मजदूर डायरी- आत्म निर्भर भारत की एक तश्वीर यह भी है

सुल्तान अहमद , रफ़ी अहमद सिद्दीकी की रिपोर्ट 

कल नोएडा सेक्टर 58 श्रम जिवियों के बीच जाना हुआ, ग्राहक सुविधा केंद्र संचालक से बात हुई, फिर श्रमिकों के साथ लेबर चौक पर चर्चा , स्थिति भयावह है, पहले जिन श्रमिकों को महीने में 20-22 दिन काम मिल जाता था, अब वो 15 दिन दिन भर किसी ऐसे सज्जन का इंतज़ार ही करते रहते हैं कोई आए और उनके किस्मत में काम सौंप दे, 2 जून की रोटी का इंतज़ाम होजाए, फोटो में जिन सज्जन को देख रहे हैं जिनका वास्ता सुशासित राज्य बिहार के खगरिया जिले से है, लॉक डाउन में घर चले गए थे लेकिन ज्यादा दिन तक रुक न पाए, क्योंकि वहां जीविका का कोई इंतेज़ाम नहीं था, नोएडा खोड़ा गांव, जो गजोपुर बॉर्डर के पास है पहले से रह रहे थे, यहीं आगये, रोज़ लेबर चौक पर आजाते हैं काम का इंतज़ार करते हैं और शाम को गांजा पीते हुए फिर कमरे पर चले जाते हैं, एक कमरे में मकान मालिक 3 लोगों को रहने देता है, किराया तकरीबन 2500-3000 हज़ार होता है और ऊपर से 500 बिजली का बिल, बिजली के सब मीटर मकान मालिक ने चिपका रखे हैं, दिल्ली में मिल रहे 200 यूनिट मुफ्त बिजली का लाभ इन श्रमिकों की किस्मत में नहीं, मकान मालिक 3 से ज्यादा लोगों को एक कमरे में रहने नहीं देते।

कई दिनों बाद कल इन्हें काम मिला 6 घंटे काम करके आये तो 150 रुपया कमा पाए, इनका कहना है कि काम न मिलने के कारण दिन भर बैठे रहने पर मैन उदास होता है और गांजा बार बार पीना पड़ता है, दिन भर में 50 रुपये का गांजा पी जाते हैं, एक तरफ कमाई नहीं दूसरी तरफ खाना और गांजा का खर्च, पोलिस भी पकड़ लेती है और जो पास में जो होता है उस पर पुलिस का कब्जा हो जाता है, ये बताते हैं कि हिंदुस्तान का बहूत बड़ा हाल होने वाला है, हाहाकार मचने वाला है, बड़ी आबादी भूक की चपेट में आने वाली है, जिस्म फ़रोसी का धंधा बढ़ने वाला है, क्या करे जब जीविका का कोई साधन नहीं तो इंसान जिए गया कैसे। 65% फैक्ट्री बन्द है शादी के बैंकेट हाल का काम की भी मंदी है, अब कहाँ काम मिलेगा हमें नहीं मालूम।

इसी तरह जब दिल्ली के दुसरे क्षेत्र के प्रवासी मजदूरों की हालत में कुछ ज्यादा फर्क नज़र नहीं आया . प्रवासी मजदूरों के पास खपत के लिए पैसों का अभाव है. कल वज़ीरपुर में कुछ मज़दूर साथियों से बात हुई वह कहते हैं, ”लॉकडाउन के दौरान रोजगार जाने से उन्हें जो नुक्सान हुआ, उसका मुआवजा तक नहीं दिया गया. वह जो काम करते हैं, उसकी वजह से वे शहरी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं और वे जो पैसा कमाते हैं, वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ बनाता है. इस तरह वे शहरी और ग्रामीण इलाकों के बीच पुल का काम करते हैं.” लेकिन लॉक डाउन के दौरान यह साबित हो गया की गांव से आये हम प्रवासी मज़दूरों को केवल उपयोग की वस्तु समझा गया है।

घर पर बीबी बच्चे हैं , बस किसी तरह जिंदगी गुजार रहे हैं, सरकार की योजनाओं का लाभ के नाम पर केवल राशन मिलता है इसके अलावा जिंदगी जीने के लोए अनेकों खर्च है जिसकी पूर्ति नहीं हो पारही है, अब तो बस लगता है जिंदा रहना ही सही मायने में विकास है।

GDP स्लो डाउन का असर आप को शायद समझ नहीं आता हो लेकिन इन काम गारों को खूब समझ आरहा है तभी तो कह रहे सर हिंदुस्तान की हालत बहूत ख़राब हो सकती है अगर अभी हमारे हुक्मरान ध्यान नहीं देंगे तो,सवाल यह है की हमारे प्रधान सेवक और उनकी सरकार को मदिर निर्माण , छोटे किसान और बड़े किसान , ग्रामीण और शहरी आबादी , हिन्दू और मुसलमान में अपनी तकदीर तलाशते हैं तो अर्थव्यवस्था कैसे बेहतर होगी, चुनावी राज्य में ही सडक , विजली, और ढांचा गत निर्माण होगा तो अन्य राज्यों में कामगारों को रोज़गार कहाँ से मिलेगा.

मनरेगा सहित अन्य योजनाओं में रोजगार देने की पहल की गयी, परंतु मनरेगा इन मजदूरों की स्थिति सुधारने में नाकाम साबित रहा है.

अब तो जिंदा रहने के लिए केवल जय श्रीराम का नारा ही काफी है।

एक प्रवासी मजदूर