भोजपुरी भाषा बनाम भोजपुरी गीत और भाषा की अस्मिता

एजाज़ अहमद

भोजपुरी भाषा के बारे में जान लेना ज़रूरी है की भोजपुरी भाषा है क्या? क्या भोजपुरी फिल्मों और भोजपुरी गीतो की भाषा ही भोजपुरी है? अगर नही तो कौन सी भाषा भोजपुरी है जिसके जन मानस ये प्रयास कर रहे हैं की वो फुले फैले और परवान चढ़े?

भोजपुरी इंडो-आर्यन समाज की एक समृद्ध भाषा है। भारत में यह मुख्य रूप से उत्तर बिहार और उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल में बोली जाती है और नेपाल में भी बोली जाती है। इसके अलावा नेपाल, सूरीनाम, फिजी, घाना और टोबैगो देशों की राष्ट्रीय भाषाओं में से एक है। संयुक्त राष्ट्र ने भी भोजपुरी को एक व्यक्तिगत भाषा के रूप में मान्यता दी है और भोजपुरी में इसके एक चार्टर को जारी करके सम्मानित किया भी किया है। इसके अलावा भी और कई देशों जैसे मॉरीशस, टोबैगो, गुयाना, त्रिनिदाद, सूरीनाम, बांग्लादेश और दक्षिण अफ्रीका में भी बोली जाती है। लेकिन भारत में इसे एक भाषा के रूप में मान्यता नहीं दी जाती है लेकिन राजनीतिक कारणों से इसे केवल हिंदी की एक बोली के रूप में मान्यता दी जाती है।

भोजपुरी अपने आप मे बहुत मधुर भाषा है भोजपुरी नाम आते ही वो देशी खेत खलिहानो की चित्र दिल वो दिमाग मे उभरने लगती है। भारत अभी भी मुख्य रूप से गावों का देश है। भारत मे गावों की खुशबू भोजपुरी भाषा और भोजपुरी फिल्मो मे देखने वो महसूस करने को मिल जाती है। इसमें भोजपुरी कला और लोक संगीत का बहुत बड़ा योगदान रहा है। खास तौर पर भोजपुरी के शेक्सपियर माने जाने वाले भिखारी ठाकुर की कला और रचना में वो जन चेतना और उस समय की सामाजिक स्थिति का पता चलता है खास तौर से उनका नाटक ‘बिदेशिया’ की बात बात करें उस समय की महिलाओं की पीड़ा का अच्छे से चित्रण किया है। इस तरह लोक नाटक, लोक गीत और आम बोल चाल की भाषा से भोजपुरी ने फल्मों की तरफ भी सफर किया।

अब सवाल ये है के भोजपुरी फिल्मो की शुरुआत कब हुई और किसने किया। ये जान लेना ज़रूरी है बात उन दिनो की है जिस समय भारत के प्रथम राष्ट्रपती डॉ. राजेन्द्र प्रसाद हुआ करते थे। नाजीर हुसेन जो उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिला के जामनिया के रहने वाले थे। राजेन्द्र प्रसाद के समय मे ये बमब्यी मे हिन्दी सिनेमा मे बतौर कालाकार काम किया करते थे। 962 के अंतिम समय मे इनके एक मित्र ने सुझाव दिया की भोजपुरी भाषा मे फिल्मे क्यो नही बनाते।

नाजीर हुसैन ने कहा की पैसा कहा से आयेगा तो उनके मित्र ने कहा की एक बार राजेन्द्र प्रसाद से दिल्ली जा कर मिलो। अगर वो हाँ कर दे तो फिल्म बन जायेगी। दिल्ली जाने का प्लान बना और राजेन्द्र प्रसाद से मुलाकात भी हो गयी। उन्होंने हामी भी भर दी। और बताया की जितना हो सकता है हम सहयोग करेंगे। मुंबई जो उस समय का बॉम्बे था वापिस आ कर फिल्म की तैयारी शुरू कर दी। और इस तरह भोजपुरी की पहली फिम्ल बनी जिसका नाम था “गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो “.

