बिहार में बेरोजगारों का चक्काजाम

किसान आन्दोलन का चक्का जाम अब बेरोजगारों ने अपने जिम्मे कर लिया है। सड़कों के साथ अब रेल लाइनें जाम की जा रही हैं। घर और नौकरी के बीच कोचिंगों को बनाते, कोचिंगों में फंसे बेरोज़गार भिखना पहाड़ी में कश्मीरी ढंग की पत्थरबाजी और बैरीकेडिंग को याद कर रहे हैं। क्या अपने अतीत से वर्तमान तक फैले गहरे अँधेरेपन को अस्वीकार करते हुए- जान की जोखिम उठाते हुए- जीवन के दावेदार ये बेरोज़गार जब अपनी सामूहिक कार्यवाई की तरह चक्का जाम की भौतिक ताकत में संगठित होते हैं- कई कई तरीकों से- तो उनमे कोई राजनीतिक चेतना नहीं होती? बार बार यह कहा जा रहा है कि इनका राजनीतिक नेतृत्व नहीं विकसित हो पा रहा। कोई नेता नहीं मिल रहा। कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा। यही इसकी सीमा है। ऐसा कहते हुए कहीं हम आन्दोलन के चेहराविहीन चरित्र से घबरा कर उसे चेहरे की राजनीति में बंद तो नहीं कर देना चाहते? पिछले तीसेक सालों के दरम्यान और मौजूदा सरकार के दौरान और भी बर्बर तरीके से राजनीति ख़ास कर वोट की राजनीति चेहरों के इर्द गिर्द सिमटती जा रही है। बिना किसी चेहरे या प्रतिनिधि के लोगों को लगता ही नहीं कि कोई राजनीति संभव भी है। वोट की राजनीति अपनी सार्थकता बनाये रखने के लिए जरूरी जिस विचारधारा को कायम करती है वह विचारधारा हमें वोट की राजनीति को निर्विकल्प स्वीकार करने का अंधापन देती है। हमें अँधा बनाए रखना वोट की तानाशाही के बिना संभव नहीं। और तानाशाही बिना हेजिमनी के संभव नहीं। पूँजी की तानाशाही हमें अपने अस्तित्व के इस अनिवार अंधेपन के प्रति अंधा बनाती है। हम स्वयं अपने अस्तित्व के अंधेपन को ढंकने के लिए मजबूर होते चले जाते हैं। वह हमारी आदतों में शामिल होता जाता है। हम स्वयं अपने शत्रु होते चले जाते हैं। हम स्वयं उस अंधेपन के प्रति वास्तव में अँधा हो जाते हैं। वोट की राजनीति हमें एक मात्र विकल्प लगती है। जिसे ही दूसरे शब्दों में कोई चालीसेक साल पहले नवउदार की प्रणेता मारग्रेट थैचर ने ‘देयर इस नो अल्टरनेटिव’ कह कर हम सब की आत्मा में सूत्रबद्ध किया था। 

बिना चेहरों में पहचाने वोट की राजनीति चल नहीं सकती। वोट पर आधारित लोकतंत्र किसी चेहरे को सामने लाने का ऐसा तरीका है जो प्रतिरोध की सहज सामूहिक कार्यवाइयों को खंड-खंड में बांटता है और हमें महज एक संख्या में सीमित करता रहता है। जीवन का अनंत भौतिक श्री इस प्रक्रिया में बलात्कृत होती है और हम सदेह महज एक संख्या में सीमित किये जाते हैं। हमारा हमसे सब कुछ निचोड़ कर हमें चलती फिरती लाशों में तब्दील किया जाता है। किसी व्यक्ति के नेतृत्व की आकांक्षा में- अपनी सामूहिक शक्ति को किसी चेहरे में ढूँढने में- हम सबसे पहले स्वयं को एक व्यक्ति की तरह पहचानते हैं। यहाँ स्वयं मनुष्य की तरह वास्तविक अमूर्तन हो रहा है। जो बात व्यक्ति के स्तर पर है वही बात समाज में पार्टी के स्तर पर है। 

