मनुष्य और उसकी समाजिक चेतना- मुगालते का युग

बातचीत भूचाल लिए रहती है। प्लेट टेक्टोनिक्स जैसी। मानस की धरती को तोड़ती, जोड़ती, बदलती-रचती हुई अवधारणात्मक भूखंडों की कहानी सरीखी। यहाँ पहले से बनी- बनायी विश्वदृष्टि टिकी नहीं रहती। विश्वदृष्टि को भाषा की संरचना में बाँधना उसे जड़ीभूत अवधारणाओं में बाँधने जैसा है। बात-चीत इन जड़ीभूत अवधारणाओं/प्रवर्गों, नामों या शब्दों को निर्बंध करती है। खोलती है। भाषा में पहचानना उस बहते नीर को पहचानना है जो हर वक़्त नया हो कर ही प्रवाह है। हमारी अवचेतन की संरचना में बद्ध प्राकृतिक प्रवाह का बल जो जब सृजित करता है तो दुःख पाता है। अनपहचाना पहचाने जाने के मातहत क्यों है? बातचीत मानस की जड़ीभूत परतों की विकास यात्रा को उजागर करती चलती है। नाम-रूप की महत्ता के नीचे अलक्षित रहे गए क्रिया के सामाजिक प्रवाह को पाने की जिद करती है। मानस में भूचाल लिए रहती है। जड़ीभूत अवधारणाएँ एक ऐसी विश्वदृष्टि रचती है जहाँ विश्व अपने खंडों सहित पहले से उपस्थित है। एक पूर्वनिर्धारित पूर्णता में हम स्वयं को फँसा पाते हैं- उसकी विश्वात्मक फैंटेसी से प्रताड़ित और निरीह। माया के बंधन में, भवसागर में फँसा जीव ! अपने खंडों सहित रची इस पूर्णता का सर्वग्रासी चरित्र व्यक्ति मन को भय से रचता है। मैं और उसकी पहचान भय के सहारे बन रही है- भूख और मृत्यु का भय। मैं के लिए मैं से विद्रोह के अलावा कोई चारा नहीं बचता।
व्यक्तिगत विद्रोह की कई परिणतियाँ दिखायी देती है। कभी तो पूर्णता के सर्वग्रासी चरित्र से छुटकारा पाने के क्रम में मैं की एक नयी और वैकल्पिक पूर्णता हासिल करने का उद्यम शुरू हो जाता है। भले ही वह नयी वैकल्पिक पूर्णता बीसवीं सदी में छलना ही साबित हुई हो ! और कभी पूर्णता के नकार के लिए निर्विकल्प की मानसिक और आत्मिक साधना का रास्ता चुनती है। द्वंद्वात्मक पूर्णता के विश्व से मनोगत रूप से स्वतंत्र होने की चेष्टा एक आत्मिक साधना का रूप अख्तियार कर लेती है। इस आत्मिक साधना को ही कई बार जागरूक होना कहते हैं। यह विश्व की द्वंद्वात्मक पूर्णता का निर्विकार अभिज्ञान है जिसे ही शायद अवेकनिंग कहते हैं। चीज़ें जैसी हैं वैसी देखना अर्थात अपने आपसी संबंधों से बनते मैं-हमारे-प्राकृतिक परस्पर गतिशील यथार्थ ( जिसे सोसाइटस होमिनेम और सोसाइटस रेरम या मानव प्राकृतिक विश्व का यथार्थ भी कह सकते हैं) को अपनी द्वंद्वात्मक गतिशीलता में पहचानना अभिज्ञान है। भय के इस अभिज्ञान के साथ आप भय मुक्त हो जाते हैं। जागरूकता या अवेकनिंग की यह साधना एक ओर तो वस्तु -निज-रूप को वैलोराइज़ करती है दूसरी ओर इतिहास जैसा है वैसा की साधना करने लगती है। मनोविज्ञानिक स्तर पर घटित यह परिवर्तन एक ऐसे प्रयास को संगठित करने लगता है जो हमारे देखने की संवेदनात्मक क्रिया से, हमारी दृष्टि से परिवर्तन- हाउ टू चेंज इट- की केन्द्रीयता गायब करता चलता हो। या कहें कि यथार्थ की आलोचना के विरुद्ध देखने और महसूस करने को संगठित करने लगता है। बात-चीत का प्लेट टेक्टोनिक्स मानस में ‘कैसे बदला जाय ‘ का सवाल उजागर करता है।
यथार्थ को देखना यथार्थ हो रहा है को देखना है। अगर यथार्थ स्वयं एक रचना प्रक्रिया है तो इसका अर्थ है कि देखना उस रचना-प्रक्रिया का ही एक आतंरिक क्षण है। अगर हम अपनी बन रही दृष्टि के यथार्थ को कि वह स्वयं यथार्थ में बन रही है और उसे बना रही है तो यह एक ऐसी आलोचनात्मक दृष्टि की मांग करता है जो कि नकारात्मक है। इतिहास जैसा है वैसा या चीज़ें जैसी हैं वैसी की आलोचना का अर्थ है कि सबसे पहले हम यह देख सकें कि यथार्थ है नहीं हो रहा है। बन रहा है। पूर्णता है नहीं बल्कि एक पूरणोन्मुख गति है। आलोचकीय दृष्टि यथार्थ में आंदोलित है।
अगर इतिहास या यथार्थ किसी नैसर्गिक या दैवीय नियम से चलित नहीं है बल्कि वर्ग-संघर्ष है- मनुष्य रचित है- तो इसका मतलब है कि बदलाव का प्रश्न आत्मगत हो कर ही वस्तुगत है। कह सकते हैं कि इतिहास जैसा है वैसा नहीं होने देने की प्रक्रिया में इतिहास के अंत की तरह- बदलाव के प्रश्न में शामिल हुए बिना वह आलोचनात्मक दृष्टि विकसित नहीं हो सकती जिसे हम देखना या करना कहते हैं। ‘हाउ टू चेंज इट ‘ के सवाल को आत्मिक चिंतन या मानस परिष्कार की योजनाएं गायब क्यों कर देना चाहती हैं?
