राबिनहुड या बाहुबली आप तय कीजिये

रिज़वान रहमान
शहाबुद्दीन बाहुबली था, उसने मर्डर करवाए , पॉलिटिकल किलिंग की, जेएनयू के चंदू को भी मरवाने का आरोप है जिसके लिए मेरी भी आलोचना है. लेकिन शहाबुद्दीन कम्यूनल नहीं था. उसने कभी दंगा नहीं करवाया. धर्म और जाति के नाम पर हिंसा नहीं की. जब तक वह अपनी मजबूती में रहा, सीवान के लैंड लॉर्डस(उच्च जाति) उससे डरते थे। वे शहाबुद्दीन नाम के खौफ से गरीब-मजलूम और निचली जाति के लोगों को सताते नहीं थे। लेकिन बाद में शहाबुद्दीन के कमजोर पड़ते ही, इन सवर्ण जमीनदारों ने बीजेपी से हाथ मिला लिया।
लालू के जिस राज को मनुवादी मीडिया में जंगल राज कहा गया, शहाबुद्दीन के सीवान में प्रभावशाली रहते हुए, वही महिलाओं के लिए मंगल राज था। उस समय महिलाएं दिल्ली की सड़कों पर अकेले देर रात आज़ाद नहीं घूम सकती थी, लेकिन वे आज़ाद-अकेले सीवान में घूमती थीं। तब किसी की मज़ाल नहीं होती कि उन्हें टोक भी दें।
दुनिया कहती है वह आतंक का नाम था लेकिन सच यह भी की वह रॉबिनहुड था। उसके इलाके में डॉक्टर्स की फीस कभी 50 रुपए से अधिक नहीं रही। इसमें कुछ लोगों की आपत्ति होगी कि बाहुबली को रॉबिनहुड बता उसका महिमामंडन न किया जाए। ये बिल्कुल ठीक बात भी है। लेकिन ‘रॉबिनहुड बाहुबली’ की आलोचना से पहले सरकार की आलोचना करनी होगी। हमें कहना होगा कि सरकारें अपनी पॉलिसी में इतनी नाकामयाब है की उस खाली जगह को भरने के लिए रॉबिनहुड पैदा होते हैं।
पिछ्ले साल कोविड फ़र्स्ट वेव में दुनिया भर के देशों में लॉकडाउन लगा। उन देशों में भी लगा जहां माफिया सबसे ज्यादा हैं, मसलन इटली, ब्राजील और मैक्सिको। लॉकडाउन के बाद देखा गया कि सरकार ने गरीबों को उनकी हालत पर छोड़ दिया था। उनके खाने की चिंता नहीं की गई। तब मैक्सिको जैसे देश की सड़कों पर खाने के पैकेट्स बंटने लगे। उन पैकेट्स पर अलग-अलग माफिया गिरोह के मुहर थे।
भारत में भी एक साल से सोनू सूद सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव हैं। लॉकडाउन में फंसे लोगों को घर पहुंचाने से लेकर उनके खाने-पीने और इस सेकेंड में दवा-ऑक्सीजन के इंतज़ाम में लगे हुए हैं। लेकिन यही सोनू सूद ‘कोबरा पोस्ट’ के एक स्टिंग ऑपरेशन में लोकसभा चुनाव 2019 के लिए पैसा लेकर “खास पॉलिटिकल पार्टी” के पक्ष में माहौल बनाने को तैयार थे। लेकिन इस क्राइसिस में जब सरकार जनता को बेमौत मरने के लिए छोड़ चुकी है, थके-हारे लोग उसी सोनू सूद से गुहार लगा रहे हैं। चहुं ओर उनकी काफी तारीफ भी हो रही है।
चंदू की हत्या के आरोप और उसके बाद बने राजनितिक परिदृश्य को देखें तो एक चीज़ सामान्य है चंदू को लेकर हुए प्रोटेस्ट को सीपीआई (एमएल) की कविता कृष्णण लीड कर रही थीं और बिहार में हुए हालिया चुनाव में भी वही फॉर फ्रंट पर थीं। क्या तब किसी ने उनसे सवाल पूछा कि वो गठबंधन में क्यों है? उस पार्टी के साथ गठबंधन में जिसके नेशनल एग्जेक्यूटिव मेंबर शहाबुद्दीन रह चुके हैं? क्या किसी ने पूछा कि उस पार्टी के साथ गठबंधन में क्यों हैं, जिसके सुप्रीमो लालू प्रसाद के राज में चंदू की हत्या हुई? क्या किसी ने पूछा कि उस पार्टी के साथ गठबंधन क्यों, जिसके एक पूर्व सांसद और लालू यादव के रिश्तेदार साधू यादव ने ओपेन फायरिंग की
शहाबुद्दीन पर बोलने के लिए कई लेयर्स हैं जिसे खोलने होंगे। सिर्फ यह कह देना की वह ‘आतंक का नाम था’, काफी नहीं होगा। उसे कटघरे में खड़ा करने के लिए उसके साथ के लोग और आज की लेफ्ट पार्टी को भी कटघरे में लाना होगा। बिहार में तमाम लेफ्ट पार्टी क्या कर रही हैं? क्या गठबंधन से पहले आरजेडी ने माफ़ीनामा जारी किया था? क्या तेजस्वी ने माफी मांगते हुए कहा कि हम चंदू की हत्या और साधू यादव द्वारा प्रोटेस्टटर्स पर ‘ओपेन फायरिंग’ के लिए माफी मांग रहे हैं। अगर कोई सिर्फ शहाबुद्दीन पर बोल रहा है और दूसरों पर चुप है, तो मेरी उनसे कोई सहानुभूति नहीं है।
अब ये सब अपने मुताबिक तय कर लें कि इनमें गलत क्या था और सही क्या था। ये जो तीनों घटनाए हैं, अलग-अलग नेचर की हैं। इन तीनों में सरकार की पॉलिसी गरीब मजलूम के विपरीत दिख पड़ रही है। तीनों के केंद्र में व्यक्ति विशेष है जो अपने स्तर से उस खाली जगह को भर रहा है जिसमें सरकार और व्यवस्था को होना था। लेकिन सरकारें जनविरोधी हैं जिसकी वजह से समय-समय पर कोई न कोई रॉबिनहुड जैसा उभर कर गरीब-मजलूम का हाथ पकड़ लेता है। ये और बात है कि रॉबिनहुड के हाथ खून से भी रंगे हो सकते हैं, वह ड्रग डीलर भी हो सकता और दलाल भी।