शक और डर के साये में लोकतंत्र

भारतीय समाज भाषा, क्षेत्र, जाति, धर्म, ग्रामीण-शहरी, अमीर-गरीब जैसी तमाम विविधताओं से मिल कर बना है. इन भिन्नताओं हमेशा एक लकीर रही है और समय समय पर ये लकीर हल्की-गाढ़ी होती रही है. लोकतांत्रिक संस्थायें बहुत प्रौढ़ तो नहीं हो पायीं लेकिन न्याय का कोई न कोई दरवाज़ा खुलने की आस ने लोकतंत्र की गाड़ी सत्तर साल खींच दी. सामाज में नैतिकता की शर्म ने बहुत कुछ रोके रखा. अब ये शर्म भी जाती रही.

मसलन गांधी को नकारने वाले और गोडसे को उचित ठहराने वाले थोड़े से लोग हमेशा रहे हैं लेकिन किसी राष्ट्रीय पार्टी के उम्मीदवार की कभी हिम्मत नहीं हुई कि सारे आम गोडसे को राष्ट्रभक्त बता कर गांधी की हत्या को जायज बताये. ऐसा पहली बार हुआ है. गोडसे को महिमा मंडित करने वाली प्रज्ञा ठाकुर से रस्म अदायगी वाला माफीनामा दिला दिया गया लेकिन उनपर कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही न करना आश्चर्य में डालता है.

फर्ज़ कीजिये गोडसे को देशभक्त बताने का बयान कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, डीएमके या किसी भी दूसरी राजनीतिक पार्टी के नेता का होता तो उसकी अब तक पार्टी से छुट्टी हो गई होती. मुझे यकीन है उम्मीदवार रहते हुये भी उस नेता पर पार्टी की गाज़ गिर गई होती. बीजेपी ने ऐसा न कर के बता दिया है कि गांधी और गोडसे पर उसके विचार सबसे अलग हैं.

चुनाव नतीजों को लेकर शक और डर का माहौल:

मोदी के पांच साल के शासन ने भारतीय समाज की भिन्नताओं की लकीरों को दरारों में बदल दिया है. देश की एक बड़ी आबादी जिसमे दलित, पिछड़े, आदिवासी, मुस्लिम, ईसाई, सिख और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय आते हैं में 23 मई को आने वाले चुनाव नतीजों को लेकर एक शक और डर का माहौल है. यानि बहुसंख्य भारत डरी हुई आंखों से 23 मई का इंतज़ार कर रहा है. उसे अपने दिये वोट पर भी यकीन नहीं हो पा रहा है कि वो गिना भी जाएगा कि नहीं.

सत्ताधारी पार्टी को छोड़ कर सभी दल और समाज का एक बड़ा हिस्सा चुनाव आयोग पर विश्वास नहीं कर पा रहा है कि नतीजे वहीं घोषित होंगे जो आए होंगे. चुनाव आयोग ने दो दशकों में बनी साख को एक दम खत्म कर दिया है और वो सत्ताधारी पार्टी के चुनावी एजेंट के रूप में काम कर रहा है.

सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने परंपराओं को तोड़ते हुये खुद ही अवकाश बेंच पर बैठने का फैसला किया है. 25 मई के बाद सरकार बनाने की जोड़ तोड़ ज़ोरों पर होगी जब जस्टिस गोगोई अवकाश बेंच संभाल रहे होंगे. आमतौर पर लोगो को इस खबर से खुश होना चाहिए कि अगर जनादेश को किनारे रख कर सरकार बनाने की कोशिश होगी तो सुप्रीम कोर्ट लोकतंत्र की रक्षा करेगा – पर गोगोई के इस कदम को भी शक की नज़रों से देखा जा रहा है.

राष्ट्रपति हमारे संवैधानिक लोकतंत्र के मुखिया हैं और उनके निर्णय सामान्य आलोचना से परे होते हैं. पिछले राष्ट्रपतियों ने जनादेश का सम्मान करते हुये ही त्रिशंकु लोकसभा में सरकारे बनवायीं हैं. राष्ट्रपति कोविन्द वैसा भरोसा नहीं दे पा रहे हैं. लोग मानकर ही बैठे हैं कि वो मोदी के पक्ष में निर्णय लेने की हर संभावना को तलाशेंगे या दबाव में निर्णय लेने को बाध्य होंगे. पिछले राष्ट्रपतियों ने समय समय पर सरकार से दूरी दिखाने वाले बयान देकर निष्पक्ष होने का भरोसा दिया है. रामनाथ कोविन्द इस परंपरा को कभी भी नहीं निभाते नहीं दिखेे.

इन सभी संस्थाओं पर निगरानी रखने वाला मीडिया सवर्ण हितों की रक्षा के लिए सारी हदे पार करके बेशर्मी से मोदी के साथ खड़ा है. इस मीडिया से भी उम्मीद नहीं है कि वो लोकतंत्र पर अगर कोई संकट आयेगा तो संविधान और जनता के साथ खड़ा दिखेगा.

हार जीत हर चुनाव में होती है. जो दल विफल रहता है उसके समर्थक मायूस होते हैं लेकिन आने वाली सत्ताधारी पार्टी से डरते नहीं हैं. डर और शक का माहौल पहली बार दिख रहा है. ये भी लोकतंत्र की एक बड़ी विफलता है और समय रहते इसका इलाज नहीं हुआ तो लोकतंत्र पर एक स्थाई संकट बना रहेगा.

प्रशांत टंडन

(फेसबुक से साभार)