जनता की परेशानी कम कर , उनकी समस्या से सीख लेकर दिशा तय करने से कोरोना जैसी महामारी से पारंगत हासिल किया जा सकता है

राशन की दुकान पर लगी भीड़

लेखक : सुल्तान अहमद

जैसा की हम सब इस बात से सहमत हैं की भारत में कोरोना महामारी का फैलाव विदेशों से हुआ और वह भी वैसे नागरिकों की संख्या ज्यादा पायी गयी की जिनका हाल के ही दिनों में किसी विदेश से आने का इतिहास रहा , सरकार दावे करती रही की वह हवाई अड्डे पर कोरोना के मरीज की जांच करती रही है, किन्तु यह भी सत्य है सबसे पहला कोरोना का मरीज केरल में जनवरी माह में मिला जिसका चीन से आने का इतिहास रहा है , उसके बाद तरीबन 2 माह तक अलग अलग दावे किए जाते रहे हैं कोरोना की रोकथाम को लेकर लेकिन इसी बीच ऐसी खबरें भी आई की रसूखदार लोग अपने पैसे और रुत्वे के बल पर उन्हों ने जांच टीम को ठेंगा दिखया और बगैर जांच के ही हवाई अड्डे से बहार निकल गए और जगह जगह घुमते रहे, उनके संपर्क में आने से कई लोगों को कोरोना का संक्रमण फैला, इसी बीच धार्मिक त्योहारों का भी दौर चलता रहा जो कोरोना के फैलाव में एक बड़ा कारण बना. लेकिन अचानक से 22 मार्च को प्रधानमंत्री ने जनता कर्फ्यू की घोषणा कर दी और फिर उसके बाद 24 मार्च को रष्ट्र के नाम संबोधन में अगले 21 दिन के लिए सम्पूर्ण लॉक डाउन/यानी पूरे भारत में ताला बंदी की गयी, इसी बीच प्रवासी मजदूर जिनका पहले ही शहर में रोज़गार छिन गया था , जिन्हें अब शहर से ज्यादा उम्मीद नहीं रह गयी थी इस 21 दिन के लम्बे लॉक डाउन में अपनी जिंदगी गुजर वसर कर पाएंगे वह सब के सब अपने वतन जहाँ पैदा हुए थे के लिए चल पड़े , कई पैदल तो कई साइकल , रिक्शा , ऑटो चालक ऑटो लेकर तो कई मज़दूर दूध की टंकी और ट्रक में बैठ कर घर के लिए रवाना हो गए.

इसी बीच प्रधान मंत्री कार्यालय , मुख्य मंत्री कार्यालय और श्रमिक कार्यालय से निर्देश आते रहे की अब कोई मकान मालिक अपने किराया दारों से किराया वसूलने की जबरदस्ती नहीं करेगा, कोई कंपनी अपने श्रमिकों और कार्यत स्टाफ को काम से नहीं निकालेगा और उसकी तन्खवाह भी पूरी देनी होगी लेकिन एक सवाल मन में आया की ऐसा करने से पहले क्या इन सभी लोगों से कोई चर्चा की  गयी ऐसे वक्त में वह कैसे अपने श्रमिकों के साथ पेश आएं , जिनके पास धन नहीं हो वेतन देने का वह क्या इंतज़ाम करेंगे , जो मकान मालिक केवल किराया पर ही आश्रित हैं वह अपनी आजीविका कैसे चलाएंगे , नहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ केवल फरमान सुना दिया गया और यह उम्मीद की गयी सब लोग इस आदेश का पालन करेंगे.

कोरोना लॉक डाउन की स्थिति में सबसे ज्यादा जोड़ दिया गया समाजिक दूरियों को बरकरार रखने पर , इसी बीच उत्साह भरने के लिए कभी बालकनी से ताली, थाली और दिवाली मनाने का भी फरमान जारी हुआ और भूल गए की जिस देश में 80 लाख से जयादा लोग बेघर है, 4 करोड़ से ज्यादा प्रवासी 8×12 के कमरे में 5 से जायदा लोग रहते हैं , 1 सौचालय का इस्तेमाल 20 से ज्यादा लोग करते हैं वह कैसे सामजिक दूरियां बरकरार करेंगे, क्या संभव हैं इन सभी लोगों का दिन रात एक कमरे में रहना और बहार न निकल कर कोरोना की लडाई में प्रधान मंत्री का सहयोग करना ,फिर यह कैसे सोच लिया गया की सब लोग बालकनी से खड़े होकर ताली,थाली और दिवाली भी मना लेंगे.

