भड़काऊ राजनीति के अलावा सत्ता कायम रखने का कोई और तरीका है क्या?

लेखक- रफ़ी अहमद सिद्दीकी
जहाँ एक तरफ पिछले कुछ दशकों से दुनिया भर में लोगों की नाराज़गी का नतीजा यह रहा है कि जगह जगह कट्टर नेता और पार्टियाँ सत्ता में आते रहे हैं। मेहनतकशों की पूँजी का नापसंद बँटवारा हर कोई देखता रहा, सामाजिक निज़ाम में ऊँच-नीच के बड़े फासले की तलवार “बेईमान नेताओं, जमाखोरों” पर लटकती रही । साथ ही साथ दुनियाभर में मंदी ने खुशहाली के सुनहरे ख्वाबों पर पानी फेर दिया । सरकारें ऐसे में गुस्से की शक्ल इख्तियार करने को मजबूर हो गई।
दूसरी तरफ इन तुनकमिज़ाजी पार्टियों के वादों का पूरा न हो पाना भी साफ है। सरकारों के पास जो आख़िरी फार्मुला था संपन्न तबकों में यक़ीन बनाये रखने का तरक्क़ी, रोज़गार, ज़्यादा पैदावार… वह मंडी के लड़खड़ाते रहने से फेल होता गया। ऐसे में सियासती निज़ाम के पास भड़काऊ राजनीति के अलावा सत्ता कायम रखने का कोई और तरीका नहीं बचता।
पिछले 3 महीनों में सी. ए, ए, एन. आर. सी. इस नाराज़गी के उमड़ने का मौका बनी। हालाँकि इसे एक ही तबक़े का विशेष मुद्दा बताया जाता रहा , हमारे लिए मुद्दे को इसी तरह के हालात में सोचना जरूरी होजाता है.
जब नागरिकता संशोधन विधेयक जाड़े के सत्र में संसद से पारित किया गया, उसी वक़्त देश भर में इसके खिलाफ मुखालफत होना शुरु हुआ. पहले दिनों में मुखालफत में सामाजिक तबक़े ने सरकार के खिलाफ खतरनाक चेहरा इख्तियार किया। उत्तर प्रदेश के कई जगहों पर पुलिस चौकी और बसों पर हमले हुए। देश के कई हिस्सों में लोग खुले में इकठ्ठा हुए, और ऐसे में पुलिस के साथ मुठभेड़ें भी हुई। देश की राजधानी दिल्ली में भी बसें जलाई गईं। इस पूरी हिंसा में सैकड़ों विरोधकर्ता और पुलिस वाले घायल हुए, और काफ़ी लोगों की मौत हुई, इन सबके बीच असल में जिस राज्य का मुख्य मुद्दा घुसपैठिया था असाम जिसे इनर लाइन परमिट चाहिए था अपने यहाँ किसिस के आने और जाने के लिए , या अपने राज्य से बहार का कोई भी नहीं चाहिए , उसे ऐसा लगा इस नए कानून से भारत के अन्दर के ही प्रवासी मजदूरों को नियमित वासी का दर्ज़ा मिल जाएगा जिससे उनकी अस्मिता और पहचान का खतरा था , क्यों असाम में एन आर सी से तकरीबन 19 लाख बहार रह गए , जिनमें अधिकार हिन्दू जनता है और इन सभी आंदोलोनों और मीडिया के रुख से असम की तस्वीर फीकी पड़ती गई|

नागरिकता के मामले में सरकार अपने फैसले पर अड़ी रही है, हालाँकि इससे जो फ़ायदा वह उठाने की उम्मीद कर रही थी, वह नहीं मिला है। इस लिए सरकारी के रवैये में कुछ नरमी नज़र आ ही रहा है। नागरिकता के मुद्दे पर जो पहले दिनों में हिंसा हुई, उसे बाद में आंदोलन चलाने वाले नेताओं ने “बाहरी लोग” बताकर दर किनार कर लिया। एक तरह से इस मुद्दे में मुस्लिम क़ौम के भीतर की ही फूट पर गयी – मिडिल क्लास बनाम मेहनतकश – अधिकतर धरने की जगह देखने को मिला क्यों की स्टेज पर ज्यादातर समय माइक बड़े बुद्धि जीवी या आमिरों के हांथों ही रहा और बाकी जनता से ये उम्मीद की जाती रही की वो उनके हाँ में हाँ मिलाएं. हालाँकि समाज शास्त्री इम्तेयाज़ अहमद कहते हैं की यह फूट अनुसूचित जातियों और जनजातियों में भी मौजूद है, नागरिकता के मुद्दे पर कई जगहों पर चल रहे लोगों के जमघट को “हड़ताल” बताया, मगर इन्हें यह कहना सही नहीं होगा क्योंकि इन जमावड़ों में औरतें और बूढे ज़्यादातर जमा हुए, और घर के मर्द काम पर जाकर शाम को धरने की जगह पर आते रहे। जहाँ मुस्लिम हकों के कुछ नुमाईंदे भारत का चक्का जाम करने की बड़ी बातें कहते रहे, वहाँ यह साफ दिखता है कि शाहीन बाग के इर्द गिर्द ओख़ला और नोएडा के औधोयोगिक इलाकों में काम कर रहे मुस्लिम मजदूर इस आंदोलन का हिस्सा नहीं बन सके। फैक्टरियों में काम जस का तस चलता चलता रहा। कई प्रगतिशील विचारक यह मानते हैं की शहर एक फक्ट्री हैं और अगर मजदूरों , मजलूमों की बात तभी मानी जाती है जब इस फक्ट्री का पहिया जाम यानी चलना बंद होता , यानी अगर शहर में फक्ट्री के काम धंधे ठप होते तो इस आन्दोलन का असर और व्यापक होता और सही मायने में या लोगों का जमावड़ा हरताल में तब्दील हो पाता, कुछ नतीजे की गुंजाईश होती.
