राजधर्म में जनता का कल्याण और सुख सर्वोपरि

प्रेमकुमार मणि

आज बुद्ध पूर्णिमा है , मेरे पिता जी की चौदहवीं पुण्यतिथि है और किसानों के संघर्ष के छह महीना पूरा होने पर उसे समर्थन स्वरुप देश भर में प्रतिरोध दिवस मनाया जा रहा है। मौसम को बंगाल की खाड़ी के तूफ़ान ने अस्तव्यस्त कर दिया है सो अलग। लॉक डाउन है इसलिए दिन भर घर में ही रहना होता है। शाम को बैठा ,तब सोचा आज के दिन को कैसे मनाऊँ। पिताजी को अपनी तरह से याद किया। और सोचा आप मित्रों को जातक की एक कथा सुनाऊँ।

यह इसलिए कि महामारी में हमारे शासकों का एक ऐसा गैरजवाबदेह चेहरा सामने आया है ,जिससे सब हैरान हैं। ऐसा माना जाता है कि जिम्मेदार शासक की बात केवल लोकतान्त्रिक ज़माने में हुई। लोकतान्त्रिक रिवाजों के पूर्व जब राजतंत्रीय शासन प्रणाली (मोनोक्रेसी) थी ,तब राजा निरंकुश और स्वेच्छाचारी होते थे। लेकिन जो साहित्य हमें उपलब्ध हैं ,उसकी समीक्षा करें ,तो उन दिनों भी राजा से जन- प्रतिबद्धता की अपेक्षा की जाती थी और अनेक राजा ऐसा थे भी। मैं इस चर्चा में अधिक न जाकर जातक की कथा पर आता हूँ।

जैसा कि आप जानते हैं ,जातक कथाएं बौद्ध वाङ्ग्मय त्रिपिटक का एक हिस्सा है ,जो अपने मूल में पालि भाषा में उपलब्ध है। इसमें बोधिसत्वों की कथा है। बौद्ध परंपरा में बोधिसत्व सम्यक सम्बुद्ध की पूर्व स्थिति है। इसे उम्मीदवार बुद्ध कह सकते हैं। बोधिसत्व ही बुद्ध बनते हैं। जातक कथाएं अपनी संख्या में कोई 547 हैं। सब में भरपूर कथातत्व हैं। नीति शिक्षा भी है। इन सबका अध्ययन वाकई दिलचस्प होगा। मैं यहाँ बस एक महाकपि जातक की कथा रख रहा हूँ ,जिसे मैं इनदिनों प्रासंगिक मान रहा हूँ।

बोधिसत्व इस बार बंदरों के राजा के रूप में अवतरित होते हैं। ऊपरी हिमालय में गंगा के किनारे आम का एक विशाल गाछ था ,जिस पर अस्सी हजार बंदरों का राजा निवास करता था। आम का गाछ असाधारण था। उसके फल विशिष्ट गुण और स्वाद के होते थे। बंदरो के राजा की हिदायत थी कि कोई फल नदी में नहीं गिरने पावे। ऐसा होने पर बहते हुए उसे नीचे की बस्तियों में जाने का भय बना रहता। कपिराज को मालूम था कि ऐसा होने पर वह मनुष्यों के हाथ लग सकता है। यदि मनुष्यों ने इसका स्वाद चख लिया तो वे ढूंढते हुए यहाँ तक पहुँच जाएंगे और फिर हमारा ठिकाना ख़त्म कर देंगे।

लेकिन बन्दर कितनी हिदायत मानते। असावधानी से आम का एक फल नदी में जा गिरा। फिर वह बहते हुए बनारस आया ,जहाँ उन दिनों राजा ब्रह्मदत्त राज करता था। राजा प्रतिदिन सुबह गंगा – स्नान करता था। एक रोज जब वह स्नान कर रहा था ,तब उसने देखा एक सुनहले रंग का फल नदी में तैर रहा है। मछुआरों ने अपने जाल द्वारा उसे निकाला और राजा को समर्पित किया। विशेषज्ञों ने बताया यह फल और कुछ नहीं , आम का एक प्रकार है ,जो ऊपरी हिमालय में होता है। राजा ने जब आम का स्वाद चखा तो वह वह अभिभूत हो गया। आज तक इतना स्वादिष्ट कोई फल उसने नहीं खाया था। उसने हर हाल में उस आम्र वृक्ष तक पहुँचने की ठान ली। अपने विशिष्ट नाविकों और सैनिकों की एक टुकड़ी लेकर गंगा की उलटी धारा में वह चला।

न तो कई लगे ,लेकिन आख़िरकार वह उस गाछ तक पहुँच गया ,जिस पर पके- गदराए सुनहले आम हजारों की संख्या में लटके हुए थे। पहुँचते शाम हो गई थी ,इसलिए राजा अपने सैनिकों के साथ पेड़ के नीचे ही रुक गया। निर्णय हुआ अहले सुबह फलों को तोडा जाएगा। बंदरों ने राजा बनारस और उसके लोगों को देखा तो चिंतित हुए। उसे अपने मुखिया की हिदायतों का ख्याल हुआ। उनकी गलती से कोई फल गिरा और उसका स्वाद चख राजा यहाँ पहुँच गया। भविष्य में अब उन्हें शायद ही ये फल मिलें।

