मैं कौन हूँ? जहाँ तक खुद को समझ पाता हूँ, मैं वह नहीं हूँ जो आम तौर पर लोग होते हैं। न हिन्दू, न मुसलमान, न कांग्रेसी, न भाजपाई… इनमें से मैं कुछ भी नहीं हूँ। न किसी धर्म ने मुझे ग़ुलाम बनाया है और न किसी विचारधारा या दलगत निष्ठा ने मेरी आजादी खरीदी है। मैं उतना स्वतंत्र हूँ, जितना स्वतंत्र हुआ जा सकता है। इस स्वतंत्रता ने मुझे एक बड़ा दायित्व दिया है: भीड़ की भसड़ से लड़ने का दायित्व। भीड़तंत्र में बदलते लोकतंत्र की रक्षा का दायित्व। इन दायित्वों को साथ लिए मैं स्वतंत्र हूँ… पूर्ण स्वतंत्र।

अपनी इस स्वतंत्रता की रक्षा के लिए परतंत्रता की बेड़ियों को सतत काटते रहना ही मेरा कर्तव्य रहा है। इसलिए मैं पूरी तरह परंपरा विरोधी हूँ। हिंदुओं की परंपरा, मुसलमानों की परंपरा, कांग्रेसियों की परंपरा, कम्युनिस्टों की परंपरा, भाजपाईयों की परंपरा… मैंने सबका एक साथ विरोध किया है और वह विरोध मैं आखिरी दम तक करुँगा। वही विरोध मेरे जीवन की आग है। जब तक है, जलती रहेगी।

मेरा विरोध अनर्गल नहीं है। इसका उद्देश्य है। मेरा प्रतिकार सिर्फ नकारात्मकता को हवा देने के लिए नहीं है। मेरा उद्देश्य पूर्णतया विधायक है। मैं चाहता हूँ कि सत्य की कसौटी पर, समाज कल्याण के मानदंड पर, शुभता के निकष पर और सुंदरम की दृष्टि से जो भी करणीय है, किया जाना चाहिए। सत्शुभत्व की इस सुंदर धारा के विपरीत जो कुछ भी हो उसे मिटाने की पूरी कोशिश रहनी चाहिए। समाज और शासन व्यवस्था को सही रखने के लिए यह कोशिश जरूरी है।

समसामयिक राजनैतिक परिदृश्य में हमारा यह भली-भाँति समझ लेना जायज भी है और जरूरी भी कि लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए अगर किसी चीज की सबसे अधिक जरूरत है तो वह है शिक्षा। और शिक्षा के नाम पर वर्तमान में जो कुछ भी चल रहा है, मैं उसका अपने दम भर पूरा विरोध करता हूँ क्योंकि यह शिक्षा जीवन मूल्यों की शिक्षा नहीं है। यह शिक्षा प्रतिभा को विकसित करने के लिए दी जाने वाली शिक्षा नहीं है। यह शिक्षा मानव दर्शन की संस्कृति पर परिष्कार देने और निजी संभावनाओं को यथार्थ करने के लिए दी जाने वाली शिक्षा नहीं है।

यह शिक्षा सिर्फ स्मृति के आधार पर परीक्षा पास करने और दृढ़ तथा अनमनीय पाठ्यक्रम पर अटल रहने के लिए दी जाने वाली शिक्षा है ताकि शिक्षा प्रदान करने की प्रक्रिया के पूर्ण होने पर सिर्फ स्वत्वहीन मानव-मशीनें ही इस तथाकथित समाज को सौंपी जा सकें। विद्यालयों-विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्रदान करने की जो प्रणाली हमने आज तक गर्व से रखी हुई है, वही शिक्षा प्रणाली हमारे कोढ़ की खाज है। जब तक हम व्यक्ति को उसकी निजता के संवर्धित करने, उसकी स्वच्छ तथा निरपेक्ष दृष्टि के निर्मित होने, उसकी मेधा को निखरने और उसकी संभावनाओं को मूर्त रूप देने के व्यापक अवसर नहीं प्रदान कर पाते, तब तक शिक्षा को समुचित नहीं कहा जा सकेगा।

