भुखमरी के बीच कैसे फिट होगा इंडिया?

ग्राम वाणी फीचर
अभी बहुत दिन नहीं गुजरे हैं जब देश की राजधानी दिल्ली में तीन मासूम बच्चियों की भूख से तड़प—तड़प कर मौत हो गई थी. वैसे ऐसी घटनाएं झारखंड, मप्र, बिहार और छत्तीसगढ़ जैसे अल्पविकसित राज्यों में आम है, लेकिन मामला जब दिल्ली का हो तो बात तो गंभीर हो ही जाती है. वही दिल्ली जहां से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने फिट इंडिया कैंपेन का नारा दिया और अभियान शुरू कर दिया. इसके बाद सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री जी के कसरत करते हुए वीडियो काफी वायरल हुए. क्रिकेट खिलाड़ी, बॉलीवुड स्टार और देश की बाकी जानीमानी हस्तियों ने भी इस कैंपेन में हिस्सा लेते हुए अपने—अपने फिटनेस वीडियो जारी किए. फिटनेस वीडियो की इस बाढ़ में भुखमरी की खबरें, वीडियो, आंकड़े सब बह गए.
तभी हमारे जहन में सवाल उठा कि आखिर भूख से मर रहे बच्चों और जिम में पसीना बहा रहे लोगों में से किसके दर्द को मरहम की ज्यादा जरूरत है? तभी मोबाइलवाणी ने जनता की रिपोर्ट चर्चा मंच पर लोगों से सवाल पूछा कि आखिर भुखमरी के बीच कैसे फिट होगा इंडिया? और इस मामले में झारखंड, मप्र, बिहार से करीब 35 लोगों ने अपनी बात रिकॉड की. आम जनता की ये प्रतिक्रियाएं कई मायने में खास हैं..
राशन कार्ड क्या कर रहे हैं?
26 दिसंबर 2017 की ख़बर है कि झारखंड में कोयली देवी की बेटी भूख के कारण मर गई. वजह है कि राशनकार्ड आधार से लिंक नहीं था. 27 जनवरी 2019 को बिहार के जमुई जिला अस्पताल में पांच साल के गौरव की मौत हुई. उसके माता—पिता के पास राशन कार्ड था, आधार कार्ड था पर आधार कार्ड में लिखे नाम की स्पेलिंग राशन कार्ड में लिखे नाम से अलग थी, सो राशन नहीं मिल पाया. परिवार भूखा था और गौरव को यही भूख लील गई. राशन कार्ड से जुड़ी ऐसी ही कई और भी समस्याएं हैं, जिनके कारण गरीबों को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं हो पा रही है.
छत्तीसगढ़ बिलासपुर के नवा गांव से मोबाइलवाणी के श्रोता रमाओ जगत कहते हैं कि सरकार राशन कार्ड के नाम का ढिंढोरा पीटती है पर क्या नेताओं को पता है कि गरीबों को ये राशन कार्ड बनवाने में कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं? और किसी तरह अगर कार्ड बन भी जाए तो दुकान वाले काम तौलकर अनाज देते हैं. जो अनाज मिलता है उसकी क्वालिटी भी बहुत खराब होती है. इसके अलावा अलग—अलग राज्यों में राशनकार्ड पर अलग—अलग भाव से अनाज मिलता है. जबकि यह व्यवस्था पूरे देश में एक जैसी होना चाहिए!
रमाओ जगत की बात सही भी है. राशन कार्ड बनाने में धंधलियों के किस्से कई बार अखबारों में देखने पढ़ने मिल जाते हैं. इसके अलावा जो एक अहम मसला है वो ये कि एक राज्य या जिले का राशन कार्ड दूसरे राज्य या जिले में मान्य नहीं हैं. यानि ग़रीब जो गांवों में झेल रहे हैं वो शहर आकर भी झेल रहे हैं. आप दिल्ली में सुनते होंगे कि एक ही टिकट पर आप बस में सवारी कर सकते हैं, मेट्रो में चल सकते हैं तो फिर एक ही राशन कार्ड से जो ग़रीब मज़दूर पलायन करते हैं वो एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर राशन क्यों नहीं ले सकते हैं?
