होना-होने का एक अर्थ यह भी लगता है

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बातें 1982 की। फरीदाबाद में बाटा शूज फैक्ट्री में मैनेजमेंट और यूनियन के बीच अक्टूबर 1982 में दीर्घकालिक समझौता हुआ। उसमें सेमिऑटोमैटिक लाइनों के स्थान पर ऑटौमैटिक लाइनें स्थापित करना था। एक सेमिऑटोमैटिक लाइन पर एक शिफ्ट में 1660 जोड़ी जूते बनाना निर्धारित था और ऑटौमैटिक लाइन पर 2400 जोड़ी की बात थी। अपर सिलाई लाइनों , जूते असेम्बली लाइनों , चप्पल लाइनों पर काम करते करीब 1500 मजदूरों में काफी नौकरियाँ समाप्त होने पर चर्चायें।

कम्पनी ने ट्रायल सफल घोषित की और वरकरों से निर्धारित उत्पादन करने की कही। मैनेजमेंट , यूनियन, और उनके समर्थक एक साथ।

प्रति ऑटौमैटिक लाइन मजदूरों ने 1200-1300 जोड़ी का उत्पादन दिया। बाटा फैक्ट्री में 15 दिन में पेमेन्ट होती थी , मैनेजमेंट ने कम उत्पादन पर पैसे काटने शुरू किये। वरकरों द्वारा निर्धारित 2400 के स्थान पर 1200-1300 जोड़ी बनाने और मैनेजमेंट द्वारा तनखा काटने का सिलसिला डेढ वर्ष चला।

1985 में बाटा कम्पनी ने ऑटौमैटिक लाइनें उखाड़ी और सेमिऑटोमैटिक लाइनें फिर से स्थापित की।

फैक्ट्रियों में उत्पादन में तब नब्बे प्रतिशत से अधिक परमानेन्ट मजदूर थे , 1990-92 तक यह स्थिति थी।

बाटा फैक्ट्री मजदूर यह कैसे कर रहे थे ? वरकरों ने यह कैसे किया ? इसका हमें पता नहीं चला जबकि बाटा फैक्ट्री में काफी वरकरों से परिचय था और एक तो साथ में मजदूर समाचार भी बाँटते थे। काफी समय तक हमें लगता रहा कि मजदूर छिपा रहे हैं। लेकिन बीस वर्ष बाद भी , रिटायर होने के बाद भी हमें इस पर कोई जानकारी नहीं मिली। मजदूरों ने गुप्त मीटिंगें नहीं की थी , कोई वरकर आगे नहीं आये थे , मिल कर तय करने वाली कोई बात नहीं थी। तो फिर 1500 लोग डेढ वर्ष तक यह कैसे करते रहे ? अबूझ पहेली।

—- बात 1998 की। फैक्ट्रियों में परमानेन्ट मजदूरों के व्यवहारों , अनुभवों , और विचारों के आधार पर 1998 में Self Activity of Wage-Workers : Towards a Critique of Representation & Delegation प्रकाशित की। यह मजदूर समाचार के 1982 से 1996 के दौरान के व्यवहार और विचार की हमारी अपनी आलोचना भी थी। इसके सिलसिले में फिर एक बात सामने आई जो अबूझ पहेली थी।

इतिहासकार टिम मैसन ने जर्मनी में हिटलर की सरकार द्वारा विरोधियों को जेल-निर्वासन , राष्ट्रवाद का ज्वार , युद्ध का दौर, और ऐसे में औद्योगिक उत्पादन तीस प्रतिशत गिर गया था का विवरण दिया था। सैकड़ों मील दूर , हजारों फैक्ट्रियों में , लाखों मजदूरों ने यह कैसे किया ? जर्मनी सरकार के गुप्तचर कुछ पता नहीं कर पाये।

