पंचायत चुनाव 2021: क्या इस बार नई पौध के हाथ जानी चाहिए सियासत की डोर?

ग्राम वाणी फीचर्स
आम तौर पर हमारा बोद्धिक समाज यह मानता है की समज के निर्माण , राजनीती के निर्माण में बुजुर्गों और अनुभवी लोगों का ही योगदान रहा है , लेकिन ऐसा कहते और सोचते समय वह भूल जाते हैं की भारतीय राजनीति का चेहरा जब-जब बदला है, उसके पीछे युवाओं का जज्बा और जुनून देखते बना है , वो चाहे मजदूर आन्दोलन रहा हो, नागरिकता कानून के खिलाफ राष्ट्र व्यापी आन्दोलन रहा हो, रोहित बेमुला की हत्या के खिलाफ आन्दोलन रहा हो या समय समय पर बाजार वाद , उदारिकर्ण और सरकारी संपत्तियों को निजी हांथों में देने के खिलाफ देश के अनेकों कोने से उठी आवाजें हों, गैर बराबरी के खिलाफ आन्दोलन रहा हो , चाहे वह 1970 के दशक में पटना के गांधी मैदान से उठा जय प्रकाश आंदोलन हो जिसे मुख्य तौर पर छात्र आन्दोलन माना जाता है , जिसने नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं को जन्म दिया या फिर दिल्ली के ऐतिहासिक रामलीला मैदान से शुरू हुआ अण्णा आंदोलन, जिसके जरिए दिल्ली की जनता को अरविंद केजरीवाल के रूप में एक अदद नया नेता मिला. दोनों ही आंदोलनों का मुख्य चेहरा भले युवा नहीं था लेकिन यह युवाओं की अपार ताकत और बदलाव की इच्छाशक्ति ही थी जिसने इन आंदोलनों को सफल बनाया. फिर भी युवाओें पर आरोप लगते हैं कि वे राजनीति में बदलाव तो चाहते हैं लेकिन खुद राजनीति में नहीं आना चाहते. हालांकि हाल ही में हुआ एक अध्ययन और कुछ प्रदेशों के स्थानीय निकायों के चुनाव बताते हैं कि अब ऐसा नहीं रहा. बड़ी संख्या में खासकर पढ़े-लिखे और पेशेवर युवा, न केवल राजनीति में उतर रहे हैं बल्कि आज का मतदाता उन्हें खुले मन से स्वीकार भी कर रहा है.
लोकतंत्र की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है पंचायत या निकाय है. यहीं से शुरू होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी. जिसके लिए आगामी कुछ माह में चुनाव होने वाले हैं. बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड और उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनावों की सरगर्मियां तेज हैं. लेकिन बिहार सरकार और चुनाव आयोग ने कोरोना का हवाला देकर चुनाव को टालने की कोशिश में और योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए सरकारी कर्चारी के हाँथ को और मजबूत करने में लगे हैं , कई लोग इसे लोकतंत्र पर खतरा बता रहे हैं , क्योंकि कोरोना के दुसरे लहर जहाँ प्रत्येक दिन 1.5 लाख से जयादा नए मामले आरहे हैं इन सब के बीच पाँच राज्यों में 8 चरणों में चुनाव कराये जारहे हैं तो वहीं पंचायत चुनाव को टालने की कोशिश क्या दर्शाता है , आइये सुनते हैं समस्तीपुर जिले से संजय कुमार बबलू की खास रिपोर्ट जहाँ विपक्ष खास कर माले द्वारा सरकार की मंशा पर सवाल उठाये जारहे हैं . इस बीच जब मोबाइलवाणी ने लोगों से पूछा कि उनका मुखिया कैसा होना चाहिए तो सामुहिक रूप से एक बात सामने आई! जनता चाहती है कि पंचायत चुनाव में युवा हिस्सा लें, वे मुखिया बनें, विकास अधिकारी बनें और गांव में विकास की नई इबारत लिखें… लेकिन ये होगा कैसे?