इस फिल्म के निर्देशक थे कुन्दन कुमार और कहानी लिखी थी नाजिर हुसैन ने और निर्माता थे विश्वनाथ प्रसाद शाहाबादी। ये फिल्म 1963 में पटना मे रीलीज़ हुई और फिल्म सफल हुई। इसके गीत लता मंगेशकर और मोहमद रफी ने गाये थे। तो इस तरह से भोजपुरी भाषा की लोक प्रियता बढ़ी। उसके बाद से भोजपुरी फिल्मों का एक दौर सा शुरू हो गया। फिर उसके बाद भोजपुरी लोक गीत को भी एक पैकेज की तरह श्रोताओं को परोसा जाने लगा। लेकिन भोजपुरी भाषा की मर्यादा काम नहीं हुई। बल्कि भरत शर्मा और शारदा सिन्हा सरोखे कलाकारों इसे चार चाँद लगाया।

फिर एक दौर आया जब तक्नीक का डिज़िटाइज़ेशन होना शुरू हुवा और टी -सीरीज जैसे कंपनी ने भोजपुरी गायकों को अनुबंध पे रख कर गाना गवाने लगा। चूँकि डिज़िटाइज़ेशन का दौर था तो सब जल्दी जल्दी करना था और पैसा ज़्यादा कमाना था इस लिए गुणवत्ता पर कम धयान जाने लगा। यही से भोजपुरी में धीरे धीरे फ़ुहडपन का आगमन हुवा खास तौर से होली वाले गीतों में। गुड्डू रंगीला याद होंगे बहुत सारे लोगों को याद होंगे। ये फूहड़पन धीरे धीरे हिट होने लगा और भाषा की मर्यादा खत्म होती गई। आज के समय मे लोकप्रिय होने के बाजाय लोगो के दिलो दिमाग पर इसका गलत प्रभाव पडा और पड़ रहा है। क्योंकि अब भाषा से किसी को मतलब नही है बस एक मात्र उद्देश्य पैसा कामाना है जैसा की आप लोग तास्विरो मे देख सकते है। ऐसे लोग ही भोजपुरी भाषा को कलांकित करने का काम कर रहे हैं।

अभी का भोजपुरी फ़िल्म इंडस्ट्री दरअसल रिक्सा ठेला वालों और अनपढ़ गंवार, असभ्य किस्म के दर्शकों की कुंठा शांत करने वाला अश्लील साहित्य है। अंग्रेज़ी पोर्न और बॉलीवुड की फूहड़ता से ये वाला वर्ग जुड़ नही पाता था। इसी खालीपन को भरने के लिए आर्केष्ट्रा में नाचने गाने वाले और अपने शरीर को सिर्फ दैहिक सुख तक सीमित रखने को अपना प्रमुख कार्य मानने वाले लोगों ने इसे सींचा और पोषित किया है। ये सब इस लिए हो पाया क्योंकि इस फूहड़ता से लड़ने का कोई ठोस राजनितिक और सामाजिक इच्छा शक्ति नहीं है। यूट्यूब को कन्टेन्ट से बहुत ज़्यादा मतलब नही है। वीडियो है ज़्यादा लोग देखेंगे तो विज्ञापन मिलेगा। अगर और ज़यादा लोग देखेंगे तो विज्ञापन और महंगा होगा। मतलब यूट्यूब और तथाकथित कलाकार दोनों की बल्ले बल्ले लेकिन इसके बीच भोजपुरी भाषा और अस्मिता दोनों का जनाज़ा निकल रहा है।

नंगई करते करते भोजपुरी इंडस्ट्री वाले अब लतखोरी के स्तर की नीचता पर उतर आए हैं। बिहार में कला और संस्कृति विभाग और अन्य केंद्रीय संस्थाएं अपने गोटे पर बैठी हुई हैं। हम लोग अजीब से काल में जी रहे हैं। अश्लीलता और अनैतिकता का ऐसा घृणित दौर हमे अंदर से खोखला और अशांत कर रहा है। मुख्यमंत्री नितीश कुमार और कला और संस्कृति विभाग, बिहार सरकार से अनुरोध है कि इस फूहड़ इंडस्ट्री को कुछ समय के लिए अत्यंत कठोर क्लियरेंस के दायरे में लाएं वरना ये कलाकार, अपनी कला हग कर हमारी भाषा को इतना दूषित कर देंगे कि आने वाली पीढियां अपने भाषाई अस्मिता के लिए शंर्मिन्दा होगी।