भारत में नफरत भरी भाषा और हिंसा: एक सुनियोजित बढ़ोतरी

लेखक: सुल्तान अहमद
भारत, जो विविधता और सहिष्णुता का देश माना जाता है, आज सुनियोजित नफरत भरी भाषा और हिंसा की गिरफ़्त में आता दिख रहा है। यह प्रवृत्ति अब केवल व्यक्तिगत या समूह स्तर तक सीमित नहीं रही, बल्कि संस्थागत रूप धारण कर चुकी है। चिंताजनक बात यह है कि कई मौकों पर राज्य और केंद्र सरकारों के स्तर पर भी, विशेषकर अल्पसंख्यक समुदायों के प्रति, नफरत भरे बयानों और कार्रवाइयों के प्रमाण मिलते हैं।
नफरती भाषा को समझने के लिए अब कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं है — केवल एक सामान्य समाचार चैनल खोलिए। टीवी डिबेट्स में प्रवक्ताओं, विशेषज्ञों और एंकरों द्वारा खुलेआम ऐसी भाषा का प्रयोग होता है जो समाज को विभाजित करने का कार्य करती है।
नफरत के नैरेटिव की शुरुआत
हाल ही में, एक गाँव में हुए हमले में 26-28 लोगों की मौत के बाद, पहली नफरत भरी प्रतिक्रिया एक दिल दहला देने वाली तस्वीर के साथ सामने आई: एक महिला अपने मृत पति के शव के पास बैठी रो रही थी। इस घटना का भी तुरंत राजनीतिकरण और साम्प्रदायिकरण हुआ। सोशल मीडिया, विशेषकर व्हाट्सएप समूहों में संदेश फैलाए गए — “ना जाति पूछी, ना स्थान; केवल धर्म पूछा और गोली मारी”, जिसमें सीधे-सीधे भारत के मुसलमानों को निशाना बनाया गया।
यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। व्हाट्सएप, सोसाइटी के RWA ग्रुप्स और अन्य प्लेटफॉर्मों पर अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ घृणा और धमकियों का प्रसार शुरू हुआ। शिक्षित समाज में भी, जो अब तक बहुसांस्कृतिक सौहार्द्र का उदाहरण माना जाता था, धार्मिक नारेबाजी और नफरत के संदेशों का बोलबाला होने लगा।
नफरत के प्रसार का तंत्र
नफरत भरे भाषण और उनकी परिणति को समझने के लिए उसके चरणों को देखना आवश्यक है:
- घटना का चयन: कोई आतंकी हमला या अपराध — जैसे पहलगाम में हमला — लिया जाता है।
- भावनात्मक उन्माद: घटनाओं की तस्वीरों और खबरों के साथ भड़काऊ भाषण प्रसारित किए जाते हैं।
- मीडिया का उपयोग: टीवी चैनलों के एंकर और राजनीतिक प्रवक्ता बयान देते हैं — “हिंदू अपने ही देश में सुरक्षित नहीं हैं” — और साम्प्रदायिक भावनाओं को हवा देते हैं।
- सड़क पर प्रदर्शन: जुलूस, मार्च, और लाउडस्पीकरों पर नफरत भरे नारे लगाए जाते हैं।
- संगठनों की सक्रियता: विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, धर्म रक्षा दल जैसे संगठन, “26 के बदले 26000 मुसलमानों” की हत्या का आह्वान करते हैं।
- हिंसा का प्रकोप: कई जगहों पर सीधी हिंसा, मारपीट और तोड़फोड़ की घटनाएँ होती हैं।
हाल के घटनाक्रम: एक द्रुत अवलोकन
- आगरा: गौरक्षा दल ने 27 वर्षीय गुलफाम की हत्या कर दी, और उसके साथी पर गोली चलाई।
- अम्बाला: मुसलमानों की दुकानों में तोड़फोड़ और श्रमिकों पर हमले।
- हाथरस: मंदिर निर्माण कार्य से मुस्लिम मजदूरों को निकाला गया।
- जोधपुर: पुलिस की मौजूदगी में भगवा संगठनों द्वारा ‘मुसलमान काटे जाएंगे’ जैसे नारे लगाए गए।
- थापन गाँव: मुस्लिम समुदाय के आर्थिक बहिष्कार की घोषणा।