आइए थोडा इतिहास पर नज़र डालते हैं:

लॉक डाउन की वजह से पैदल घर जाते मज़दूर

आप में से अधिकतर साथी जानते होंगे की विश्व में एक नयी सोच का उभार होता है 1980-90 के दशक में और इसे वैश्वीकरण का नाम दिया गया और कहा यह गया की पूरी दुनिया में कहीं भी सामान का उत्पादन होगा और इन सामानों उत्पादों को कहीं भी बेचने के लिए कंपनियों और देशों को आज़ादी होगी, पूँजीपतियों  को कहीं भी किशी भी देश में फैक्ट्री  लगाने की अनुमति होगी , ऐसा करने के लिए उसे व्याज में भी छूट  दिया जाएगा नतीजा यह हुआ की ग्रामीण हस्त करघा, छोटे-छोटे करखानों की हालत ख़राब होती गयी क्यों की उनके पास न तो इतने बड़े मशीन थे और न ही इतनी पूँजी, न सरकार की तरफ से सुरक्षा के इंतज़ाम, सडक ,बिजली पानी की उपलब्धता भी सरकार सुरक्षित नहीं कर पायी  नतीजा यह हुआ की सभी बड़ी कंपनी कुछ  शहरों में सिमट कर रह गयी और ग्रामीण समुदाय को शहर में बेहतर जिंदगी का सपना दिखाया गया , कृषि को सिलसिलेवार तरीके से और एक योजनागत तरीके से मुनाफे का सौदा  न हो इसकी योजना बनायी गयी और ग्रामीण आबादी को मजबूर किया गया की वो बेहतर भविष्य की आस लिए शहर की तरफ पलायन करे जहाँ उसे 2 वक़्त की रोटी मिलेगी ,परिवार को चलाने की उम्मीद भी ,इसी के बाद मजदूरों को सामजिक सुरक्षा का लालच भी दिया गया, जैसे भविष्य निधि के तहत कुछ रकम वेतन से काटा जाने लगा , सरकार नागरिक स्वास्थय पर पैसा कम खर्च कर कंपनी के हांथो में स्वास्थय व्यवस्था को सौंपने लगी और मजदूरों को स्वास्थय सुरक्षा के नाम पर इ एस आई का कार्ड थमा दिया गया और बड़े शानदार गगन चुम्भी शीशे के ईमारत को इ एस आई का अस्पताल दिखा कर मजदूरों को भी एक बेहतर स्वास्थय की उम्मीद दिलाई गयी , न्यूनतम वेतन कानून लाया गया , काम के घंटे तय किये गए ,labour इंस्पेक्टर और कमिश्नर की तैनाती की गयी लेकिन हुआ क्या? मजदूरों को कंपनियों की तरफ से न तो जोइनिंग लैटर जारी किया गया और न ही उसे ऐसी कोई पहचान पत्र दिया गया जिससे बड़े स्तरपर मज़दूर यह साबित कर पाए की वह उसी फैक्ट्री या कंपनी में काम करता था  इसी बीच ठेकेदारी प्रथा भी खूब जोड़ पकड़ी , गाँव से शहरों की ओर मज़दूर को लाने के लिए गिरोह काम करने लगे. जिन मजदूरों ने शहर को बसाया उन्हें झुग्गी झोपडी में रहने के लिए गंदे नालों के किनारे रहने के लिए विवस किया, इनके मतदाता पहचान पत्र तो बना दिए गए लेकिन इनका नाम राशन कार्ड, सामाजिक सुरक्षा के दुसरे योजनाओं में बमुश्किल ही जोड़ा गया.

