यूपी में निश्चित रूप से खेला मज़ेदार होगा

सौमित्र रॉय

दैनिक भास्कर की एक खबर के अनुसार आरएसएस ने यूपी और 5 अन्य राज्यों के लिए 8 महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को चेहरा न बनाने का फैसला किया है। लगता है बंगाल में मिली हार के बाद पार्टी कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। बंगालियों ने विधान सभा चुनाव में प्रधान मंत्री मोदी की इमेज को कुछ इस तरह से चार चांद लगाया कि आरएसएस खुद उन्हें मैदान में नहीं उतारना चाहता। आरएसएस को बंगाल ने सबक सिखाया है कि मोदी के उतरने पर लोगों का आक्रोश मोदी पर फूट सकती हैं जिससे मोदी की छवि को धक्का लग सकती है।

विधान सभा चुनाव में मोदी का चेहरा ना इस्तेमाल करना अच्छा है लेकिन इससे जुड़े कई सवाल खड़े होते हैं। मसलन- कोविड की दोनों लहरों के बाद क्या कोई छत्रप अपने दम पर चुनाव जीतने का दावा कर सकता है? अगर यह मान भी लें कि यूपी में आरएसएस पूरा जोर लगा देगी, मगर गुजरात, हरियाणा और पंजाब का क्या होगा? क्या खुद महाराज योगी आदित्यनाथ मोदी से भी बड़े ब्रांड बन गए हैं जिसकी जीत पर कॉर्पोर्टेस पैसा लगाएंगे? बहरहाल, बंगाल हारने के बाद मोदी खुद भी बड़े ब्रांड नहीं रहे। जैसे मनमोहन सिंह से कॉर्पोर्टेस ने किनारा करना शुरू कर दिया था।

फिर भी 18-18 घंटे कॉर्पोर्टेस की कमाई के लिए काम करने वाले मोदी अपने तोतों- सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, और इनकम टैक्स की बदौलत पैसा तो लाने में अभी भी सक्षम हैं। तो चुनाव अगर केंद्र के पैसे से, यानी बीजेपी पार्टी फण्ड से ही लड़ा जाएगा तो मोदी सरकार का दांव पर कुछ भी नहीं लगा होगा, ये कैसे मुमकिन है? यूपी के मुख्य मंत्री योगी के कॉर्पोर्टेस से रिश्ते कभी ठीक नहीं रहे। उत्तराखंड और गोआ जैसे राज्यों की छोड़ दें। हां, हिमाचल में जयराम ठाकुर ज़रूर अपवाद हैं। गल्फ न्यूज़ ने बीजेपी नेताओं के हवाले से लिखा है कि “महाराज” पार्टी के लिए गले में फंसी हड्डी बन चुके हैं।

लेकिन ये रातों-रात तो हुआ नहीं। मोदी-शाह के लिए महाराज लाड़ले थे और संघ के लिए भी। यूपी के पब्लिसिटी बजट से अरबों रुपये महाराज की ब्रांडिंग में खर्च हुए। अब ठाकुर राज यूपी के ब्राह्मणों को खल रहा है। साथ में दलितों को भी, जिन्हें मोदी का चेहरा दिखाकर चूना लगाया गया। वह दिन भी याद कीजिये, जब सूबे के 150 विधायकों ने महाराज के निरंकुश कामकाज पर सवाल उठाए थे। बताया जाता है कि राधा मोहन सिंह ने आनंदी बेन को जो लिफ़ाफ़ा सौंपा था, उसमें भी 100 से ज़्यादा विधायकों के दस्तखत थे।

खैर, गंगा में बहती लाशों को यूपी का बेस्ट कोरोना मैनेजमेंट मॉडल बताकर मोदी और बीजेपी खुद फंस चुकी है। गुजरात के मॉडल का मीडिया पहले ही पर्दाफ़ाश कर चुकी है। कोविड की तीसरी लहर के बीच 6 राज्यों में फरवरी तक छत्रपों की इमेज सुधारना आरएसएस के भी बस में नहीं है। देश को 80 सांसद देने वाले यूपी का चुनाव 2024 का सेमीफाइनल है। इस मुकाबले में कप्तान बाहर है। जीत का दारोमदार कमज़ोर लोकल कप्तान पर है। निश्चित रूप से खेला मज़ेदार होगा।