युवाओं पर बढ़ता भरोसा
आंकड़ों के मुताबिक भारत की करीब दो तिहाई आबादी कोई 41 हजार गांवों में निवास करती है. देश में दो लाख 47 हजार पंचायतें हैं और पंचायती राज संस्थाओं में सीधे चुनाव से आने वाले 30 लाख प्रतिनिधि हैं. एक बार फिर इन प्रतिनिधियों को चुना जा रहा है लेकिन इस बार बात अलग है. ग्रामीण मतदाता चाहते हैं कि उनका मुखिया युवा हो, शिक्षित हो और उसे सरकारी योजनाओं की समझ हो. गाजीपुर से वीरू चंद्रा कहते हैं कि हम गांव के पिछले प्रधानों को देख चुके हैं इससे समझ में आ गया है कि अगर विकास चाहिए तो किसी युवा के हाथ में गांव की कमान सौंपनी होगी. युवा नेताओं के पास अनुभवों की कमी हो सकती है पर संभावनाओं की नहीं. वे गांव के विकास के लिए बेहतर काम कर सकते हैं. उन्हें सरकारी योजनाओं की समझ ज्यादा बेहतर होगी और वे जानते हैं कि इन्हें गांव वालों तक कैसे पहुंचाना है? इसलिए गांव के लोग इस बार युवा सरपंच की मांग कर रहे हैं.
जमुई की मौरा पंचायत के अलखपुरा वार्ड नंबर 11 निवासी परमल यादव कहते हैं कि इस बार प्रत्याशियों में जो युवा प्रत्याशी होंगे, हमारा वोट तो उन्ही को जाएगा. क्योंकि युवाओं से ही उम्मीद है कि वे सरकारी ढर्रे पर काम नहीं करेंगे, उनके पास अपनी सोच होगी. वे गांव के विकास को जिस नजर से देख सकते हैं वैसा कोई और नहीं. अभी हमारे गांव में पीने के पानी और रोजगार की समस्या है लेकिन मुखिया जी इस पर ध्यान ही नहीं देते. जब भी उनसे बात करें, वो सरकार की तरफ उंगली दिखा देते हैं. अब अगर वे मुखिया हैं तो उन्हें ही तो इन समस्याओं के समाधान निकालने चाहिए!
वैसे जनता की नब्ज को समझते हुए इस बार युवाओं ने लोकल चुनाव में अपनी उपस्थिति दिखानी शुरू कर दी है. मप्र और बिहार के बाद अब उत्तर प्रदेश में भी पंचायत चुनाव में युवा चेहरे दिखाई दे रहे हैं. सुल्तानपुर के मझवारा गांव निवासी बृजेंद्र प्रताप सिंह महाराष्ट्र के पुणे से एलएलबी कर रहे हैं. लेकिन पंचायत चुनाव की अधिसूचना जारी होने पर गांव लौट आए। वह ग्राम प्रधान पद के उम्मीदवार हैं. इतना ही नहीं कानपुर देहात के ज्यूनियां गांव निवासी शुभम सिंह चौहान एमएससी की पढ़ाई में छोड़कर चुनाव में उतरे हैं. पंचायत चुनाव में उतरने वाले युवा घर-घर जनसंपर्क करने के साथ ही व्हाट्सएप और फेसबुक के जरिए प्रचार कर रहे हैं.
प्रवासी युवाओं का मिलेगा साथ
अच्छी खबर यह है कि राजनीति में आने के इच्छुक युवा बड़े पैमाने पर गांव, कस्बे और शहरों की स्थानीय राजनीति से अपने राजनैतिक करियर की शुरुआत कर रहे हैं. इनमें गैर-राजनैतिक घराने वालों की भी अच्छी-खासी तादाद है. किसी जमाने में उम्मीदवार में सबसे ज्यादा महत्व अनुभव का हुआ करता था. सीधा मतलब है जितना ज्यादा अनुभव, उतना उम्रदराज नेता. लेकिन पिछले नगरीय निकायों के चुनावों के बाद ये समीकरण बदलता सा दिख रहा है. जनप्रतिनिधियों को प्रशिक्षण देने वाले संस्थान भोपाल स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ गवर्नंस ऐंड अर्बन मैनेजमेंट (एनआइजीयूएम) की मानें तो इस बार सभी प्रमुख राजनैतिक पार्टियों ने ज्यादातर युवा उम्मीदवारों को ही मैदान में उतारने की तैयारी की है. लगभग हर राज्य में पार्टी उम्रदराज चेहरों की बजाए युवाओं की तलाश कर रही है.
