वे शिक्षक हैं …अपने छात्रों और समाज के सामने हाथ नहीं फैला सकते ?

ग्राम वाणी फीचर्स
शिक्षा इस काबिल बनाती है कि हम तर्क सांगत सोच सकें, अपने जैसे अनेकों लोगों में ज्ञान को बाँट सकें और प्रशिक्षित कर आजीविका के और दुसरे आयाम ढूंढ सकें और इस पूरी यात्रा में जो सबसे अहम किरदार है वो होता है शिक्षक! ५ सितम्बर शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता हैं , हम सभी अपने शिक्षक के सम्मान में कसीदे पढ़ते और लिखते हैं लेकिन इस कोरोना काल में बहोत से शिक्षक जिनके अब शिष्य नहीं होंगे , जो होंगे न जाने सिक्षा की आभाव में अब शिक्षक को याद करेंगे या नहीं , आई इस शिक्षक दिवस पर रूबरू होते हैं कुछ शिक्षक से मोबाइल वाणी के साथ चलाये गए अभियान के जरिये.
शिक्षक के सम्मान में बहुत कुछ लिखा—पढ़ा और सुना गया है लेकिन आज जब उन्हें हमारी… हम सबकी जरूरत है तो सब खामोश हैं! कोरोना संक्रमण से बचाव के लिए पूरी दुनिया ने लॉकडाउन को एकमात्र विकल्प माना, जो जायज भी था. भारत जैसे देशों का एक वर्ग इस दौरान काफी मुश्किलों का सामना करता रहा… खैर जो हुआ वो ठीक था पर अब जबकि हालात सुधार की ओर हैं, तो फिर क्यों शिक्षक वर्ग अपनी पहचान को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है?
जहां एक ओर स्कूल—कॉलेज बंद होने से बच्चों की पढ़ाई पर बुरा असर हुआ, वहीं दूसरी ओर इस फैसले ने शिक्षकों से भी उनकी रोजी रोटी छीन ली. डिजिटल पढ़ाई ने कुछ बच्चों को तो फिर से शिक्षा से जोड़ दिया लेकिन बहुत सारे शिक्षक जो डिजिटल नहीं हो पाए उनके पास अब कोई रास्ता नहीं हैं. छोटे गैर सरकारी स्कूल और कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले शिक्षक की वैसी किस्मत नहीं थी जैसी सरकारी और बड़े गैर सरकारी स्कूल के शिक्षक जहाँ छात्र और शिक्षक दोनों डिजिटल हो चले थे. राज्य सरकारें स्कूल खोल दिए जाने का आदेश दे चुके हैं पर कोरोना की मार ने कई स्कूलों को हमेशा के लिए बंद कर दिया और इनके साथ ही लाखों शिक्षक बेरोजगार हो गए. आप यकीन नहीं करेंगे कि खुद को और परिवार को जिंदा रखने के लिए वे कितनी मुश्किलों का सामना कर रहे हैं?
बिहार के जमुई जिले से पूर्व शिक्षक संजीव कुमार कहते हैं कि मैं कई साल से बतौर शिक्षक निजी स्कूल में बच्चों को पढ़ाया करता था. लेकिन जब स्कूल बंद हुए तो प्रबंधन ने सैलरी देना बंद कर दिया, घर कैसे चलाता? इसलिए कुछ जमा पैसे निकालकर किराने की दुकान खोल ली है. दुकान से इतनी आमदनी हो जाती है कि परिवार का पेट भर लूं लेकिन मुझे दुख है कि अब मैं शिक्षक नहीं हूं. संजीव बताते हैं कि उनके स्कूल और आसपास के कई और स्कूलों के शिक्षकों की भी यही हालात है. वो लोग अब नही पढ़ाते, कुछ लोगों ने नया व्यवसाय शुरू कर लिया और कुछ तो ऐसे हैं जो अब गांव जाकर खेती कर रहे हैं. वैसे संजीव कुमार किस्मत वाले हैं, पर जमुई के पूर्व शिक्षक सुबोध कुमार कहते हैं कि स्कूल बंद होने के बाद काम की बहुत तलाश की लेकिन कुछ नहीं मिला. मजबूरी में मैं और कई शिक्षक हैं, जो मजदूरी करने लगे हैं. सुबोध कहते हैं कि अगर घर में कोई बीमार हो जाए तो हमारे पास अब इतने पैसे नहीं है कि उनका ठीक से इलाज करवा पाएं. कोई मदद कर दे तो ठीक नहीं तो बस किसी तरह काम चल रहा है, बस.
