क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी गुलामी संभव है?

लहर डेस्क की प्रस्तुती
आर्थिक गुलामी इसे ही कहते हैं …लीजिए एक नया फरमान ,अजय भल्ला गृह सचिव , गृहमंत्रालय का सभी मुख्य सचिव को पत्र, इस पत्र के माध्यम से बहूत साफ लिखा गया है कि जो फंसे हुए मजदूर बगैर किसी कारण के घर वापस जाना चाहते हैं उन्हें जाने की अनुमति नहीं होगी, जो मजबूरी बस जाना चाहते हैं ,काम की तलाश में हाल ही में आये थे और फंस गए उन्हें जाने की अनुमति होगी। राज्य के अंदर जाने की अनुमति होगी।

यानी कि एक बात साफ है हम आर्थिक तौर पर पूंजीवादी व्यवस्था के गुलाम होचुके हैं जो नहीं चाहते कि मज़दूर घर जाएं, क्योंकि कल से कई छेत्रों में ढील दिया जाएगा,और यह मज़दूर घर चले जायेंगे तो फैक्ट्री की पूंजी का पहिया कौन घुमाएगा???
इतना कहना ही था की आज एक नया कारनामा सामने आया वह भी कर्णाटक सरकार की तरफ से , जहाँ अगले 6 तारिख को कर्नाटक के बिभिन्न शहरों से ट्रेन प्रवासी मजदूरों को लेकर बिहार, झारखण्ड और अन्य राज्य लेकर जाती वहां अचानक एक फरमान आगया और सरकार की तरफ से पत्र लिखा गया रेल मंत्रालय को जिसमें कहा गया की कर्णाटक से जाने वाली सभी ट्रेनों को रद्द किया जाए. आनन फानन में रेल मंत्रालय ने भी कहना मान लिया.