ग्राम पंचायत चुनाव में भी मतदाताओं ने अनुभव की बजाए शिक्षा को ज्यादा तवज्जो देना शुरू कर दिया है. मध्यप्रदेश में 5 साल पहले हुए पंचायत चुनावों में उज्जैन जिले के भिड़ावद गांव की सरपंच 21 वर्षीया ऋतु पांचाल को चुना था. एमबीए कर रही ऋतु के परिवार का राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं. पर ऋतु अपने गांव की मुश्किलों को समझ पा रही थी. उसे पता था कि इन्हें दूर करने के लिए क्या किया जाना चाहिए इसलिए वे चुनावी दंगल में उतर गईं. इस बार भी मप्र, झारखंड और बिहार समेत उप्र में युवा शक्ति का जोर दिखाई दे रहा है.
इसकी दूसरी वजह ये भी है कि इन दिनों कोरोना काल के चले अधिकांश युवा अपने गांव अपने घरों में हैं. शहरों में रहते हुए शायद वे अपने गांव की दिक्कतों को इस पहले कभी नहीं समझ पाए होंगे, जैसा कि इस बार हुआ. इसके अलावा गांव लौटने वालों में युवा मतदाताओं की संख्या भी ज्यादा है. बहुत से प्रवासी मजदूर अपने गांव में हैं और इस बार वे गांव में ही आजीविका की तलाश कर रहे हैं. ऐसे में बहुत हद तक यह उम्मीद की जा सकती है कि जनता अपने प्रतिनिधी के तौर पर किसी युवा चेहरे की कल्पना करे. मौरा प्रखंड से से अशोक कुमार मोबाइलवाणी के माध्यम से कहते हैं कि गांव की जनता इस बार युवा मुखिया की उम्मीद लगाए हुए है. हाल ही में सभी ने कोरोना काल में बेरोजगारी को बहुत करीब से देखा है. हमें अब युवाओं से ही उम्मीद है कि वे नए अवसर पैदा कर सकते हैं. फिलहाल जो मुखिया हैं वे मनरेगा तक सीमित हैं, जबकि मनरेगा में भी जेसीबी मशीनों से काम करवा लिया जाता है. ऐसे में गांव के लोगों को रोजगार कहां से मिलेगा. मुखिया हैं, तो उन्हें मनरेगा के अलावा भी तो विकल्प तलाशने चाहिए.
झारखण्ड के जिरीडीह प्रखंड की पंचायत से मुखिया पद के संभावित प्रत्याशी आनंद मुर्मू युवा हैं और वे कहते हैं कि अगर जनता ने साथ दिया तो हम सबसे पहला काम गांव में रोजगार के विकल्प पैदा करने का काम करेंगे ताकि पलायन को कम किया जा सके. कोविड काल के बाद बहुत से लोग अपने गांव वापिस आए हैं अगर सभी के लिए कोई कुटीर उद्योग भी शुरू किया जा सका तो पलायन रूक जाएगा. वे कहते हैं कि गांव का विकास तभी संभव है जब ग्रामीणों को उनके घर में ही काम मिले.