खासतौर पर बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के गरीबों के सामने यह बहुत बड़ी चुनौती है. क्योंकि यहीं से पलायन करने वालों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है. इन लोगों के पास राशन कार्ड है लेकिन वे इसे दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में आकर इस्तेमाल नहीं कर सकते.
इंडिया फिट है अगर रोजगार है!
बिल्कुल, देश फिट रहेगा अगर देश के हर नागरिक के पास मासिक वेतन होगा, इतना वेतन कि वो उससे अपनी और परिवार की न्यूनतम जरूरतें पूरी कर सके. कलाम की बात है कि फिट इंडिया सपना देख रहे नामीगिरामी लोगों को शायद ये तक नहीं पता होगा कि जितनी फीस वे जिम में पसीना बहाने के लिए देते हैं उतनी न्यूनतम मजदूरी भी उनके राज्य के मजदूरों को नहीं मिल रही है.
बिहार और झारखंड में तो मजदूरी पर बात भी नहीं होती. क्योंकि वहां काम ही नहीं है. कारखाने नहीं हैं, मिलें बन हो चुकी हैं. खेती पर प्रकृति का कहर बरस चुका है तो अब जाएं कहां? जमुई जिले चिकाई प्रखंड से बिहारलाल मुरमु ने अपने गांव की दुर्दशा बयां करते हुए मोबाइलवाणी के जरिए कहा कि उनके गांव लोगों के पास रोजगार नहीं है, कुछ लोग काम की तलाश में बाहर हैं लेकिन वे भी इतना पैसा जमा नहीं कर पा रहे हैं कि गांव में परिवारवालों को मदद मिल सके. काम नहीं है, पेट खाली हैं और ऐसे में तरह—तरह की बीमारियों का कहर भी. गांव के प्राथमिक केन्द्र बस नाम के हैं. जमुई के ही परशुराम सिंह ने मोबाइलवाणी पर अपनी बात रिकॉर्ड करते हुए कहा कि बिहार की सरकार में बैठे नेता और अफसर केवल अपना पेट भर रहे हैं. प्रदेश के विकास के बारे में कोई नहीं सोचता. हममें से कोई भी गांव से बाहर नहीं जाना चाहता, लेकिन यहां काम नहीं मिलता. अगर काम नहीं होगा तो पेट कैसे भरेंगे? कारखाने, मिले नहीं हैं. हम मजबूरी में पलायन कर रहे हैं.
खाली है मिड डे मील—आंगनबाडी
माता—पिता अगर काम पर चले जाएं तो बच्चे क्या करें? उनका भला सोचकर ही मिड डे मील और आंगनबाडी जैसी व्यवस्था तैयार की गई थी. बच्चों को भोजन मिलेगा, अच्छी देखरेख होगी और शिक्षा अलग से. इस चकाचौंध में हम भी कुछ समय के लिए भ्रष्टाचार की बीमारी को भूल गए थे. जो अब याद आ रही है.
क्योंकि मिड डे मील के नाम पर एक तरफ बच्चों के साथ छलावा हुआ और दूसरी तरफ कर्मचारियों के साथ. अभी जनवरी में ही 1 लाख से ज्यादा मिड डे मील कर्मचारी और आंगनबाडी कार्यकर्ता हड़ताल पर उतर आए थे. इन लोगों को कई महीनों से मासिक वेतन नहीं दिया गया. वहीं दूसरी ओर मिड डे मील का राशन बच्चों की थाली में कम भ्रष्टाचारियों की जेब में ज्यादा जा रहा है. यही कारण है कि बिहार और झारंखड में 1 लाख से ज्यादा आंगनबाडी केन्द्र बंद हो चुके हैं. खाना नहीं मिलता इसलिए बच्चे स्कूल नहीं जाते. माता—पिता सोचते हैं कि इससे अच्छा तो मजदूरी ही कर ले. यानि एक खामी ने पूरी व्यवस्था को ही हिलाकर रख दिया है.
