सकारत्मकता पाखंड है, पलायनवाद है, भोगवाद है !

शशि शेखर
ओशो ने दर्शन के रूप में सकारात्मक सोच को खारिज कर दिया। इसे बुलशिट तक कहा। “पाखंड का दर्शन” कहा। ओशो ने कहा, “सकारात्मक सोच के दर्शन का मतलब असत्य है। इसका मतलब बेईमान होना है। इसका मतलब है कि एक निश्चित चीज को देखना और अभी जो आप देख रहे हैं (सत्य) उससे इनकार करना। इसका मतलब है कि खुद को और दूसरों को धोखा देना।” यहां ये बात समझना बहुत ज़रूरी है कि सकारात्मकता और संकल्पशक्ति, दो अलग चीजें हैं।
दरअसल, अति सकारत्मकता इंसान के पलायनवादी, भोगवादी सोच का भी नतीजा है। आप उस चीज को देखना या महसूस ही नहीं करना चाहते है, जो अस्ंख्य लोगों, सिस्टम के लिए समस्या खडा करता है। लेकिन, अपनी पॉजिटिविटी की आड में समस्या को नकारना, उस पर बात न करना, समाधान की तरफ न जाना दीर्घकालिक समस्याओं को बढावा देता है। पॉजिटिविटी का लाभ तभी है, जब निगेटिविटी को देखते हुए, इन दोनों के बीच एक संतुलन साधने की कोशिश की जाए।
अति सकारत्मकता उस अफीम की तरह है, जो आपको मदमस्त बनाए रखती है और आप अपने इर्दगिर्द की नकारात्म चीजों पर ध्यान ही नहीं दे पाते। सकारत्मकता की आड में नकारात्मकता को नकारने का अल्प कालिक फायदा तो हो सकता है, लेकिन दीर्घावधि में हमेशा नुकसान ही हाथ आता है/आएगा।
ओशो कहते है, “आपके मुंह में सडा मांस का एक टुकड़ा आ जाता है। उस स्थिति में, आप शायद यह नहीं कहेंगे, “सब कुछ ठीक हो जाएगा!” आप यह स्वीकार करते हैं कि यह खराब है, गलत है और उसे थूक कर बाहर फेंक देते है।” यानी, आप निगेटिविटी को महसूस करते है, स्वीकारते है और फिर पॉजिटिव हो कर समाधान की तरफ बढ जाते है। मनोवैज्ञानिक आज मानते हैं कि नकारात्मक भावनाओं और अनुभवों की वास्तविकता का सामना करना ही अतीत से आगे बढ़ने और स्वस्थ, खुशहाल जीवन की कुंजी है।
नकरात्मकता जीवन का उतना ही बडा हिस्सा है, जितना सकरात्मकता। किसी एक को नकारना खतरनाक है। हां, इनका संतुलन ही समाधान है। न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान के प्रोफेसर गैब्रिएल ओएटिंगेन कहती हैं कि लगातार पॉजिटिव बने रहना आपके लिए बुरा साबित हो सकता है, काउंटर प्रोड्क्टिव साबित हो सकता है। ऐसा उन्होंने 20 साल के रिसर्च के बाद लिखा। उन्होंने लिखा कि हालांकि, पॉजिटिव थिंकिंग से आपको फील गुड हो सकता है लेकिन ये दीर्घकाल में आपको इनेक्टिव और अंडरपर्फॉर्मर बना सकती है। वो कहती है, जितना अधिक लोग पॉजिटिव सोचते है और ये कल्पना करते है कि लक्ष्य को आसानी से पाया जा सकता है, असल जिन्दगी में वे उस लक्ष्य को पाने की कोशिश उतनी ही कम करते है।
रिसर्चर्स ने कुछ कॉलेज स्टुडॆंट्स को अपने क्रश को ले कर विजुअलाइज करने के लिए कहा कि वे अपने विजुअलाइजेशन में तन कैसे रिएक्ट करेंगे अगर किसी पार्टी में उनका क्रश उन्हें दिख जाए। कुछ ने रोमांटिक फैंटेसी की कल्पना की और आसानी से अपने क्रश के साथ घुलमिल जाने की बात कही और कुछ ने माना कि वे अपने क्रश से मिलने ही जा रहे थे कि किसी दोस्त या प्रतिद्वन्दी ने बीच में खलल डाल दिया।
5 महीने बाद, शोधकर्ताओं ने पाया किया कि क्या उन छात्रों ने असल जिन्दगी में सचमुच अपने क्रश को अप्रोच करने की कोशिश की। पता चला, रोमांटिक फैंटेसी वालों ने कभी कोई कोशिश नहीं की थी जबकि दूसरे समूह ने इस दिशा में कदम उठाए थे। मतलब, जिसने काल्पनिक दुनिया में पॉजिटिविटी की हद पार कर ली थी, उन्होंने असल जिन्दगी में ऐसा कुछ करने की जरूरत ही नहीं समझी।
अंत में, मौजूदा कोरोना काल में पॉजिटिविटी की जरूरत है, लेकिन निगेटिविटी को नकारने की कीमत पर नहीं। इसलिए, पॉजिटिविटी के साथ-साथ थोडी निगेटिविटी भी अपने भीतर जिन्दा रखिए। सवाल उठाते रहिए। सवाल उठेंगे तो समाधान की बात होगी। सवाल उठाना लोक तांत्रिक अधिकार भी है और कर्त्तव्य भी। वर्ना आप से अच्छा कौन जान सकता है।