युवाओं को मौके देने के कारण
रोहतास जिला के चेनारी प्रखंड की चिंता देवी कहती हैं कि वर्तमान में जो गांव के मुखिया हैं वे ग्रामीणों की समस्याओं को सुनते तक नहीं, उन्हें दूर कैसे किया जाएगा? मुखिया पर आरोप लग रहे हैं कि नल जल योजना के तहत जो पैसा आया था वो पूरा उनकी जेब में गया. गांव में ना तो नालियां बनीं ना पानी की व्यवस्था हुई. इसलिए इस बार उम्रदराज को अनुभवी मानकर वोट नहीं देंगे. वहीं दूसरी ओर मुंगेर से पंचायत समिति सदस्य रामबरन मंडल कहते हैं कि मुखिया चाहते हैं कि गांव का विकास हो, नए काम हों पर फंड की कमी होती है. लोगों को लगता है कि मुखिया और पंचायत समीतियां कुछ नहीं कर रही हैं पर ऐसा नहीं है. मुखिया की सीट पर चाहे युवा बैठे या फिर बुजुर्ग, काम करने के लिए फंड तो सभी को चाहिए. हमारे गांव में पीने के पानी की समस्या है, जिसे दूर करने की कोशिश कर रहे हैं पर पंचायतों को भी आला अफसरों की मदद की जररूत होती है. जयादातर योजनाओं का अनुसरण और मान्यता तभी मिलती है जब आला अफसर को कमिशन मिल जाए , बगैर कमिशन के एक भी योजना पास नहीं होती .
कुल मिलाकर अगर युवा प्रतिनिधी के हाथ में कमान सौंप दी जाए तब भी उनके लिए चुनौतियां कम नहीं होंगी. हालांकि एक्सपर्ट ये भी कहते हैं कि युवाओं के पास तकनीक की कमान है जो उनके काम आ सकती है. वे योजनाओं के प्रति ज्यादा जागरूक हैं, उनके पास नए आइडिया हैं, समय की कमी नहीं है इसलिए उम्मीद है कि वे केवल फंड के नाम का रोना नहीं गाएंगे. बिहार की बात की जाए तो छह श्रेणी के 2.58 लाख पदों पर इस बार वैसे युवा मैदान में उतर सकते हैं जिनकी आयु 21 वर्ष पूरी हो गयी है. .बिहार में वार्ड सदस्य, सरपंच, मुखिया, वार्ड पंच, पंचायत समिति सदस्य और जिला परिषद सदस्य समेत 6 श्रेणियों के 2.58 लाख पदों पर युवाओं को भी किस्मत आजमाने का मौका मिल रहा है. दरअसल, सरकार ने अब पंचायती राज अधिनियम-2006 के तहत 21 साल आयु पूरी करने वालों को भी पंचायत चुनाव के मैदान में कूदने का प्रावधान कर दिया है. चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार व उनके प्रस्तावक अगर 21 वर्ष के हैं तो वो चुनाव लड़ सकेंगे. यह वो महत्वपूर्ण फैसला है जिससे युवाओं को राजनीति में आने का रास्ता मिल सकता है. भ्रष्टाचारियों को इस पंचायत चुनाव में किसी तरह के पद के लिए अयोग्य भी घोषित कर दिया है. जिस उम्मीदवार को दो से ज्यादा बच्चे हैं वो बिहार पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. ये वे बातें हैं जो ये उम्मीद जगा रही हैं कि जनता युवाओं को मौका दे.
मौका है बदलाव का
गांव सरकार के नाम पर बीते दो दशकों मे गांवों में एक अजीब किस्म की चुनावी हवा चल पड़ी हैं. जिसमे मे गांव के विकास की चिंताएं या सरोकार नहीं हैं. त्वरित लाभ और दीर्घ स्वार्थों की लालसाएं ही दिखती हैं. धनबल का बेलगाम प्रवाह इन चुनावों में सबसे चिन्ताजनक पहलू के रूप में सामने आया है. सरंपच पद के लिए मतदाताओं के बीच तीखा ध्रुवीकरण देखने को मिलाता है जिससे गांव का माहौल भी खराब होता है. पिछले वर्षों में पंचायती राज संस्थाओं को मिलने वाले अनुदान में वृद्धि हुई है और लाखों की मिलने वाली ग्रांट संरपच बनने की होड़ में केंद्रीय आकर्षण बनी हुई है. जिससे पंचायती राज का मकसद ही बदल गया और जनतंत्र की ताकत पर बाहुबल वा धनबल हावी हो गया है. पंचायती राज का रूप बदल कर प्रधान राज ने तो राजनैतिक दबंगई, स्वार्थ और अवसरवादिता के जोर ने ये प्रक्रिया ही उलट दी. गांव के विकास के लिये शुरू की गयी 150 से ज्यादा केंद्र पोषित योजनाऐं कमीशनखोरी के चक्कर मे बेअसर दिखती हैं. इस के चलते गांव का भूगोल तो बदलता जा रहा है लेकिन गांव सिमटता जा रहा है और असली किसान मजदूर बनता जा रहा है. लेकिन तमाम खामियों के बावजूद भी तस्वीर का दूसरा रूख ये है कि जिस तरह पहले मध्य प्रदेश फिर राजस्थान और अब उत्तर प्रदेश मे ग्राम सरकार के चुनावों मे परिपक्यता और जोश दिखा उससे ये कहा जा सकता है कि अपनी कमियों के बावजूद भारत की पंचायती राज प्रणाली को भी शाबासी के दो बोल मिलने चाहिए.