मोबाइलवाणी के श्रोता विनोद मरावी कहते हैं कि देश के नेताओं और सरकारी अधिकारियों को अपने जेब भरने से फुर्सत मिले तो गरीबों का ख्याल करें. हमारे बच्चे पहले आंगनबाडी में जाते थे सोचा था हमारा पेट नहीं तो कम से कम बच्चों का पेट ही भर जाए, लेकिन अब तो वह भी बंद हो गई. मधुबनी मोबाइलवाणी पर शिवशंकर मंडल ने अपनी बात रिकॉर्ड की है. वे कहते हैं कि जब तक सरकारी नीतियां बेहतर नहीं होंगी तब तक ना तो रोजगार मिलेगा, ना शिक्षा ना स्वास्थ्य सेवाओं. और इन तीनों के बिना फिट इंडिया का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता.
फिट इंडिया का बाजार
अब जरा बात कर लेते हैं इंडिया में शुरू हुए फिट इंडिया के नए बाजार की. जी हां यह किसी अभियान की बजाए मार्केट स्ट्रेटेजी ज्यादा नजर आता है. 6248 अरब रुपए के वैश्विक फिटनेस बाजार में भारत की हिस्सेदारी 214 अरब रुपए की है. आने वाले कुछ वर्षों में इसके 18 फीसदी की दर से बढ़ने की संभावना जताई जा रही है. वहीं देश में फिटनेस एंड वेलनेस स्टार्टप ने इस साल 88 अलग-अलग सौदों के जरिए 3639 करोड़ रुपए का फंड इकट्ठा किया है. ऐसे में सरकार ने लोगों को 2023 तक फिट इंडिया बनाने का सपना दिखा दिया है, स्वभाविक है कि सरकार के दीवाने अब ज्यादा से ज्यादा इस नए बाजार में इंवेस्ट करने का प्रयास करेंगे.
अब जरा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से साल 2018 की नेशनल हेल्थ प्रोफाइल देख लेते हैं. जिसके मुताबिक देश में बीमारियों के आंकड़े दुनिया के लिहाज से ज्यादा हैं. साल 1990 से 2016 के बीच देश में गैर संक्रामक बीमारियां बढ़ने की दर 30 से 55 फीसदी रही. विभिन्न राज्यों में आंकड़े अलग अलग हैं, लेकिन महामारियों की बात की जाए तो गैर संक्रामक बीमारियां 48 से 75 फीसदी तक संक्रमणजनित और संबंधित बीमारियों के फैलने की दर 14 से 43 फीसदी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक भारत में कुपोषण को लेकर आंकड़े अब भी गंभीर हैं. पांच साल से कम उम्र के वर्ग में 37.9 फीसदी बच्चे देश में स्टंटिंग के शिकार हैं जबकि 20.81 फीसदी बच्चों को ‘वेस्टेड’ श्रेणी में रखा गया है यानी अति गंभीर अल्प विकास. वहीं दूसरी ओर देश में 17.8 फीसदी वयस्क पुरुष और 21.6 फीसदी वयस्क महिलाएं ओवरवेट हैं. जिन्हें जिम जाने की सबसे ज्यादा जरूरत है.
सीटू के झारखंड राज्य सीमिती के उपाध्यक्ष रामचंद्र ठाकुर ने मोबाइलवाणी पर एक बहुत ही अहम बात रिकॉर्ड की. वे कहते हैं कि हमारे भारत के भीतर दो भारत बसते हैं. एक भारत पूंजीपतियों का है. जो पहले भूख से ज्यादा खाते हैं और फिर उसे पचाने के लिए कसरत करते हैं. कसरत करने के लिए भी पैसा खुद अपनी जेब से देते हैं. और दूसरा भारत है गरीबों का मजदूरों का. जिसे ये नहीं पता है कि आज पेट भर गया है तो कल कैसे भरेगा? सुबह रोटी नसीब हुई है तो कोई गारंटी नहीं कि रात को भूखे पेट नहीं सोना पड़ेगा? जाहिर सी बात है कि प्रधानमंत्री जिस इंडिया को फिट बनाने की बात कर रहे हैं वो पूंजीपतियों का इंडिया है, मजदूर—गरीबों का भारत नहीं. अगर वे भारत को सेहतमंद देखना चाहते हैं तो पहले गरीब की थाली में रोटी देनी होगी.
रिलेटेड लिंक— http://voice.gramvaani.org/vapp/mnews/0/show/tags/hunger-india/