गौरतलब है कि इसी साल आई प्राइवेट स्कूल्स ऑफ इंडिया सेक्टर रिपोर्ट में यह बात साफ हुई है कि देश भारत में अलग-अलग स्कूलों में कुल 24 करोड़ 71 लाख 27 हजार 331 स्टूडेंट्स हैं. इन 24 करोड़ में से 8 करोड़ 73 लाख 82 हजार 784 स्टूडेंट्स निजी गैरसहायता प्राप्त स्कूलों में पंजीकृत हैं. खासबात ये है कि इन आलीशान निजी स्कूलों की इमारतों में बच्चों को पढ़ाने के लिए माता पिता एक साल में करीब 1.75 लाख करोड़ रुपये खर्च करते हैं. खास बात ये है कि इस आंकडे में कोविड काल के दौरान भी कोई गिरावट नहीं आई. यानि सुप्रीम कोर्ट कहता रहा कि फीस आधी कर दो, पर प्रबंधनों ने एक ना सुनी. ऐसे में सवाल ये है कि अगर स्कूल प्रबंधन अभिभवकों से फीस ले रहे हैं तो फिर शिक्षकों को बेरोजगार क्यों किया जा रहा है? इस मामले पर एक व्यंग्यात्मक उदाहरण मध्यप्रदेश सरकार ने पेश किया है. असल में यहां सरकार ने अतिथी शिक्षकों को स्कूल आने से मना कर दिया है. तर्क ये दिया जा रहा है कि अभी स्कूलों में बच्चों की संख्या कम है इसलिए अतिरिक्त शिक्षकों की जरूरत नहीं है. अब इस आदेश से खफा शिक्षक भोपाल समेत अलग—अलग जिलों में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. हालांकि उनके प्रदर्शन का सरकार पर कोई असर होता नहीं दिख रहा. सोचिए ये हाल उन शिक्षकों का है, जिन्होंने बीएड किया, एमएड किया और फिर शिक्षा जगत में करियर की शुरूआत की थी. सरकारी स्कूलों में पढ़ाया तक है. उत्तर प्रदेश, बिहार, झारंखड जैसे कई और राज्यों में संविदा शिक्षकों के साथ ही सरकार यही रवैया अपना रही है. जब आधे सरकारी शिक्षकों का ये हाल है तो फिर निजी शिक्षकों पर सरकार कितना ध्यान देगी?
बिहार से शिक्षाविद रवि रंजन ने मोबाइलवाणी के साथ चर्चा में कहा कि सरकार कोविड महामारी के लिए तैयार नहीं थी, ये बात मानते हैं पर जब अरबों रूपए का राहत पैकेज जारी हुआ तो उसमे शिक्षा के क्षेत्र पर एक रुपया खर्च नहीं किया गया. हमारे आम बजट में भी शिक्षा का हिस्सा सबसे कम होता है. सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को तनख्वाह मोटी मिलती है पर निजी स्कूलों का क्या? सरकारी स्कूलों में फीस कम है, इमारतें छोटी हैं, ज्यादा व्यवस्थाएं नहीं हैं फिर भी यहां के शिक्षक अच्छा—खास कमा लेते हैं. वहीं दूसरी ओर निजी स्कूलों की इमारतें चमक रहीं हैं, मोटी फीस वसूली जा रही है पर शिक्षकों को तनख्वाह के नाम पर चंद रुपए थमा दिए जाते हैं. कोविड के समय तो ये भी बंद हो गया. दुख इस बात का है कि राहत पैकेज में भी निजी स्कूलों के शिक्षकों के हिस्से कुछ नहीं आया. सरकार ने लोन बांटे, कर्ज दिए पर उससे कितनों को फायदा हुआ? इससे तो अच्छा होता कि सरकार नौकरी के नए अवसर पैदा कर दे, ताकि जो शिक्षक स्कूलों से दूर हो गए हैं वे कम से कम गुजर बसर तो कर पाएं. वैसे इस तरह की मांगे और भी कई जगहों से उठ रही हैं. कोचिंग संचालक आए दिन सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. लेकिन इससे उनकी आर्थिक स्थिति में तो कोई सुधार नहीं हो रहा है.
