अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और महिलाओं की दुनियाँ

महिलाएं जिन पर तेज़ाब फेंका गया- फाइल फोटो
लेखक- संतोष कुमार मंडल
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस, महिलाओं को लेकर बड़ी-बड़ी बातें वादे किए गए.पता नहीं उनमें से कितने पूरे हो पाएंगे। औरतों का जीवन इधर काफी बदला है पर उनकी मंजिल अब भी बहुत दूर है। उनके अधिकारों को लेकर कई कानून बने हैं। महिलाओं को कुछ जरूरी अधिकार मिले भी हैं, जैसे विवाह और तलाक के अलावा अकेली मां बनने से लेकर बच्चों की कस्टडी का हक और पिता की संपत्ति में अधिकार। हालांकि भारतीय समाज को यह सब आसानी से मान्य नहीं था। इन अधिकारों के लिए स्त्रियों को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। कानूनों का आज भी ढंग से पालन नहीं होता। स्त्री-पुरुष की मजदूरी आज भी एक समान नहीं है। दफ्तरों में भी महिलाओं के साथ भेदभाव जारी है।
सवाल है कि अगर स्त्री-पुरुष बराबर हैं तो औरतों को बराबरी का दर्जा क्यों नहीं दिया गया? स्त्री-पुरुष समानता को अभी तो सिर्फ कविता-कहानियों में इस तरह की बातें खूब लिखी जाती है। लेकिन समाज में नजर दौड़ाकर देखें तो बराबरी की बात महज एक नजर आती है। पहले घरों में लड़कियां जब कुछ बोलतीं थीं तो उन्हें दादी-नानी हिदायत देती थीं कि ‘तू लड़की है, ज्यादा मत बोल। चुप रह। इस ‘चुप रह, चुप रह’ की सलाह ने ऐसा भयानक रूप लिया कि औरतों ने घुट-घुटकर जीने को ही अपनी नियति मान लिया। अपने मन की बात किसी से न कह पाने के कारण औरतें आज डिप्रेशन का शिकार हो रही हैं। उनपर भूत-प्रेत सवार है, जिससे मुक्ति के नाम पर उन्हें यंत्रणा दी जाती है।
‘औरत जन्म नहीं लेती, बनाई जाती है।’ अवसाद, घुटन, डर, असुरक्षा जैसे औजारों से औरत बनाई जा रही है। लड़कियों/औरतों की समस्या की तह में जाने की कोशिश करें तो पाते हैं कि पितृसत्तात्मक सोच की ग्रंथि से औरतें इस तरह ग्रसित हैं कि वे अपने लिए सोचने/बोलने का फैसला नहीं ले पातीं। जन्म से ही घुट्टी में पिलाई गई ‘गलत-सही’ की सीख ने डर के साथ-साथ उनके भीतर कई स्तरों पर द्वंद भर दिया है। अपने लिए कोई फैसला करने से पहले वे दस बार सोचती हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने पर वे स्वार्थी कहलाएंगी। क्योंकि हमारा समाज इसी तरह सोचता है। अगर एक औरत अपने लिए कोई फैसला करती है तो वह स्वार्थी समझी जाती है, बदचलन कही जाती है।साथियों #मी टू जैसे अभियान पर समाज की प्रतिक्रिया से जाहिर हुआ कि पढ़ा-लिखा समाज आज भी स्त्री को लेकर कितनी बुरी तरह परंपरागत सोच से ग्रस्त है। औरत अगर अपने साथ हुए यौन संबंधी अत्याचार की बात कर रही है तो वह संदिग्ध है! जब कुछ महिलाओं ने अपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के मामलों बताया तो उलटे उन्हीं से सवाल किए गए- ‘तब क्यों नहीं बोला, अब क्यों बोल रही है?’ तमाम आरोप एक सिरे से खारिज करने की कोशिश हुई। इस अभियान में शामिल औरतों के चरित्र पर सवाल उठाए गए। ठीक उसी तरह, जैसे बलात्कार के मामले में सारा दोष लड़कियों के ही मत्थे डाला जाता है कि इतनी रात को घर से क्यों निकली? ऐसे कपड़े क्यों पहने? लड़कों के साथ क्यों गई? समाज के इस आक्रामक नजरिए को देखकर कई महिलाओं ने अपने होंठ सिल लिए। वे जानती थीं कि न्याय मिलने की बजाय उन्हें उलटे और सजा मिलेगी।
इन हरकतों पर पूरे देश को शर्मसार होने की जरूरत है। देश की प्रतिष्ठित महिलाओं के साथ जब समाज इस कदर पेश आता है तो गरीब-अशिक्षित औरतों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है। घरेलू हिंसा से कितनी ही औरतों की जान जा रही है। ऐसे नरक से निकलने के लिए, तलाक लेने के लिए वे अदालत का दरवाजा तक नहीं खटखटा पातीं। पढ़ी-लिखी, नौकरी पेशा महिलाएं भी अपने अधिकारियों की बद तमीजी और उत्पीड़न पर चुप रहने को विवश हैं क्योंकि उन्हें न्याय मिलने की आशा नहीं दिखती। अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी निभाने के लिए वे चुप रहने में ही भलाई समझती हैं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस तभी सार्थक होगा जब देश की आधी आबादी को हर स्तर पर बराबरी का हक मिलेगा और स्त्री हर तरह के डर और असुरक्षा से मुक्त हो सकेगी।समाज के लिये सोचनीय विषय है अगर समाज में बेटी नहीं होगी तो बेटा कहाँ से आएगा?सोच को बदलाव ही महिला ससक्तिकरण की पहली सीढ़ी होगी।साथियो बात बराबरी की होती है लेकिन सर्वे के अनुसार लड़की का अनुपात लड़का की संख्या ज्यादा है यानि 1000 लड़के पर 914 लड़किया है। हर छेत्र में लड़की मर रही है सोच को परिवर्तन की जरुरत है। सिर्फ समाज परिवार से सहयोग चाहती है। इतनी भयानक लिंग अनुपात में अंतर आया की सरकार को बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ, लिंग परिछन पर रोक लगाना पड़ा , पर क्या केवल कानून के बल पर समाज में समानता लाया जा सकता है, मेरा मानना है नहीं , समाज के रीती रिवाज और सामजिक कुंठाओं को बदलने की जरूरत है.