IAS जैसा अधिकारी होने के लिए परजीविता,बेशर्मी और जुएबाज़ी की प्रतिभा विकसित करना ज़रूरी है

लेखक-पदम कुमार

अपवाद हर जगह होते हैं। अपवाद आदर्श नहीं होते।

सरकार की परीक्षाओं का पैटर्न ही ऐसा है जिसमे परजीवी, बेशर्म और जुएबाज़ लोगों को ही चुना जाता है। सरकार ऐसा अनजाने मे नहीं करती है बल्कि पूरे होश-ओ-हवास मे करती है।

एक IAS officer की परीक्षा ये ली जाती है कि वो कितना घाघ है, कितना बेशर्म है, कितना मक्कार है, कितनी परजीविता है उसमे।

एक IAS officer बनने के लिए अपने परिजनों के पैसे से 5 से 10 साल तक कोचिंग सेंटरों मे रट्टा सीखना पड़ता है। किराए के महंगे फ्लैट मे अय्याशी करनी होती है। एक जुएबाज़ की तरह बार बार दाँव लगाना होता है। SSC और अन्य छोटी सरकारी नौकरियों पर कुछ छोटे दाँव भी सुरक्षित करने होते हैं। जैसे लाॅटरी के उतरते चढ़ते ग्राफ़ को देखकर सट्टा लगाया जाता है, उसी तर्ज पर पिछले सालों की परीक्षाओं के परीक्षाओं के प्रश्नों की बारम्बारता को देखकर पेपर लिखने का हुनर सीखना पड़ता है।

तब कहीं जाकर एक घाघ, अय्याश, बेशर्म प्रतिभा निकल कर सामने आती है, जो IAS बन जाता है।
भारतीय IAS की नौकरी कोई नौकरी नहीं है बल्कि रिटारमेंट प्लान है। ऐसा ही कुछ न्यायिक अधिकारी बनने के लिए भी करना पड़ता है।

प्रशासनिक प्रतिभा तो मुंबई के डब्बा वाला भी विकसित किए होते हैं। पुलिस व्यवस्था तो नक्सलबाड़ी के आदिवासी भी विकसित कर लेते हैं। सुप्रीम न्याय की विद्वाता तो जिला न्यायालय का वकील भी विकसित कर लेता है। वित्त व्यवस्था तो दिल्ली के भागीरथ पैलेस के यादव सरनेम वाले लाला भी अच्छा मैनेज कर लेते हैं। निचले दर्जे की सरकारी नौकरियों मे फिर भी नौकरी जैसा कुछ था लेकिन छठे पे कमीशन के बाद ये सब भी 18-25 की उम्र के बाद रिटारमेंट प्लान बन गए।

दुनिया के कई देशों मे प्रशासनिक अधिकारी सीधे विश्वविद्यालयों से उठाए जाते हैं। विश्वविद्यालय मे किसी विद्यार्थी की रिसर्च थिसीस से ही यह अंदाज़ा लगा लिया जाता है कि उसकी प्रतिभा किस दिशा में है। भारत मे रिसर्च लिखने वाले विद्यार्थी को आतंकवादी और परजीवी कहकर हतोत्साहित किया जाता है। अब सवाल ये है कि भारत की सरकार ऐसा करती क्यों है?

भारत मे सरकारें स्वतंत्र कब रहीं हैं। भारतीय सरकारें सदा से पूँजीपतियों की एजेंट रहीं हैं। आज की सरकार तो एजेंट से विश्व पूंजीवाद की वफादार बन चुकी है।

पूँजीपति शुरू से यह चाहते हैं कि सरकारी प्रशासनिक तन्त्र चरमराया हुआ लचर ही रहे ताकि उनके मुनाफ़े पर जनता की नज़र न रखी जा सके। दूसरी तरफ़ सरकारी उद्योग हैं। जहाँ भारी रेवेन्यू पैदा होता है और सारा का सारा जनता के खाते मे जाता है। इसलिए पूँजीवाद की मज़बूती के लिए सरकारी उद्योगों का बदहाल होना बहुत ज़रूरी है।

जब सरकारी उद्योग बदहाल होते हैं, तो एक अच्छा बहाना बन जाता है उन्हें औने पौने दामों यहाँ तक मुफ्त मे उसे हड़प जाने का। मारुति उद्योग जनता के पैसे से शुरू हुआ। जब वह उद्योग अपने पैरों पर खड़ा हो गया, लाभ कमाने की स्थिति मे आ गया, तब वह मुनाफ़ा जनता के खाते मे जाते हुए पूँजीपति कैसे देख सकते थे। Suzuki ने उसे हड़प लिया। Suzuki विश्व पूँजीवाद का एक अगुआ सदस्य है।

इसी तरह रेलवे भी है।
रेलवे पर पहले Tata थी, और अब reliance की गंदी नज़र है। इसलिए रेलवे के स्टाफ़ को धीरे धीरे 25 लाख से नौ लाख कर दिया गया। रेलवे मे घटिया स्लीपर लगाए गये। घटिया लोकोमोटिव लाए गये। घटिया रेलकोच बनाए गये। एक्सीडेंट करवाए गए। फिर भी रेलवे की यूनियनें नज़र रख रहीं थीं इस बदमाशी पर।

छठा और सातवां पे कमीशन लाकर रेलवे की यूनियनों को भ्रष्ट किया गया। कर्मचारियों में उच्च वर्ग का होने का दंभ आ गया। एक सफ़ाई कर्मचारी की जब 50 हजार तनख्वाह होगी तो वो 30-40 हजार महीना कमाने वाले CA, प्राइवेट बैंक कर्मचारी, प्राइवेट ट्रान्सपोर्ट अधिकारी को बेइज्जत नहीं करेगा तो क्या करेगा। इस कारण पढ़े लिखे युवाओं के मन मे सरकारी कर्मचारियों के लिए नफरत अपने आप जाग जाती है।

इतना बहाना काफ़ी है पूरी की पूरी व्यवस्था को खुशी खुशी मुनाफ़ा खोरों के आगे परोस देने के लिए।