दरअसल इन मुद्दों में बात सियासत पर भरोसे तक महदूद रह गई। इन आंदोलनों में यह बात साबित है कि सरकारें अभी भी सभ्य मज़दूर बनाने की ज़िम्मेदारी निभा रहीं हैं, और नागरिक सरकारों की सेवाओं का शुक्रगुजार बना हुआ है। इस लिए ये आंदोलन समाज के मजदूर तबके को मुतासिर नहीं कर पाया। यह तो है ही कि जब तक सवाल सिर्फ़ ख़ास फ़ायदा का है, तब तक कोई आंदोलन कितने भी शहरों में क्यों न चला हो, सामाजिक रफ़्तार नहीं पकड़ता। किसी भी क़ौम की मेहनतकश आबादी अगर आंदोलनों में आवाज़ नहीं पाती, तो उस आंदोलन का अटकना लाज़मी है। और अगर कोई आंदोलन मेहनतकशों की बात उठाने में नकाम रहता है, तो वह किसी एक ख़ास क़ौम या ख़ास फायदे का न हो कर सामान्य, पूरे समाज का बन जाता है। यह तभी हो सकता है जब उस आंदोलन में रोजमर्रा ज़िन्दगी में बदलाव, दिनचर्या को बदलने की बात उभरे, न कि मौजूदा ज़िन्दगी के बचाव की। ऐसे हालातों के सामने सरकारों के पास खेल खेलने का वक़्त नहीं मिलता। ऐसे आम सवालों के सामने हिंदू-मुसलिम,ऊँच-नीच जैसे कौमी दीवारें गिर जाती हैं।
पूँजी क़ायम रखते हुए आन्दोलन पूंजीवादी निज़ाम को बचाता रहा और और सीधे तौर पर पूँजी पतियों यह आन्दोलन आर्थिक नुकसान नहीं पंहुचा पाया| नागरिकता कानून के खिलाफ चल रहा आंदोलन पैसों के साथ तालुकात क़ायम रखने की वजह से भी नाक़ाम हो गया ऐसा माना जा सकता है। पैसों का रिश्ता बना रहा , हज़ारों की तादाद में रह रहे मिडिल क्लास और मज़दूर वर्ग मुस्लिम तबक़ा किराए का इंतज़ाम करता रहा। अ- प्रवासी मज़दूर से मकान मालिक पैसों की उम्मीदें छोड़ने को तैयार नही हुए और मज़दूर पैसों के लिए फक्ट्रियों का पहिया घुमाने के लिए दिन रात काम करते रहे और यह भूल गए जिस मकान मालिक ने किराया माफ़ नहीं किया वो क्या उन्हें आज़ादी दिला पायेगा। आन्दोलन का नतीजा हमारे सामने है , सत्ता धारी पार्टी धन की बदौलत समाज के एक वर्ग को लामबंद करता रहा , गोली मारों , जैसे नारे देश में गूंजते रहे , गोलियां भी चली लेकिन आबादी के बड़े हिस्से को इसका कोई फर्क नहीं पड़ा , राजनितिक नेताओं की तलाश जारी रही , एक को सही दुसरे को गलत के लांछन लगते रहे , आखिर में दिल्ली जो आन्दोलन के लिए मुखर माना जाता रहा वहीँ खून की नदियाँ बही और सबसे ज्यादा मज़दूर , प्रवासी मज़दूर और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग ही प्रभैत हुए , शहर छोड़ कर जाने पर मजबूर , अपने चहेतों की जिंदगी से हाथ धोना पड़ा.
लेखक सामजिक कार्यकर्ता हैं , श्रमिकों के मुद्दों पर काम करने का लम्बा अनुभव है , लेखक से संपर्क करने के लिए आप लहर पर अपने सवाल जरूर लिखें.