आन्दोलनों को राजनीतिक दिशा देने के नाम पर पार्टियाँ समाज में छोटे-छोटे समूहों या अनेक जातियों या क्षेत्रों में विकसित होते चेहरों को चुनती और बनती है। इन चेहरों के माध्यम से वह सामूहिक अस्वीकार की ताकत को (पार्टी में शामिल होने या जनता के बीच प्रचार-प्रोपगैंडा आदि के माध्यम से या पद की चाहत को बनाये रखते हुए आदि..) राजनीतिक पार्टियाँ व्यवस्था के स्वीकार में बदल देती है- हमारे करने की सामूहिक ताकत को उलट कर हमारे ही खिलाफ कर देती हैं। जनबल चेहरे की राजनीति के आड़ में सत्ता बल में रूपांतरित होता जाता है। और हम महज सरकार परिवर्तन के अजेंडे से बाहर नहीं निकल पाते। सरकारें बदलती हैं पर राज्य सत्ता नए रूप में ही सही, बनी रहती है। चेहरे और चेहरों से बनती पार्टियाँ जिस राजनीतिक पक्ष-विपक्ष-निष्पक्ष की तरह नेतृत्व की सामूहिक चेतना का संगठन है वह अंततः राज-सत्ता के अपने होने का आधुनिक और विशिष्ट रूप है। यह चेतना सरकार के बनने या बदलने से ही बनी रहने वाली आधुनिक या पूंजीवादी राज सत्ता है। यह आधुनिक राज-सत्ता के होने का अपना तरीका है। पूंजीवादी राज-सत्ता हमारे सामूहिक प्रतिरोध को दबाने वाला राजनीतिक रूप है इसलिए स्वयं भी ‘स्वतः-स्फूर्तता’ पर टिकी है। जन-आंदोलनों के आलोक में ही वह पुनर्गठित हो सकती है। सामाजिक-आर्थिक उथल-पुथल इस पूंजीवादी राजसत्ता के लिए आपदा और अवसर दोनों है। वोट की राजनीति आपदा को अवसर में बदलती है। राज-सत्ता के लिए वास्तविक आपदा को दबाये रखने के लिए जरूरी पुलिस-मिलट्री-निजी सुरक्षा एजेंसियों- विज्ञान और टेक्नोलोजी के साथ-ही साथ वोट होता रहना जरूरी हो जाता है। उसमे भाग लेना जरूरी हो जाता है। आपदा के समय खुद ही आगे कूद-कूद कर चेहरे की राजनीति के सहारे हम आपदा को अवसर में बदलते चले जाते हैं। मानो कामगारों-किसानों-बेरोजगारों-दलितों-अल्पसंख्यकों के इन सारे प्रतिरोधों की सामूहिक राजनीति चेतना महज नीतीश बदल दो, मोदी बदल दो – के विपक्ष के परे है ही नहीं! उसके परे जाती ही नहीं। राज-सत्ता के वास्तविक आपदा के भ्रूण मानो वहां अनुपस्थित हैं। ज्ञानवान चेहरे ही हमें मुक्त कर सकते हैं क्योंकि भविष्य की उनकी योजना स्पष्ट है- हम सरकार में आयेंगे न तब सबको रोजगार हो जाएगा! मानो बेरोजगारी व्यवस्थागत संकट न होकर महज सरकारों की इच्छाशक्ति का सवाल हो! 

कल्प-विकल्प और निर्विकल्प वोट की राजनीति की त्रिगुणात्मिका अभिव्यक्ति है। यह हमें अपने जीवन के साधनों से बेदखल करती है और बिना उस बेदखली के वह हमें महज संख्या में नहीं बदल सकती। परमानेंट, टेम्परोरी-ठेका और बेरोजगार मजदूरों के विभाजन से बनती पूंजीवादी जाति व्यवस्था को बनाए रखने का और उसीको बनाए रखने में उंच-नीच के हर नए-पुराने तौर तरीकों को बनाए रखने में ही वोट की राजनीतिक सार्थकता है। जीवन के साधनों के साथ एकमेक होने की , संसाधनों-साधनों के सामूहिक आत्म-निर्धारण की, जातियों के उच्छेद की वास्तविकिता से बनने वाले आन्दोलन की ठोस और पारदर्शी संभावना के जो भ्रूण शाहीन बाग़ और फिर किसान आन्दोलन में और अब बिहार में बेरोजगारों के चक्का जाम में विकसित हो रही है वह क्या बार-बार चेहरों वाले नेतृत्व और वोट की राजनीति के सहारे राज-सत्ता के निर्माण के निमित्त दबायी जाती रहेगी या जल-जंगल-जमीन और जीवन के सारे साधनों पर पूँजी के कब्जे को हटाते हुए सामूहिकीकरण की ज्यादा लोकतांत्रिक प्रक्रिया का विस्तार होगा? हमारा आन्दोलन इस फौरी समस्या से जूझ रहा है। इस समस्या को सुलझाना दरअसल उस राजनीतिक नेतृत्व की समस्या को सुलझाना है जिसे चेहरे की राजनीति उलझाए रखना चाहती है। ‘…मैं कहता सुरझावनहारी/ तू रहता अरुझाई रे’।

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