मिथिला में पान खाने-खिलाने की प्रथा लोक संस्कृति की अनूठी पहचान

आशुतोष आर्यन
मिथिला में पान खाने-खिलाने का एक अलग इतिहास है। जबकि, पान केवल मुंह रंगने भर का मामला तक सीमित नहीं है दिल भी रंगने की प्रथा है। पान खाने वाले से कहीं ज्यादा पान खिलाने वाले इस बात को लेकर गंभीर रहते हैं। पान खाना-खिलाना एक लोक-संस्कृति है। यह मिथिला की रिवाज है। मिथिला की अनूठा पहचान है। पान पर मिथिला का छाप है। सार्वभौमिक सच है कि पान मिथिला के लिए इतिहास की विरासत है। जिसे पुरखों ने बेहद सलीके से संभालकर रखा। मिथिला को वैसे भी पान को लेकर एक अलग और स्वतंत्र पहचान मिली। मिथिला को जो भी हासिल हुई उसमें पान का योगदान अविस्मरणीय है।
मिथिला के बाहर के लोग भी पान पर मिथिला की पान खिलाने की रिवायत को बहुत सम्मान के साथ स्मरण करते हैं। कहा जाता है कि मिथिला में पान, माछ (मछली) और मखान तीनों का अद्भुत मिश्रण है। मिथिला के लोगों का मानना है कि पान, माछ और मखान स्वर्ग तक में मिलना दुभर होता है। स्वर्ग में बहुत महंगा है इसकी डिमांड। वहां यहां के तरह मात्रा और गुणवत्ता नहीं मिलता है। इसलिए, मृत्युशैया पर पड़े शख्स के मुंह में पान डाल दिया जाता है। ताकि, उन्हें पान के लिए वहां भटकना ना पड़ें।
इसके बावजूद मिथिला में मैथिलों के बीच पान खाने को लेकर रुचि में अप्रत्याशित गिरावट देखने को मिल रहा है। अपवाद को छोड़ दें तो पान अब बहुत कम लोग खाना पसंद करते हैं। बहुतयात लोगों में पान की पसंदगी को लेकर वो रस नहीं रहा। पान को लेकर मैथिल जितना सहज हुआ करते थे अब वो बात नहीं रही। इसमें अब काफी क्षरण हुआ है। पुरानी पीढ़ी जबकि, पान को पनबट्टी में सजाकर रखते थे अपने घरों में। हर घर में आपको पान आसानी से उपलब्ध मिलता। पान और उसके मशाले को बाजार से लाकर खुद से तैयार करके खाने का शौक रखा करते थे।
चूंकि, पान के जगह अब रजनीगंधा ने रिप्लेस किया है। पुरानी पीढ़ी शायद अब वो अंतिम पीढ़ी होगी जो पान खाने में दिलचस्पी रखती थीं। पान को लेकर वो सहजता नहीं है इसके मुख्य कारण हैं कि पान का स्वाद हर जगह अलग-अलग किस्म का हो गया है। पान का बेस्वाद हो जाना ही लोगों को पान से दूरी बना दिया। जबकि, रजनीगंधा हर जगह सुलभता से मिलने के आसार होते हैं। सुगमता और सुलभता लोग तलाशने लगे हैं।पान और उसके मसाले अब महंगे भी हुए हैं। पान रखने में खर्च भी अधिक होते हैं अब पहले के वनिस्पत। पान को लेकर अब वो लग्जरी नहीं है।
पान का रस्वादन करने वाले कहते हैं कि पान को मुंह में डालने के बाद पता चल जाता है कि मुंह में वो कितना देर टिकेगा। पान को लेकर लोगों के चेहरे पर वो चमक अब नहीं है। मिथिला में पान का इतना महत्व है कि विवाह में दामाद को पान खिलाकर परिछन तक किया जाता है। पान के पत्ते से गाल तक सेंके जाते हैं। बेटी को शादी के बाद विदाई के समय पनबट्टी, सरौता और उगलदान दिया जाता है। मिथिला में किदवंती है पान खाना और खिलाना। हालांकि, मैथिलों के लिए पान लोकाचार्य का हिस्सा है।