आप में से कई पाठक यह भी जानते होंगे की यह फैसला अचानक नहीं लिया गया बल्कि इस फैसले से पहले कर्नाटक के मुख्या मंत्री बी एस यदुरप्पा राज्य के बड़े निर्माण उद्योग के उद्योगपतियों से मिलने के बाद फैसला लिया. और कहा गया अब यहाँ कारखाना ,निर्माण कार्य खुल रहा है इसलिए मज़दूर को घर जाने की जरूरत नहीं. क्या यह कदम मज़दूर संगठन या मजदूरों की सहमती से लिया गया? बिलकुल नहीं. आप जानते हैं की किसी भी इंसान की जिन्दगी, आजादी, बराबरी और सम्मान का अधिकार का नाम है मानवाधिकार। भारतीय संविधान इस अधिकार की न सिर्फ गारंटी देता है, बल्कि इसे तोडऩे वाले को अदालत सजा देती है। लेकिन क्या इस फैसले के बाद माननीय उछ न्यायालय और सर्वोच्य न्यायालय कोई गंभीर फैलसा लेगी जो ये साबित करे की देश में अभी संबिधान का राज है और उसे कोई भी शक्ति धूमिल नहीं कर सकता.
अब आइये एक नज़र मानवअधकारों पर भी संक्षेप में दाल लेते हैं: मानव अधिकारों से अभिप्राय “मौलिक अधिकार एवं स्वतंत्रता से है जिसके सभी मानव प्राणी हकदार है। अधिकारों एवं स्वतंत्रताओं के उदाहरण के रूप में जिनकी गणना की जाती है, उनमें नागरिक और राजनैतिक अधिकार सम्मिलित हैं जैसे कि जीवन और आजाद रहने का अधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कानून के सामने समानता एवं आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों के साथ ही साथ सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने का अधिकार, भोजन का अधिकार काम करने का अधिकार एवं शिक्षा का अधिकार.
आप जानते हैं की पहली बार कोरोना संक्रमण से निपटने के लिए 24 मार्च को रात्रि 12 बजे से सम्पूर्ण भारत में लॉक डाउन यानी की ताला बंदी की गयी , जो जहाँ था वहीँ रहगया , कोई अपनों से दूर तो कोई कार्य स्थल पर ही रहने को मजबूर , कुछ ही दिनों बाद कई मजदूरों ने तो पैदल चलना शुरू कर दिया तो कईयों ने ट्रक , साईकल , रिक्सा, बाईक तो कोई टेम्पो लेकर निकल पड़ा अपने गाँव की ओर , अब जब तीसरी बार लॉक डाउन बढाया गया तब गृहमंत्रालय की तरफ से जारी अधिसूचना में मजदूरों या बाहर फंसे लोगों को घर वापस जाने के लिए ट्रेन चलाने की बात कही गयी , जिसपर पहले से कई वबाल चल रहा था ट्रेन की टिकट और किराये को लेकर. इसी बीच नया फरमान जारी हुआ की अब कोई नहीं जायेगा.
घर न जाने दिए जाने और सरकार द्वारा उठाये गए अमानविए फैसले का कई मजदूरों ने निंदा की है , मोबाइल वाणी पर विशेष बातचीत में बंगलौर में रह रहे प्रवासी मज़दूर जो बोकारो जिला के कश्मार प्रखंड के निवासी है सुशिल कुमार जिनकी बात चीत हुई कमलेश जैसवाल से , कहते हैं की वह एल एंड टी में निर्माण मज़दूर है कहते हैं की उन्हें ट्रेन खुलने की जानकारी नहीं मिलती है बगैर पास के किसी को स्टेशन जाने नहीं दिया जाता और साथ में यह भी कहते हैं की कंपनी की तरफ से थाना में सूचना दी गयी है किसी भी प्रवासी मज़दूर का पास न बनाने के लिए, सुशिल कुमार कहते हैं की वह घर जाना चाहते हैं लेकिन उन्हें घर नहीं जाने दिया जारहा है , कंपनी की तरफ से दवाव बनाया जारहा है काम करने के लिए जो उनकी इक्षा के विरुद् है, सम्पूर्ण लॉक डाउन में उन्हें कंपनी और प्रसाशन की तरफ से कोई सहायता भी नहीं मिली.
वहीँ दूरी तरफ राष्ट्रीय मज़दूर कल्याण संघ के महा सचिव नौशाद अली सिद्दीकी की मोबाइल वाणी के रिपोर्टर हसमत अली से साथ हई साक्षात्कार में उन्हों ने बताया सरकार का यह रवैया बहूत खतरनाक है ऐसी व्यवस्था बंधुआ मजदूरी को जन्म देगी और इस पहल की निंदा करते हैं और कहते हैं की भारत सरकार इस मुद्दे पर फ़ौरन संज्ञान ले और मजदूरों को सुरक्षित घर पहुँचाने पर अमल करे.
बंगलौर में रह रहे प्रयाग मंडल की बात होती है दीपक कुमार के साथ और वह बताते हैं की इस लॉक डाउन में पहले से कमाए हुए पैसे से गुजर वसर किया , मार्च माह में 22 दिन काम किया जिसकी मजदूरी ठेकेदार के पास थी वह कभी 100 तो कभी 200 रुपया दिया और उसी से खर्च चल रहा है , सरकार की तरफ से कोई भी सहयता नहीं मिली , बिहार सरकार के आपदा एप पर अपना पंजीयन भी नहीं करा सके क्यों की इन्हें समझ नहीं आता , कुल 25 मज़दूर हैं इनके साथ इनके परिचित उनमें केवल 2-3 लोगों के पास ही स्मार्ट फ़ोन है और वह भी इस प्रक्रिया से अपरिचित हैं. कंपनी और ठेकेदार की तरफ से भी कोई सहयोग नहीं मिला. इनके घर में 6 लोग हैं जिनके जीविका का सारा दारोमदार इनके कन्धों पर हैं अभी घर जाना चाहते हैं क्यों की अगले महीने कृषि कार्य करना है, बटाई पर जमीन लेकर खेती बारी करते हैं जिससे अनाज उपज जाता है और सालों भर खाने की चिंता नहीं होती है , इन्होंने बताया की पिछली बार बटाई पर खेत लेकर धान उगाया था 10 मन धान हुआ जो बाल बच्चे इस लॉक डाउन में भी खा रहे हैं , अगर यह धान नहीं हुआ होता तो आज ऐसी परिस्थिति में इनके बाल बच्चे भूखे मर रहे होते , ना तो पैसा था और न अनाज होता तो घर चलाना आसन नहीं होता , घर जाकर मक्का और दूसरी फसल उपजाना चाहते हैं ताकि परिवार का पोषण सुरक्षित रहे लेकिन सरकार के इस फैसले से यह बहूत आहत हैं और गुलामी की इस जंजीर को तोडना चाहते हैं. इन्हें समझ नहीं आरहा की अगला कदम क्या उठाएं?
एक अहम् सवाल है क्या सामूहिक रूप से मज़दूर वर्ग इस गुलामी की जंजीर को तोड़ पाएंगे ? मानवाधिकार संगठन, मज़दूर यूनियन का अगला कदम क्या होगा? क्या सरकार और कोर्ट पूँजी व्यवस्था बनाये रखने और आर्थिक कमजोरी का हवाला देकर इसी तरह मानव अधिकारों का उलंघन सहती रहेगी? सामाजिक तौर पर आपका अगला कदम क्या होना चाहिए मानवता को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए ? अपनी राय जरूर लिखें….
ऑडियो रिपोर्ट मोबाइल वाणी से साभार