जखनियां प्रखंड खानपुर गाँव के रहने वाले गौरव यादव कहते हैं कि वोट तो युवा प्रत्याशी को ही दिया जाएगा. चूंकि इस बार गांव में नाली, पकडंडी और पानी की समस्या भर नहीं है. बल्कि बेरोजगारी मुख्य मसला है. कोरोना काल के बाद अब लोगों की पहली मांग रोजगार है ना कि नालियां. अगर किसी युवा को पंचायत की कमान सौंपी गई तो वे नए विचारों के साथ काम करेंगे, वे रोजगार के मसले को ज्यादा गंभीरता से लेंगे. रोहतास जिला प्रखंड चेनारी ग्राम सिंपुर से रंजीत कहते हैं कि गांव का विकास इसलिए भी नहीं हो पा रहा है चूंकि मुखिया बनने के लिए शिक्षा की कोई बाध्यता नहीं है. हमारे सामने जो प्रत्याशी होते हैं हमें उन्ही में से चुनाव करना होता है. जबकि इस बार जनता यही उम्मीद कर रही है कि गांव का कोई पढ़ा लिखा युवा सरपंच पद के लिए आगे आए. अगर पढ़ा—लिखा उम्मीदवार होगा तो वे समझेगा कि सरकारी योजनाओं के लाभ क्या हैं और उन्हें कैसे जन जन तक पहुंचाया जा सकता है.
आंकड़ों के मुताबिक नवनिर्वाचित ग्राम प्रधानों में पढ़े-लिखे लोगों की हिस्सेदारी 91.41 फीसदी है. इनमें इंटर तक पढ़े लोगों की तादाद 76.47 फीसदी है जबकि ग्रेजुएट 10.39 फीसदी और पोस्ट ग्रेजुएट 3.61 फीसदी हैं. वहीं गांव सरकार के दर्जनों परूष और महिला प्रतिनिधियों के पास पीएचडी की डिग्री हैं. उम्र के लिहाज से देखें तो उत्तर प्रदेश मे 21 से 35 वर्ष के आयुवर्ग के 35.17% प्रत्याशी विजयी हुए, जबकि 36 से 60 वर्ष की उम्र के आयुवर्ग में 59.38% लोग प्रधान बने हैं. तो वहीं साठ साल से अधिक उम्र के आयुवर्ग के प्रधान महज़ 5.45% बन सकें हैं. पेटरवार प्रखंड से से प्रवीण कुमार कहते हैं कि नेताओं के लिए शिक्षा की बाध्यता होना बहुत जरूरी है. शिक्षा से ही योजनाओं की समझ पैदा होगी. अभी जो मुखिया हैं उनसे जनता इसलिए संतुष्ट नहीं है क्योंकि वे गांव तक योजनओं का सही ढंग से क्रियानंवयन भी नहीं करवा पाए हैं. जबकि इसकी जगह अगर कोई युवा मुखिया होता तो उसके काम करने की ऊर्जा कुछ और ही होती. वैसे राजस्थान और गुजरात में पंचायत चुनावों के लिए शिक्षा की बाध्यता रखी है. ये सब भविष्य की राजनीति के लिए यह अच्छा संकेत है कि गांव के मतदाताओं की दिलचस्पी भी पढ़े लिखे प्रतिनिधि चुनने मे दिख रही है. अगर ऐसे फैसले बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के लिए भी हो जाते हैं कि तो निश्चित ही गांव के विकास को नया आयाम मिल सकता है.