—- बात 2014 की। सऊदी अरब में निर्माण क्षेत्र में ढाई वर्ष काम कर लौटे एक मजदूर ने बताया :
दुनिया में जगह-जगह से आये पाँच-छह हजार लोग। ज्यादातर वरकर भारत, पाकिस्तान, बाँग्लादेश, नेपाल से। डोरमेट्रियों में निवास और बसों द्वारा निर्माणस्थल लाने-ले जाने का प्रबन्ध। लगातार खींचातान टकराव में बदलती रहती है। वर्ष में सात-आठ बार तो कोई भी वरकर निवासों से निकलते ही नहीं। आठ-दस दिन नहीं निकलना भी हो जाता है।सब मजदूर अन्दर ही रहते, बसें इन्तजार में, मैनेजर-इंजीनियर अनुरोध मुद्रा में।
मीटिंग नहीं। प्रतिनिधि नहीं। भिन्न बोली-भाषा। अलग खानपान। फिर यह कैसे करते हैं ? साल में आठ-दस बार कैसे करते हैं ?
अबूझ पहेली।

—- अक्टूबर 2015 की बात। दिन की 12 घण्टे की शिफ्ट के बाद पहले खाना खाया और फिर उल्लास में ग्लोब कैपेसिटर फैक्ट्री का टेम्परेरी वरकर बताने के इन्तजार वाली उत्तेजना में बोला :
परसों साढे दस बजे प्रोडक्शन मैनेजर फैक्ट्री की तीसरी मंजिल पर पहुँचा। हाथ-वाथ धो कर सब मजदूर चाय का इन्तजार कर रहे थे।

साहब भड़क गया। चाय आई नहीं है, काम कैसे बन्द कर दिया ? लन्च एक बजे से है। साढे बारह से कोई वाशरूम जाते देखा तो फौरन गेट बाहर कर दूँगा।

कोई मजदूर कुछ नहीं बोला। अधिकतर वरकर टेम्परेरी हैं।

सवा बारह बजे से एक-दो में मजदूर वाशरूम गये।

प्रोडक्शन मैनेजर साढे बारह बजे आया और वाशरूम वाले गेट के पास खड़ा हो गया। कोई मजदूर उधर नहीं गया। थोड़ी देर बाद साहब ने देखा कि मशीनें बन्द हैं और वरकर बैठे हैं।

पहली लाइन पर प्रोडक्शन मैनेजर : क्या यह अच्छा लगता है ? लन्च एक बजे से है और आप लोग बैठे हो। कोई वरकर कुछ नहीं बोला। दूसरी-तीसरी-चौथी-पाँचवीं-छठी लाइन पर भी यही सब। सातवीं लाइन पर साहब सन्तलुन खो बैठा।

मजदूरों ने कोई मीटिंग नहीं की थी। किसी ने किसी से कुछ कहा नहीं था। फिर सौ से ज्यादा वरकरों ने यह किया कैसे ? बस हो जाता है, दो-चार महीनों में ऐसा हो ही जाता है। फिर अबूझ पहेली।

    अबूझ पहेली पर इधर मनन-मन्थन चलता रहा था। जीव विज्ञान में नये सिरे से प्रश्न उठ रहे थे (Rupert Sheldrake's book, New Science of Life). होना-होने के सन्दर्भ में देखने के प्रयास हो रहे थे। जीव विज्ञान में morphic resonance की बात उभर रही है।

     जीव विज्ञान में अनुसंधान-रिसर्च के लिये करोड़ों की साझेदारी को आवश्यक माना जाने वाली बात होने लगी है। अधिक जटिल सामाजिक जीवन में सात अरब लोगों की आदान-प्रदान में सक्रियता अनिवार्य आवश्यकता लगती है।

    और मजदूरों का होना, वरकरों के होने की अभिव्यक्तियाँ वर्तमान में जीवन्तता को, आशाओं को अच्छा आधार दे रही हैं।

-फरीदाबाद मज़दूर समाचार से साभार