं कि उर्दू की शायरी में हसरत से पहले औरतों को वो मकाम हासिल नहीं था। आज की शायरी में औरत को जो साहयात्री और मित्र के रूप में देखा जाता है वह कहीं न कहीं हसरत मोहानी की ही देन है। शायद ही कोई शख्स होगा जिसे उनकी लिखी गज़ल ‘चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है’ पसंद न हो। इस गज़ल को गुलाम अली ने गाया और बाद में ‘निकाह’ फिल्म में भी इस गज़ल को शामिल किया गया।
उनकी ग़ज़लों की ख़ासियत यह है कि वहां महबूबा कोई हवाई पात्र नहीं, एक संघर्षशील स्त्री और पुरुष की दोस्त तथा सहयात्री है। आईए स्वतंत्रता-संग्राम के विस्मृत सेनानी, विलक्षण पत्रकार और नाज़ुकमिजाज़ शायरों में एक हसरत मोहानी को उनकी पुण्यतिथि (13 मई) पर याद करें, उनकी एक बेहद लोकप्रिय ग़ज़ल के साथ !
चुपके चुपके रात दिन आंसू बहाना याद है
हमको अबतक आशिक़ी का वो ज़माना याद है
तुमसे मिलते ही वो कुछ बेबाक़ हो जाना मेरा
और तेरा दांतों में वो ऊंगली दबाना याद है
तुमको जब तनहा कभी पाना तो अज़राहे लिहाज़
हाले दिल बातों ही बातों में जताना याद है
खींच लेना वो मेरा परदे का कोना दफ़ातन
और दुपट्टे से तेरा वो मुंह छुपाना याद है
ग़ैर की नज़रों से बचके सबकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़
वो तेरा चोरी छिपे रातों को आना याद है
आ गया जब वस्ल की शब भी कहीं ज़िक्रे फ़िराक
वो तेरा रो रोके मुझको भी रुलाना याद है
दोपहर की धूप में मेरे बुलाने के लिए
वो तेरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है
बेरुखी के साथ सुनना दर्द ए दिल की दास्तां
वो कलाई में तेरा कंगन घुमाना याद है ।
वक़्त-ए-रुखसत अलविदा का लफ्ज़ कहने के लिए
वो तेरे सूखे लबों का थरथराना याद है
चोरी चोरी हमको तुम आकर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़री पर अबतक वो ठिकाना याद है.
रविंद्र कुमार मिश्रा