इस लेख के माध्यम से ऐसा बिलकुल न समझें की हम लोकतान्त्रिक व्यवस्था में शिक्षा की अनिवार्यता की दुहाई हम दे रहे हैं , हम अब भी यही मानते हैं की जिस पंचायती राज और ग्रामीण विकास मंत्रालय ने अपनी जिम्मेदारी के तौर पर यह काम अपने जिम्मे लिया था की पंचायत प्रतिनिधि का प्रशिक्षण कर उन्हें योजनाओं और सरकारी काम काज से अवगत कराएँगे , जिसके लिए 7 दिन के प्रशिक्षण कार्यक्रम को जमीं पर लागू करना था , अभियान के तहत कई जगहों से मुखिया , प्रधान से बात करने पर पता चला की यह प्रशिक्षण काफी नहीं था , अन्य प्रशिक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए थी , ग्रामीण मंत्रालय को सोशल ऑडिट जैसे कार्यक्रम में पंचायत प्रतिनिधि और जनता को बढ़ चढ़ कर भाग लेने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए वहां सोशल ऑडिट जैसे कार्यक्रम के नाम पर केवल खाना पूर्ति ही होता रहा.
मोबाइल वाणी के द्वारा सेंटर फॉर सोशल इक्विटी एंड इंक्लूजन (CSEI) और नेशनल यूथ इक्विटी फोरम (NYEF) के समर्थन से बिहार में राष्ट्रीय युवा समता मंच - पंचायत की राजनीति में युवा भागीदारीके लिए एक अनोखा कार्यक्रम शुरू किया गया , जिसका नारा है: गर चुनाव जीतेंगे तो ईमानदारी और जिम्मेदारी निभाएंगे और अगर हारेंगे तो ईमानदारी और जिम्मेदारी सिखायेंगे. इस अभियान के तहत 300 से जयादा श्रोताओं ने यह माना है की युवाओं को पंचायत की राजनीती में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए,
पिछले छः दशकों में जो भी देशव्यापी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन हुए हैं, चाहे वह 1967 का भाषा आंदोलन हो, सम्पूर्ण क्रांति हो, असम का छात्र आंदोलन हो, या एन्टी करप्शन मूवमेंट हो, उसमें युवाओं की भागीदारी रही है. बीते कुछ वर्षों में हमने देखा है की रोज़गार न मिलने के लिए , परीक्षा के बाद नियुक्ति न मिलने की हो या प्रधान मंत्री या मुख्य मंत्री द्वारा रोज़गार का वादा करने पर रोज़गार न देने के लिए प्रधान मंत्री के ट्वीट को नापसंद कर अनेकों ऐसे ट्वीट को ट्रेंड करने में अपनी उर्जा दिखाई है जिससे पता चलता है की युवा राजनितिक रूप से मुखर हो रहे हैं , 2020 में जब बिहार के विधान सभा चुनाव में भी विपक्ष के नेता द्वारा रोज़गार का मुद्दा उठाया गया तो युवाओं का भरपूर सहयोग मिला, इसी का नतीजा हाल ही के सासाराम शहर में जब प्रसाशन द्वारा स्कूल कॉलेज और कोचिंग संस्थानों को कोरोना का हवाला देकर बंद करने के लिए पुलिस प्रसाशन पहुंची तो युवाओं का गुस्सा फूटा ,पुलिस प्रसाशन पर युवाओं ने जमकर पत्थर वाजी की , जिला कलक्टर कार्यालय पर पथराव किया , सभी युवाओं का कहना था की अगर कोरोना में चुनाव हो सकता है तो पढाई भी होगी . युवा ट्रोल और भीड़ बनने के बजाये राजनीति का विकल्प बनना उचित समझ रहे हैं. युवाओं को राजनीति की मुख्यधारा में लाना और निर्णय प्रक्रिया में भागीदार बनाना आज की राष्ट्रीय पार्टी भी जरूरी समझ रही है.