उन्होंने तय किया कि सभी फलों को जल्दी -जल्दी खा लिया जाय ,या नष्ट कर दिया जाय। किसी भी सूरत में मनुष्यों को फल हासिल नहीं होना चाहिए। इसके बाद बंदरों ने कोलाहल मचा दिया। राजा ने जब यह देखा तब धनुषधारी सैनिकों को आदेश दिया कि पूरे वृक्ष को चारों ओर से घेर लो , रात में तो सैन्य कार्रवाई नहीं होगी ,लेकिन सुबह होते ही सभी बंदरों को मार गिराना है।

अस्सी हजार बंदरों का राजा चिंतित हुआ। इन अस्सी हजार में मादा ,बच्चे और ऐसे नाबालिग थे ,जो किसी भी तरह नदी नहीं छलांग सकते थे। येनकेन वह नदी के दूसरे छोर पर गया। वहाँ बाँसों के खूब घने लम्बे पेड़ थे। एक सबसे लम्बे बाँस को उसने चुना। उसे पकड़ कर वह उसकी फुनगी तक गया और फिर दूसरे किनारे की ओर झुक गया। उसका अनुमान था यह बाँस निश्चित ही आम के उस गाछ तक पहुँच जाएगा ,जहाँ उसकी फुनगी को बाँध कर दूसरी ओर जाने केलिए एक कामचलाऊ पुल वह बना देगा।

लेकिन अफ़सोस ! बाँस हाथ भर छोटा पड़ गया। अब क्या हो ? कपिराज ने फ़ौरन निर्णय लिया। उसने पैरों से बाँस की फुनगी को कस कर जकड़ लिया और अपने हाथों को बढ़ा कर आम गाछ की एक शाखा पकड़ ली। अब दूसरे छोर तक जाने केलिए एक कामचलाऊ पुल बन गया था। उसने अपने साथियों से कहा जल्दी -जल्दी उस किनारे पहुँच जाओ। तेजी से बंदरों की टोलियां अपने राजा की पीठ पर चढ़ते हुए चीटियों की तरह क्रमबद्ध नदी के दूसरे किनारे पहुँच गईं। केवल एक बंदर बचा रह गया। वह कोई साधारण बन्दर नहीं था। वह देवदत्त का पूर्व रूप था। बुद्ध और देवदत्त साथ -साथ पैदा होते हैं। जैसे गांधी और गोडसे . बोधिसत्व के हर अवतार के साथ देवदत्त भी अवतरित होता था।

‘ यह राजा महानता और त्याग का नाटक कर रहा है। ‘ उसके ईर्ष्यालु मन में कुछ ऐसी ही बात कुलबुल कर रही थी। ‘ मैं अभी इनके नाटक का अंत करता हूँ .’ देवदत्त रूपी बन्दर जब पार करने लगा तो जाते हुए उसने कपिराज की रीढ़ पर अपने पैरों से जोर से मारा। आह ! कपिराज पीड़ा से कराह उठा। उसकी रीढ़ की हड्डी टूट गई थी। वह नीचे गिरा और एक दूसरी शाखा से जा लगा। देवदत्त बाँस की फुनगी पकड़ दूसरे किनारे पहुँच चुका था।

राजा ब्रह्मदत्त बंदरों की इस पूरी लीला को देख रहा था। कपिराज की पीड़ा से वह भी तड़प उठा। उसने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि बंदरों के राजा को पेड़ की शाखा से फ़ौरन उतारा जाय और उसकी संभव चिकित्सा की जाय। कपिराज बुरी तरह जख्मी हुआ था। ब्रह्मदत्त स्वयं उसकी सेवा में तत्पर हुआ। बंदरों के राजा से उसने पूछा – ‘ तुम ने अपनी जान जोखिम में डाल कर ऐसा काम क्यों किया ?

बंदरों के राजा ने ब्रह्मदत्त से कहा ‘ वे अस्सी हजार बन्दर हमारी जनता है ब्रह्मदत्त। वे हमारी संतान हैं ,बच्चे हैं। उनकी रक्षा करना हमारा फर्ज था। मैं जानता हूँ कि अब मैं बुरी तरह जख्मी हूँ और बच नहीं पाउँगा। लेकिन मुझे संतोष है कि मैंने अपनी जनता को बचा लिया। उस देवदत्त को भी जो मुझ से बहुत ईर्ष्या करता है। यही राजधर्म है ब्रह्मदत्त। आप भी राजा हो। हमेशा याद रखना एक राजा के लिए जनता का कल्याण और सुख सर्वोपरि है। अपनी जान देकर भी इसे पूरा किया जाना चाहिए। सब मरते हैं ,मैं भी मरूँगा, लेकिन इत्मीनान से मरूँगा। मैंने अपनी जनता को ,अपने लोगों को सुरक्षित छोड़ कर जा रहा हूँ।

ऐसा कह कर कपिराज ने आखिरी सांस ली। उसकी आँखें हमेशा के लिए मुंद गईं। ब्रह्मदत्त ने मरते हुए राजा को अपने सैनिकों की साथ नमन किया। वह फूट -फूट कर रोने लगा। यह कपिराज अब उसका आदर्श था। उसने राजकीय सम्मान के साथ कपिराज की अंत्येष्टि की। बनारस लौट कर उसने बंदरों के उस राजा के सम्मान में एक चैत्य बनवाया। भरहुत और साँची में इस कथा को साकार करते चित्र वहाँ के चैत्य में उत्कीर्ण हैं। आज उसी बनारस का प्रतिनिधित्व हमारे प्रधानमंत्री करते हैं।

(लेखक बिहार विधान परिषद् के पूर्व सदस्य रहे हैं )