मिथिला में पान को शुभ माना जाता है। हालांकि, पान को लेकर जितनी पुरानी पीढ़ी सहज हुआ करती थी अब नई पीढ़ी नहीं है। नई पीढ़ी पान खाने के रश्मों-रिवाज से विमुख हो रही है। बड़े पैमाने पर नई पीढ़ी पान को खारिज करती हुई दिख रही है। एक्का-दुक्का को छोड़ दीजिए जो बुर्जुगों के शोहबत में जो रहे हैं वो पान खाने में आज भी कोताही नहीं बरतते। पान को लेकर अगर यह हीनभावना पनप रहा है तो भविष्यदृष्टा के लिए बेहद चिंतनीय बात है। पान खाने वाली पुरानी पीढ़ी स्वस्थ और तंदुरुस्त भी रहा करती थीं। बल्कि, पान खाने वाले लोग अपने घरों में पान के पौधे लगाकर पान खाते रहे हैं।
जबकि ऐसी मान्यता है कि भोजन करने के उपरांत पान खाने से भोजन पचने में बेहद कारगर होता है। पान भोजन को आसानी से पचाने में सहायक होता है। सौंदर्यवर्धक और शोभाकारक रुप में भी मादक, साथ ही साथ उद्दीपक रुप में भी पान की अलग विशेषता है। पान खाने की चिरकाल से प्रथा रही है। पान खाने को रागात्मक जीवन से भी जोड़कर देखा जाता है। पान से विमुख हो रही पीढ़ी को अपनी संस्कृति से कट जाना सचमुच बेहद अफसोसजनक है। पान को लेकर मिथिला में मिट्टी की उर्वरता है। जीवन की प्रचुर मात्रा में संभावना।
पान मिथिला का प्रतीक है। लेकिन हाल के वर्षों में पान की पैदावार में भी काफी गिरावट देखने को मिल रही है। नई पीढ़ी का पान के तरफ़ से मुंह फेर लेना अपनी संस्कृति और पहचान को भूलने का सवाल बनते जा रहा है। अपने जड़ों से कटने का मामूली संकेत भर है। जड़ों से कटते हुए कई दफे इंसान खुद से भी कट जाता है। बुरा किस्म से अलगाव में पड़ जाता है। गर्व करना आंतरिक अनुभव है। अपने भीतर का प्रस्फुटन है। एकदम नेचुरल प्रक्रिया है। गर्व अपने विरासत और परंपरा की उपलब्धियों पर संतोष से दो कदम आगे की खुशी है।
अपने गौरव, अपनी बेहतर परंपरा को शिद्दत से याद करने के बजाय उसे लगातार भूलते जाने की कोशिश सर्वथा अनुचित और अबोधपन के सिवाय कुछ भी नहीं है। अपने परिवेश की संस्कृति व परंपरा पर गर्व करते हुए उसका बखान करना आसान है। लेकिन, उसे सहेजना उतना ही मुश्किल। कुछ कहकर निकलना सपाट है उस पर टिक कर उससे दृष्टिगत होने के लिए रबड़ का कमर तो बिल्कुल भी नहीं चाहिए। उसके लिए बहुत धैर्य और संयम की जरूरत होती है। वैसे भी मिथिला में एक प्रसिद्ध लोकोक्ति है: पग-पग पोखर,माछ मखान। शरस बोल मुस्की मुख पान। संभवतः यह लोकोक्ति कहीं केवल अब बोलचाल में ही ना रह जाएं। जो अपने धरोहर और तहज़ीब को फिलहाल संजो कर नहीं रख पाएगा तो यकीनन बाद के दिनों में बहुत कुछ गंवा देगा।