रिपोर्ट में बताया गया है कि प्राइवेट स्कूल सेक्टर करीब 23 बिलियन डॉलर का है. इसकी तुलना अगर ई-कॉमर्स से की जाए तो ये इंडस्ट्री 24 बिलियन डॉलर की है. अगर प्राइवेट स्कूलिंग में केजी से हायर स्कूलिंग कोचिंग तक सभी कुछ जोड़ लिया जाए तो ये इंडस्ट्री करीब 68 बिलियन डॉलर की हो जाती है. वो भी केवल भारत में. यानि व्यवसाय के नजरिए से शिक्षा फायदे का सौदा है. हर साल इसमें इजाफा हो रहा है. साल 1993 में 9.2 प्रतिशत बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे थे और 2017 तक ये आंकड़ा तेजी से बढ़कर 34.8 फीसदी तक पहुंच गया. वहीं सरकारी स्कूलों से इसकी तुलना करें तो इसमें भारी गिरावट देखने को मिली. सरकारी स्कूलों में 1993 में 70.8 प्रतिशत बच्चे पढ़ते थे लेकिन ये आंकड़ा 2017 तक आते-आते 52.5 प्रतिशत तक सिमटकर रह गया. यानि अगर सरकारी स्कूल मुंह के सामने भी है तो भी परिजन बच्चों को किसी भी तरह निजी स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश करते हैं, फिर चाहे जितनी भी फीस देनी हो.
2019-20 के लिए यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इंफॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन प्लस (यूडीआईएसई+) की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि कि निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों के मुकाबले सरकारी स्कूलों में शिक्षकों का अनुपात काफी कम है. ऐसे में साफ है कि कोविड काल में यहां बेरोजगारी का प्रतिशत भी अनुमान से कहीं ज्यादा होगा. निजी स्कूल के एक शिक्षक ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात कही पर उन्होंने नाम बताने से इंकार कर दिया. इसकी वजह ये है कि वे एक प्रतिष्ठत निजी स्कूल के शिक्षक थे, छात्रों के बीच काफी पापुलर भी थे. शिक्षक होने के कारण उनका बहुत नाम था, लोग सम्मान करते थे पर जब से स्कूल बंद हुए वो रोड पर आ गए. काम की बहुत तलाश की पर कुछ नहीं मिला. कुछ दिन रिश्तेदारों ने मदद की कुछ दिन दोस्तों से मदद ली पर ऐसा कब तक चलता. अब आखिर मंडी में काम कर रहे हैं, वो भी थोक सामान दुकानदारों को बेचने का. वे कहते हैं कि जब पहले दिन ये काम शुरू किया तो बहुत शरम आई. जो लोग पहचानते थे, वो सब घूर के देख रहे थे. आज भी कहीं जाते तो यही प्रार्थना करते हैं कि कोई पहचा वाला ना मिल जाए. उनकी बात से साफ है कि शिक्षकों की हालत दयनीय होती जा रही है. बहुत से ऐसे शिक्षकों ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड की है, जो मजदूरी कर रहे हैं, सब्जी का ठेला लगा रहे हैं या फिर घर—घर जाकर सामान बेच रहे हैं. वे अपना नाम पता नहीं बता सकते, क्योंकि उन्हें शर्म आती है. पर क्या करें, पेट तो पालना ही है.