- गाजियाबाद: मुस्लिम रेहड़ीवालों को गाँव से खदेड़ा गया।
- अम्बाला: कश्मीरी छात्रों के साथ मारपीट और जबरन ऊँचा किराया वसूलना।
- देहरादून: हिन्दू रक्षा दल द्वारा कश्मीरी मुसलमानों को खुलेआम धमकियाँ।
- बंगाल: एक गर्भवती मुस्लिम महिला को डॉक्टर ने इलाज करने से मना किया।
- महाराष्ट्र: मंत्री नितेश राणा का बयान — “खरीदारी करते समय दुकानदार से धर्म पूछो, हनुमान चालीसा सुनाओ।”
इन घटनाओं में एक बात स्पष्ट है — नफरत की सुनियोजित लहर केवल सड़कों पर ही नहीं, संस्थागत तंत्रों के भीतर भी फैल रही है। सरकार और प्रशासन इन घटनाओं को रोकने में प्रायः निष्क्रिय नजर आते हैं।
पुलिस और प्रशासन की भूमिका
भारत के विभिन्न दंगों — चाहे वह मेरठ हो, भागलपुर, गुजरात, मुंबई या दिल्ली — का अध्ययन करने पर एक आम पैटर्न दिखता है:
राज्य की पुलिस या तो निष्क्रिय रही या दंगों में पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई।
मुस्लिम युवाओं पर झूठे आरोप, बिना सबूत गिरफ्तारी, और कई बार पुलिस थानों के भीतर ही अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के मामले दर्ज हुए हैं।
ईसाई समुदाय के खिलाफ हिंसा
ईसाई समुदाय भी इस नफरत से अछूता नहीं रहा है। ADF इंडिया की संस्थापक तहमीन अरोड़ा के अनुसार, केवल पिछले साल ही मध्य प्रदेश, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश से 800 से अधिक शिकायतें दर्ज की गईं।
साधारण धार्मिक समारोह — जैसे बर्थडे पार्टी, सामूहिक प्रार्थना या शादी — पर भी “धर्मांतरण” का झूठा आरोप लगाकर पुलिस कार्रवाइयाँ की गईं, जिससे गरीब परिवारों को लम्बी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी।
संविधान और मौलिक अधिकारों का क्षरण
भारत का संविधान, विशेषतः उसके भाग 3 (अनुच्छेद 12-35), हर नागरिक को मौलिक अधिकार देता है — धर्म की स्वतंत्रता, विचार की स्वतंत्रता, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार।
अनुच्छेद 25-28 धार्मिक स्वतंत्रता को विशेष संरक्षण प्रदान करते हैं।
फिर भी, जब जुमे की नमाज़, ईसाइयों के त्योहारों या अन्य धार्मिक समारोहों पर हमले होते हैं, तो यह मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन होता है।
न्यायपालिका में विश्वास बनाए रखने की आवश्यकता है, परंतु जब सरकारें और पुलिस निष्क्रियता या पक्षपात दिखाती हैं, तो नागरिकों के बीच अविश्वास गहराता है।
निष्कर्ष
भारत के सामाजिक ताने-बाने को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि नफरत की इस सुनियोजित राजनीति को पहचानकर उसका प्रतिकार किया जाए। संविधान और कानून के प्रति निष्ठा केवल कथनों में नहीं, अपितु व्यवहार में भी दिखनी चाहिए।
एक लोकतंत्र तभी स्वस्थ रह सकता है जब उसमें प्रत्येक नागरिक — चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या क्षेत्र का हो — समान सम्मान और सुरक्षा का अनुभव करे।
Note: यह आलेख – The crisis of India minorities conclave , कान्स्टिटूशन क्लब में कान्स्टिटूशन कन्डक्ट ग्रुप द्वारा आयोजित कार्यक्रम के इनपुट के आधार पर तैयार किया गया है।