दूसरी ओर नयी पूर्णता की तलाश में आत्म-संगठित होने वाला आत्मानुसंधान अपने अस्तित्व और अस्तित्व की सार्थकता का अनुसंधान बन जाता है। अपने अस्तित्व के सार को जानना और फिर उसे वस्तुतः प्राप्त करना अस्तित्व की बद्ध और दुखात्मक दुनियावी परिणतियों के विरुद्ध व्यक्ति मन के विद्रोह को एक सक्रिय उद्देश्य से आरक्त कर देता है। अस्तित्व अपने से खोया हुआ दुःख भोगता है। वह स्वयं को दुनयावी संबंधों में बंधा पता है, विद्रोह करता है, निष्कर्ष और संकल्प लेता है, विक्षिप्ति और अपराधबोध से जूझता है- अपना सत्व ढूंढना चाहता है- पाना चाहता है। लुकाच ने स्वाधीन और प्रकृत मनुष्य की तरह मैं की इस अस्तित्ववादी सीमा का उद्घाटन करते हुए मार्क्स की सामाजिक मनुष्यता के निर्माण का प्रश्न सामने रखा। मैं के प्रति चेतस होने का अर्थ है उन सामाजिक संबंधों के प्रति चेतस होना जिसका ‘हब ‘ (ग्राम्शी) मैं है और अपने मैं के रूपांतरण या व्यक्तित्वान्तरण का अर्थ है उन संबंधों के समुच्चय का रूपांतरण। ग्राम्शी लिखते हैं-
“संबंधों के समुच्चय को केवल जान लेना, जैसा किसी दी गयी व्यवस्था में विद्यमान है, पर्याप्त नहीं है। (उनकी जननिकी, उनके निर्माण की गति में उन्हें जानना आवश्यक है।) क्योंकि प्रत्येक मैं न केवल विद्यमान संबंधों का संश्लेष है बल्कि उन संबंधों के इतिहास का भी संश्लेष है। वह सम्पूर्ण अतीत का ‘प्रेसिस’ है। “
ग्राम्शी मनुष्य सार की किसी एकल संकल्पना से आरम्भ के प्रयास को- किसी ‘मानव ‘ को अपनी खोज का आरम्भ बिंदु बनाने को पुराने धर्म-दार्शनिक या मेटाफिजिक्स का अवशिष्ट करार देते हैं। वह दर्शन को किसी प्रकृतवादी ‘नृविज्ञान ‘ में सीमित किये जाने का विरोध करते हैं अर्थात ‘मानव प्रजाति की प्रकृति मनुष्य की जैविक प्रकृति के द्वारा प्रदत्त नहीं है। ‘ मानव प्रकृति सामाजिक संबंधों की संश्लिष्टता है ऐसा देखने से ‘होने/बीकमिंग’ का विचार बना रहता है और सामान्य रूप से किसी ‘मनुष्य’ की अवधारणा को नकारता है। इस तरह मनुष्य दास और मालिक, भूदास और भूस्वामी और मजदूर और पूंजीपति के अंतर्विरोधी सामाजिक संबंधों का इतिहास अपने होने में धारण करता है। विरुद्धों के सामंजस्य से बनते इतिहास को ‘मानव प्रकृति ‘ कहा जा सकता है क्योंकि ‘मनुष्य वहीँ तक मालिक है जहाँ तक वह दास है’ (ग्राम्शी)।….