क्या आवश्यक वस्तु अधिनियम से किसान मजदूर बन जायेंगे?

लेखक: रफ़ी अहमद सिद्दीकी

आवश्यक वस्तु अधिनियम से कृषि उत्पादों को हटाने का अर्थ है उसके उत्पादन का कार्पोरेटाइसेशन करना । सरकार का ये कदम कृषि में एक बड़े स्केल के कार्पोरेट उत्पादन, सप्लाई चेन वितरण पर बड़ी कंपनियों का संपूर्ण कंट्रोल और इन कृषि उत्पादों के असीमित भंडारण को प्रेरित करने के लिए है । इसपर केवल उन्हीं पूंजीपतियों का दबदबा रहेगा जिनके पास बड़ी पूंजी है । आवश्यक वस्तुओं में इस अधिनियम के बावजूद भी कालाबाजारी होती थी, पर एक सीमित दायरे में । आज भी आवश्यक वस्तुएं सभी की पहुंच से बहुत दूर हैं और भारत में हर दूसरा व्यक्ति कुपोषित है । पर आवश्यक कृषि उत्पादों की जमाखोरी और कालाबाजारी के लिए अब पूरी छूट मिल गई है । बिना जमाखोरी की छूट के कोई भी बड़ी पूंजी अपना एकाधिकार बाजार में बना ही नहीं सकती है ।

इस कदम से सरकार खाद्य उत्पादन की श्रंखला में विदेशी निवेश लाना चाहती है । विदेशी फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री को घाटे से उबरने के लिए सस्ते श्रम से पैदा सस्ता अनाज चाहिए है । फूड प्रोसेसिंग और कोल्ड स्टोरेज कंपनियों द्वारा बाजार में एंट्री से सबसे पहला काम होगा बड़ी कमर्शियल फार्मिंग को प्राथमिकता । कमर्शियल फार्मिंग से कीमतों की रेस में छोटे और मझौले किसान हारेंगे और मजदूर बन जाएंगे । कृषि बाजार पर जब कुछ कंपनियों का कब्जा होगा तब कुछ इस तरह की तस्वीर भी मुमकिन है कि भारत में पैदा होने वाला आलू मैक्डोनाल्ड की फूड सप्लाई चेन में पहुंचेगा परंतु जिस खेत में वो आलू पैदा हुआ उस पर खेती करने वाले किसान को इतनी मजदूरी भी नहीं मिलेगी की वो हफ्ते में चार दिन आलू खा सके ।

एतिहासिक तौर पर ये सर्वहारा वर्ग के लिए इस तरह सही है की कार्पोरेट एकीकरण और मशीनीकरण से कृषि में जो नये तरीके आएंगे वो समाजवादी क्रांति के बाद पूरे समाज का भला करेंगे और ना ही केवल कुछ मुठ्ठी भर लोगों का । इससे न्यूनतम बाजार मूल्य की लड़ाई लड़ते तथाकथित समाजवादियों को भी शायद समझ आ जाए की अधिकांश छोटे मझोले किसानों का सर्वहारा बनना तो कृषि के कार्पोरेटाइसेशन के साथ होना ही है और उसे बाजार मूल्य नियंत्रण की मजदूर विरोधी मांग से भी बचाया नहीं जा सकता है । खेतिहर मजदूर और शहरी मजदूर के बीच की दूरी अब दूर होगी और दोनों साल के कुछ समय प्रवासी मजदूर भी होंगे ।

सरकार मजदूरों को न्यनूतम समर्थन मूल्य और उसक डेढ़ गुना का वादा करते करते अब आवश्यक वस्तु अधिनियम में ही बदलाव कर डाला , अब बड़ी कंपनियों को आज़ादी है की वह गेंहूँ , चावल, खाने का तेल , चीनी , दाल , दलहन , प्याज और आलू को जितनी मात्र में चाहें , जितने समय के लिए चाहें जमाखोरी के लिए आज़ाद हैं .

अब तक जो दाल , आलू , प्याज गरीबों का सहारा हुआ करती थी वहीँ अब उसकी नज़र से दूर होगा, निजी कंपनियों का कब्जा होगा , क्या अब भी ऐसा नहीं लगता हम धीरे धीरे निजी कमपनियों के गुलाम होते जा रहें हैं , लॉक डाउन का प्रयोग सरकार निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए करती रही और हम भारत वासी अपने घर में बंद रहने पर मजबूर.

लेखक सामजिक कार्यकर्ता हैं ,मुद्रा मंडी और मजदूरी के मुद्दों पर कार्य के दौरान इनकी निगाह और पैनी होती जारही है.