जब यह लॉक डाउन जारी हुआ तब यह सभी प्रवासी निः सहाय मज़दूर शहर से गाँव की तरफ कूच किया और अपना भविष्य परिवार के साथ ही सुरक्षित महसूस किया इसी उद्देश्य से झूंड के झूंड मज़दूर कोई पैदल कंधे पर बैग , झोला , कपडे का गट्ठर लिए तो कोई महिला गोद में कंधे पर अपने छोटे- छोटे नन्हें नौनिहालों को कड़कती धुप में हायवे पर लेकर चलते हुए नज़र आए जिन्हें मुख्य धारा  की मीडिया तो कभी भारतीय पुलिस ने देश का गद्दार कह कर कोरोना फैलाने के लिए जिम्मदार ठहराने लगा और यहीं से शुरू होता मजदूरों की दुर्दशा.

घर पहुँचने पर क्या हुआ ?

जब यह मज़दूर अपने घर किसी तरह पहुँचते हैं तो उन्हें परिवार और मोहल्ले में शक की निगाह से देखा गया और इन्हें जबरन 14 दिनों तक कोरेंटआईन में रहने के लिए मजबूर किया गया जहाँ न तो इनके लिए अच्छे खाने की व्यवस्था थी और न ही सोने की, कई कोरेंटआईन सेंटर की रिपोर्ट आपने देखि और सुनी भी है की कैसे यह कोरेंटआईन सेंटर मजदूरों के लिए जान लेवा साबित हुआ.  दूसरी तरफ पहले से आर्थिक तौर पर धनाड्य ग्रामीण वासी इन प्रवासी श्रमिकों को अपना दुश्मन समझने लगते हैं और अपनी मौत का कारण भी इन्हें मानने लगते हैं नतीजा बड़े स्तर  पर इनके गाँव पहुँचते ही पुलिस  को फ़ोन करना, इन्हें पकडवाने की हर संभव कोशिश करना, जबरदस्ती गाँव के सभी रास्ते बंद कर देना, प्रवासी श्रमिकों के साथ गाली गलोज आम हो जाते हैं और इन प्रवासी को अपने ही घर में अनजान और अमानवीय जीवन वासर करने पर मजबूर किया जाता है और कहते नहीं थकते हैं की हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं . क्या लोकतंत्र में सरकार और प्रसाशन की जिम्मेदारी नहीं की वह अपनी जनता के साथ बेहतर विश्वास बनाये, उनके द्वारा उठाये  गए कदम और हर एक फैसले को जनता के सामने पारदर्शी तरीके से ले जाए और जनता का विश्वास और सहयोग के साथ सख्त कदम उठाये जाएँ.

पूजीपतियों की चाल:

आब आइए देखते हैं कैसे इन पूंजी पतियों की संपत्ति और रोज़गार को नुक्सान न हो इसके लिए लिए सामजिक संस्थाएं या गैर सरकारी संस्थाएं जिन्हें कभी इन मजदूरों की दुर्दशा पर रहम नहीं आया कैसे इस लॉक डाउन में अचानक राहत के लिए उठ खड़े हुए , गुडगाँव , मानेसर , फरीदाबाद में अचानक गैर सरकारी संस्थाएं राशन बांटने लगती हैं , खाना खिलाने लगती है जबकि मज़दूर चाहते हैं की वो अपने घर जाए. इनमें से कोई भी  संस्थाओं  ने सरकार के साथ या प्रसाशन के साथ किसी प्रकार से इस बात की चर्चा नहीं की कैसे इन्हें घर भेजा जाए , कुछ संस्थाएं हो सकता है की वह निः स्वार्थ  भाव से काम कर रहे हैं लेकिन बड़ी तादाद ऐसी  संस्थओं की है जो इन्हीं कंपनियों के CSR के पैसे से राहत कार्य में लगे थे जो नहीं चाहते की इन मजदूरों को घर वापस भेजा जाये नहीं तो लॉक डाउन ख़त्म होने के बाद या लॉक डाउन के नियमों में नरमी देने के बाद कंपनी को चलाने के लिए मज़दूर कहाँ से आयेंगे ऐसे में कंपनी का नुक्सान होगा और और पूँजी का भी इसलिए मरहम पट्टी करो , दिलासा दो  और और उन्हें अच्छा महसूस कराओ ताकि वह अपने घर न जाएँ और इनके पूँजी के पहिए को फैक्ट्री में घुमाते रहें .