हमारे मार्क्सशीट और सर्टिफिकेट पाए हुए विद्वान छात्र जब लौटकर हमारे समाज में जीवन जीने के लिए आते हैं तब पता चलता है कि न तो वे सही से चार अक्षर लिखने के योग्य हैं और न ही सहजतापूर्वक चार शब्द बोल पाने के लायक। वे पढ़े-लिखे मूर्ख हैं जिन्हें लगता है कि सर्टिफिकेट लेकर गृहस्थी बसा लेना ही जीवन का असली ध्येय है और लिखा-पढ़ी अब समय की बेमतलब बर्बादी है। तब पढ़ना वे बन्द कर देते हैं या फिर जरूरत पड़ने पर पढ़ने की थोथी प्रदर्शनी करते हैं। किताबें खरीद लाते हैं। अलमारी में सजा आते हैं। गाँव-मोहल्ले में पढ़े-लिखे होने का तमगा मिल जाता है।

ऐसे प्रमाणपत्र-प्राप्त विद्वानों से जो समाज निर्मित होता है उसमें सामाजिकता नहीं रह जाती। मैं-भाव प्रगाढ़ हो जाता है। फलतः साथ बैठते हैं, बात करते हैं मगर सब अपनी-अपनी कहते हैं और कोई किसी की नहीं सुनता। अलग-अलग खोल में रहने वाले लोग साथ दिखाई जरूर देते हैं मगर वे दरअसल साथ नहीं होते, अलग-अलग ही रहते हैं। जैसे बहुमंजिली इमारत के विभिन्न फ्लैटों में रहने वालों की भी सोसाइटी होती है भले ही वे एक-दूसरे का परिचय तक न जानते हों वैसे ही बाहर की भीड़ में भी हर तरह की बातें चलती हैं, हर किस्म के बहस-मुबाहसे चलते हैं, मिलना-बैठता भी होता है मगर बात परिधि तक की ही रह जाती है। मर्म तक गहरे नहीं उतरने से संवाद स्थापित नहीं हो पाता।

बिना संवाद के न समन्वय हो पाता है और न ही कोई अंतरंगता बन पाती है। इस तरह की शिक्षाशून्य कैकोफनी में समाज समाज नहीं रहकर एक पागल भीड़ बन जाता है। भीड़ के पास विवेक नहीं होता। विवेकहीन भीड़ अनिर्णय की समस्या से ग्रस्त रहती है। आवश्यकतावश चुनाव आदि के समय जब निर्णय लेना अनिवार्य हो जाये तो गलत निर्णय ले लिया जाता है। विवेकहीन भीड़ का अंग भी विवेकहीन ही होगा, इसलिए भीड़ द्वारा निर्णीत भीड़ का अंग भी विवेकहीन ही होता है।

विवेकहीन प्रतिनिधि छद्म-लोकतांत्रिक होता है। उसके निर्णय भी भीड़ की तरह ही विवेकशून्य होते हैं। भीड़ में अव्यवस्था और अशांति व्याप्त रहती है। समुचित शिक्षा का अभाव उस अशांति को और अराजक कर देता है। दुःख गहन होता है लेकिन संवेदना की कमी से और उत्तेजना की बहुलता से उसका पता नहीं चल पाता और भीड़ सामूहिक आत्महत्या की ओर अग्रसर होती रहती है। जिन्हें यह सब दिखाई पड़ता है, वे अल्पसंख्यक होते हैं और पागल करार दे दिए जाते हैं। विपक्षी और विरोधी मानकर उन्हें पीड़ा पहुँचायी जाती है।

ऐसे में मैं कौन हूँ? मैं एक विद्रोही हूँ। हालाँकि मैं भी उसी भीड़ का एक टुकड़ा हूँ जिस भीड़ का अविवेक शैक्षणिक योग्यता के सर्टिफिकेट से ढँका हुआ होता है, फिर भी मुझे अपने होने का थोड़ा-बहुत बोध है। मुझे भीड़ से अलग अपनी एक निजी पहचान बनाये रखने की ज़िद है। मैं भीड़ नहीं हूँ। मैं वह हूँ जो अपनी बनाई राह चलता है। परम्पराओं के पिटे-पिटाये राजमार्ग जिसे प्रिय नहीं। मैं वह हूँ जो भीड़ को समाज और यंत्र-मानव को वापस चेतना सम्पन्न मनुष्य बनाना चाहता है। भीड़तंत्र को दुबारे से लोकतंत्र में बदलना चाहता है। मैं वह हूँ जिसने भीड़ से लोहा लिया है। भीड़ को भीड़ कहना भीड़ से लोहा लेना है। मैं वह हूँ जिसने भीड़ से लोहा लिया है। मैं भीड़ नहीं हूँ।

मणिभूषण सिंह