यह स्वाद में कड़वा है जबकि दवा भी नहीं है

कुछ लोग मानते हैं कि राहुल गाँधी(और काँग्रेस) ने यह-वह ग़लती की। यदि ऐसा-वैसा नहीं होता, तो परिणाम दूसरा होता। मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि राहुल या काँग्रेस कुछ भी करती तो फिर भी चुनाव परिणाम में बहुत अंतर नहीं आना था। यह राहुल की हार से अधिक मोदी-शाह की जीत है। मोदी-शाह के बहाने कुछ और की जीत है।

सबसे पहले तो यही देखना चाहिए कि राहुल के सामने कौन-सी ताकत थी। उस ताकत का एक छोटा उदाहरण चुनाव होने के बाद सामने आया। बालाकोट के समय वायुसेना का एक हेलिकॉप्टर ख़ुद से मार गिराया जाता है। पाँच-छः जवान मारे जाते हैं और यह ख़बर चुनाव तक लीक भी नहीं होती। यह कोई छोटी बात नहीं है। इससे बस यह समझा जा सकता है कि कितनी संस्थाएँ नैतिकता भूलकर जेब में समा गयी हैं। मृत जवानों के परिवारों को बताया गया कि यह तकनीकी खराबी की वजह से दुर्घटना हुई। बेचारे अपने लालों पर गर्व भी नहीं कर सके कि किसी अभियान में थे वे।

राहुल को उस ताकत से लड़ना था, जिसका प्रचारक मीडिया था। वह मीडिया जो यह बता सकता था कि दो हज़ार के नोट में लगा चीप कितने काम का है, अथवा बालाकोट में मसूद अज़हर अपने चार सौ अनुयायियों के साथ किस तरह मारा गया। हिंदी के सारे ख़बरिया चैनल और अख़बार प्रचार में पाँच साल लगकर सत्ता को सहस्रबाहु और सहस्राक्ष बनाये रखे। यदि एकाध चैनल ने आलोचना की भी तो उसकी पहुँच बेहद कम थी। यहाँ तक कि फ्री-डिश में उसे अभी-अभी दिखाया जाने लगा था। राहुल के पास ही नहीं, जनता के पास भी क्या उपाय था?

उसपर सोशल मीडिया। यद्यपि इस दिशा में कांग्रेस ने भी कुछ काम अवश्य किये, लेकिन वह समर्पण और आक्रामकता नहीं थी। शायद आई-टी सेल की उतनी बड़ी फ़ौज भी न हो। भाजपावाले इस मामले में जितने सजग, सतर्क और त्वरित रहे, वह आश्चर्यजनक था। सरकारी संस्थाओं से सहयोग भी मिलता रहा होगा और गढ़नशील प्रतिभा भी रही। तेज़बहादुर की उम्मीदवारी ख़ारिज करने में चुनाव आयोग को 48 घंटों की गहन मशक्कत करनी पड़ी, लेकिन उसकी जन्मकुंडली सोशल मीडिया में क्षणों में दौड़ा दी गयी।

मीडिया के बाद हम सरकारी लोग भी चाहते-नहीं चाहते प्रचार करते रहे। पूरा सरकारी तंत्र प्रचारक रहा। एक बड़ा अर्थतंत्र साथ है। इतने चंदे हैं कि अमित शाह खुल कर कह सकते हैं कि साढ़े ग्यारह करोड़ कार्यकर्ता वाली पार्टी है। काँग्रेस कभी बड़ी पार्टी रही होगी, लेकिन अभी वह 44 सीटों की ही पार्टी थी। पार्टी को चंदे उसकी औकात पर ही मिलते हैं, इतिहास पर नहीं। उसपर सीबीआई तो पहले से सत्ता का तोता था, चुनाव आयोग भी खुलकर समर्थन करने में अपने को कृतकृत्य समझता रहा।

आप राहुल गाँधी पर सवाल उठाते हैं, हम तो महात्‍मा गाँधी को हारते देख रहे थे और लिखा भी था। गोड्से रोज़-ब-रोज़ मजबूत हो रहा था। इस दौरान उसके मंदिर बन रहे थे, उसके शौर्य और शहादत के दिवस मन रहे थे। अभी मैं सिंहभूम इलाके में था। वहाँ चक्रधरपुर में गोड्से के नाम पर एक चौराहे का नाम रखा गया और रातोंरात नामपट्ट लगा दिया गया। अभी आप अपने आस-पास के मित्रों को देखें। ग़ैर-भाजपाई मित्रों में बहुत-से लोगों ने मनोज सिन्हा की हार पर दुख जताया होगा, लेकिन एक भी भाजपाई मित्र खोज लें, जिसने प्रज्ञा की जीत पर अफ़सोस किया हो। जहाँ महात्मा हार रहा हो, वहाँ राहुल की क्या औकात?

अभी सबने वह वायरल फोटो देखा होगा, जिसमें एक युवा अपनी छाती पर ‘मोदी’ गोद लेता है। यह समर्पण और उन्माद है। उनके अनुयायी मर सकते हैं, मार भी सकते हैं, क्योंकि उनके पास भावनात्मक मुद्दा है। आज़ादी की लड़ाई को इतिहास बनते-बनते काँग्रेस के पास कोई भावनात्मक मुद्दा नहीं बचता है। और सच यही है कि भावनात्मकता हर चीज़ पर हावी हो जाती है। इसे हराना बहुत मुश्किल है।

मैं 2019 को छोड़ अब 2024 की बात करूँ, तो वहाँ भी लगता है लड़कर नहीं जीता जा सकता। 2023 के अंत में धारा 370 हटा दिया जाएगा और चार साल की असफलता उसके सामने हवा हो जाएगी। आप योजनाएँ बनाते रह जाइए। वे योजनाएँ बनी रह जाएँगी। अब आप जनता के ऊबने का इंतज़ार करें, नहीं तो अपने अस्तित्व की अंतिम शक्ति के साथ आज से लग जाएँ। रास्ता बहुत मुश्किल है।

हाँ, एक आसान उपाय है कि राहुल बड़े पूँजीपति घरानों को यह विश्वास दिला सकें कि वे अब से भी बड़ी लूट में उनके मददगार होंगे। यदि ऐसा अभी हुआ, तो यह ‘पप्पू’ इसी क्षण ‘सुपरमैन’ हो जाएगा।

अस्मुरारी नंदन मिश्र