दूसरी तरफ घर वापस लौटे मज़दूर हैं जिन्हें सरकार के हज़ार दावों के बाबजूद राशन नहीं मिल रहा है इस बात का अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं की बिहार में अप्रैल माह के अंत होने को आए हैं लेकिन अब तक केवल 40% राशन कार्ड धरी को ही राशन मिला, आर्थिक मदद तो अब तक पहुंचा ही नहीं, सरकारी स्वास्थय केन्द्रों में आम बीमारी की जांच और इलाज नहीं,महिलाओं का सामान्य जांच नहीं हो रहा , मधुमेह के मरीज को इलाज नहीं मिल रहा है, कुछ दिन पहले दिल्ली से एक खबर आई की एक मरीज को किडनी की बिमारी थी और उसका डायलिसिस बगैर कोरोना की जाँच के अस्पताल नेमना  कर दिया नतीजा यह हुआ की 24 घंटे में उस मरीज की मृत्यु होगयी और उस  मरीज का कोरोना रिपोर्ट  भी नीगेटिव आया , ऐसे कई बीमार हैं जिनकी मौत होरही जिनकी रिपोर्ट हमारे सामने नहीं आरही और हमारी सरकार सार्वजानिक स्वास्थय देने की बात करती है ऐसे में जनता की नाराजगी क्या गैर वाजिब है.

जन धन खाते से पैसा निकालने के लिए बैंक की क़तर में खडी महिलाएं

महिलाएं अपना जनधन खता और पासबुक लेकर बैंकों के शाखाओं का चक्कर लगा रही हैं तो किसान जिनके बैंक खाते में प्रधान मंत्री सम्मान निधि का पैसा आया की नहीं इसके लिए रोजाना अकाउंट अपडेट  करने के वास्ते  बैंक के ब्रांच पहुचन रहे हैं और टक टकी निगाह से बैंक अधिकारी के मूंह से यह सुनने के लिए लालायित हैं  की वह कह दे की आपके बैंक खाते में 2 हज़ार रूपये आगए हैं और आप अब उसे निकाल सकते हैं, कई जगहों पर तो महिलाओं कोसों दूर पैसा निकालने अहुंची तो पोलिस ने उन्हें समाजिक दूरी का  उलंघन बताकर हवालात में बंद कर दिया और निजी दंड भर कर घर वापस आई ऐसे में क्या हम कह सकते हैं हम लोकतंत्र में रहते हैं? जहाँ हर एक नागरिक की सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थय राज्य की जिम्मेदारी है, आज आवश्यकता है आमजन को ध्यान में रख कर उनकी सुविधाओं और असुविधाओं का मूल्यांकन योजनाओं के निर्माण और कार्यान्वयन की जाए जिससे  अधिकतर आबादी योजना का लाभ उठाने में असर्मथ हो , ऐसी स्थिति में आप कभी भी कोरोना जैसी महामारी से निपट नहीं पाएंगे . कोरोना महामारी से पारंगत केवल जनता और सत्ता के बीच विशवास और एक दुसरे के सहयोग से पाया जा सकता है न की सख्त कानून और लॉक डाउन लगाकर , ये न भूलें भारत की जनता आज़ाद भारत में जी रही है न की ब्रिटश शासन काल में जहाँ जो मर्जी हो सरकार फैसला ले सकती थी जैसे  प्लेग जैसे महामारी में घर से जबरदस्ती उठाकर पुलिस  ले जाती थी , जनता में खौफ बैठाने के लिए और उन्हें घर के अन्दर बंद रहने के लिए पुलिस का  मार्च कराती थी  थी और जनता के साथ जबरदस्ती आम बात थी और इसे प्रशासनिक कार्यवाही माना जाता था. आप खुद सोचें अगर आज भी वैसा ही वर्ताव आप के साथ होता हो तो क्या आप सही मायने में आज़ाद हैं?