देश के तमाम स्कूलों में करीब 97 लाख टीचर नियुक्त हैं. इनमें से 49 लाख से कुछ अधिक शिक्षक सरकारी स्कूलों में, आठ लाख सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों में, 36 लाख निजी स्कूलों में और शेष अन्य स्कूलों में कार्यरत हैं. नई रिपोर्ट पर यकीन करें तो निजी स्कूलों के 20 लाख से ज्यादा शिक्षक अब बेरोजगार हैं. इसके अलावा जो कोचिंग संस्थानों के शिक्षक थे उनकी बेरोजगारी का तो कोई आंकलन ही नहीं हो पाया है. इस बीच देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 लागू कर दी गई है. कोविड के बहाने छात्रों को डिजिटल शिक्षा से जोड़ दिया गया. लेकिन जो शिक्षक खुद को डिजिटलाइज नहीं कर पाएं हैं उनके पास तो अब आगे के लिए भी कोई विकल्प नहीं बचा है. गिद्धौर के शिक्षक धनंजय कांत कहते हैं कि मैं तो किसी तरह अभी भी कुछ बच्चों को घर—घर जाकर कोचिंग दे रहा हूं लेकिन मेरे साथियों को यह काम भी नहीं मिल पाया. बहुत सारे साथी स्कूल बंद होने के बाद गांव लौट गए. जिनको खेती आती है वो कर रहे हैं, जिन्हें नहीं आती वो मनरेगा में काम कर रहे हैं, कुछ ने तो ठेले लगाकर सब्जी बेचना शुरू कर दिया है. राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 यानि पीटीआर के हिसाब से कुल स्कूलों में से 30 प्रतिशत स्कूलों में ही कम से कम एक टीचर को ही कम्प्यूटर चलाना और क्लास में उसका इस्तेमाल करना आता है. 2016 में तत्कालीन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के बारे में संसद में रिपोर्ट पेश की थी जिसके अनुसार देश में एक लाख स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक शिक्षक तैनात है. इसमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तराखंड के हाल सबसे बुरे बताए गए थे. नई रिपोर्ट एक तरह से पुराने हालात को ही बयान करती है. वैसे सार्वभौम प्राइमरी शिक्षा के सहस्राब्दी लक्ष्य पर यूनेस्को की 2015 की रिपोर्ट ने भारत के प्रदर्शन पर संतोष जताया था. लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता और वयस्क शिक्षा के हालात अब भी दयनीय हैं. करीब 21 साल पहले 164 देशों ने सबके लिए शिक्षा के आह्वान के साथ इस लक्ष्य को पूरा करने का संकल्प लिया था. लेकिन एक तिहाई देश ही इस लक्ष्य को पूरा कर पाए हैं.
कोविड में भारत के निजी स्कूलों की स्थिति खराब हुई और शिक्षक अब बेरोजगार हैंं. लॉकडाउन खुलने और स्कूलों की दोबारा शुरूआत हो जाने के बाद भी अधिकांश स्कूलों में शिक्षकों की वापिसी नहीं हो रही है. वजह ये है कि प्रबंधन को कोविड की तीसरी लहर आने का डर है, अगर स्कूल दोबारा बंद हुए तो वे इस बार स्थितियां सम्हाल नहीं पाएंगे. दूसरी बुनियादी दिक्कत है कि अब बच्चों को डिजिटल शिक्षा पर निर्भर किया जा रहा है. ऐसे में प्रायमरी और मिडिल क्लास के वे शिक्षक जो एक साथ कई विषयों का ज्ञान दे सकते हैं वे एक दिन में कई क्लास के लिए वीडियो बना रहे हैं, ऐसे में बाकी शिक्षकों की जरूरत ही खत्म हो गई. मध्यप्रदेश के शिवपुरी से रिचा ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड की. वे कहती हैं कि मैं सालों से स्कूल में पढा रही हूं लेकिन कोविड के बाद से घर पर बैठ गई. मेरी तनख्वाह से घर में आर्थिक मदद हो जाती थी पर अब नहीं हो पा रही. मैंने घर सम्हालने के लिए सिलाई सीखी और अब अगर कुछ काम आ जाता है तो कर लेते हैं, नहीं तो हाथ खाली हैं.
झारखंड के बोकारो के नावाडीह के सरस्वती शिशु मंदिर भेंडरा के प्राचार्य लोकनाथ महतो कहते हैं कि दो साल होने जा रहे हैं, स्कूलों में ताले लगे हैं. छात्र तो ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर ही रहे हैं पर शिक्षकों के पास कोई काम नहीं बचा. यकीन नहीं करेंगे कि कई शिक्षक तो पूर्व छात्रों से आर्थिक मदद की उम्मीद लिए बैठे हैं. हर कोई बच्चों की पढ़ाई को लेकर परेशान हैं, हम भी हैं पर हमारी दिक्कतों पर बात करने वाला कोई नहीं. शिक्षक समाज का सम्मानीय पद है. कितनी अजीब विडंबना है इनके साथ, ये अपनी गरिमा के चलते किसी से मदद नहीं मांग सकते. सरकारी राशन की लाइन में नहीं लग पाते, जब कोई दानवीन खाना बांटने आता है तो वे हाथ नहीं फैला पाते… क्योंकि वे शिक्षक हैं! उन्होंने हमेशा ही अपने छात्रों को आत्मसम्मान से जीने की सीख दी है अब इस मुसीबत के वक्त में खुद उसे कैसे भूल जाएं?