बिरसा मुण्डा का जन आंदोलन और आज के आदिवासी समाज की चुनौतियाँ

आमिर मलिक
बिरसा मुंडा आदिवासी प्रतिरोध के महान नायक हैं। उन्होंने 19 वीं शताब्दी के अंत में छोटानागपुर आदिवासी क्षेत्र में आदिवासी विद्रोहों का नेतृत्व किया। 9 जून बिरसा मुंडा (1875-1900) की शहादत दिवस है। बिरसा ने शोषण के खिलाफ जन आंदोलन किया। 899-1900 के ‘उलगुलान’ विद्रोह में बिरसा और उनके साथियों ने जागीरदारों और ठेकेदारों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। बिरसा के आंदोलन का उद्देश्य आदिवासियों के जमीन के असली मालिक के रूप में बिचौलियों और अंग्रेजों के खिलाफ अधिकारों का दावा करना था। आदिवासी जमीनों पर गैर-आदिवासी सामंती नियंत्रण थोपकर आदिवासियों की जमीनों को छीनने की ब्रिटिश औपनिवेशिक साजिश के खिलाफ बिरसा ने लड़ाई लड़ी ! आदिवासी प्रतिरोध की प्रतीक, बिरसा 25 साल की उम्र में 1900 में ब्रिटिश औपनिवेशिक जेल में आज ही के दिन उनकी वो शहीद हुए।
आज बिरसा की बरसी है। उनपर पर न जाने कितने लोगों ने लिखा और बोला है। लेकिन उनके जीवन से जुड़े प्रसंगों का कोई सटीक विश्लेषण मिलना बहुत मुश्किल है। कोई भी रीसर्च पेपर उनकी 25 साल की ज़िंदगी की मुकम्मल जानकारी नहीं देती है। यह बात काफ़ी है हमें आइना दिखाने के लिए हम अपनों से कितने दूर-दूर हैं। दिल बहलाने को कह देते हैं की बिरसा मुंडा अमर रहे लेकिन उसी बिरसा को हम रोज़ खामोशी की सलीब पर चढ़ा देते हैं। आदिवासी हमें ग़ैर दिखाई देते हैं। उनकी ज़मीनें छीन कर, उनके जंगलों को उखाड़ कर, उनके घरों को उजाड़ कर, उनके जल-स्त्रोतों में ज़हर घोलकर, उनको शहरों में मज़दूरी करने को ख़ुद हम मजबूर कर रहे हैं।
ख़ुद हमारे देश के अर्ध सैनिक बल उनके इलाक़े में लूट-पाट मचाती है। कई रिपोर्ट तो ये तक कह रही हैं कि ये बल उनके घरों से उनके मुर्ग़े-मुर्गी उठा ले जाती हैं। इंसानों को उठाने की बात तो छोड़ ही दीजिए। किसी की ज़िंदगी की इज़्ज़त करना शायद इन पुलिस वालों ने सीखा ही नहीं। जब बात महिलाओं पर हो रहे दमन और अत्याचार की हो तो आदिवासी औरतें दूर कहीं खड़ी नज़र आती हैं या ज़्यादातर लाइन से बाहर ही होती हैं। रिपोर्ट्स ये भी कहती हैं कि हमारे देश के बहादुर सिपाही आदिवासी औरतें के स्तन दबा कर देखते हैं कि ये शादीशुदा है कि नहीं। इसके बच्चे हैं या नहीं। हद्द और उसकी इंतेहा की क्या ही बात करें जब हम जानते हों कि आदिवासी औरतों के योनि में इन पुलिस वालों ने पत्थर डाल दिया हो। थर्ड-डिग्री यातनाएँ दी हों।
बाद में यही पुलिस बल बहादुरी का मेडल लेती है और कहीं वो रेटैलीएशन में मारे जाएँ तो शहीद का दर्जा मिलना तय होता है। शत-शत नमन कहने को पूरा देश उमड़ आता है। और तो और आदिवासियों के लिए लड़ने वालों को हमारे देश की सरकार उठाकर कैदख़ाने में दबोच लेती है। भले ही वो बूढ़े हों, जवान हो या बच्चे। बीमार ही क्यूँ ना हो, बूढ़े ही क्यूँ न हों, पुलिस महकमा से उनकों पानी पीने तक की इजाज़त नहीं मिलती है। कैसा अटपटा लगता है न ये सुनकर कि किसी को पानी पीने के लिए अदालत से “पर्मिशन” लेनी पड़े वो भी एक लोकतान्त्रिक देश में। फादर स्टैन स्वामी की कहानी ताज़ा है, आपको याद होगा। वो जेल में सुरक्षित हैं या नहीं, पता नहीं।
अगर सवाल करके देखें तो जवाब ज़्यादा मुश्किल नहीं है। हमें मालूम है कि भारत की सरकारें विदेशों को ख़नीज और कच्चा माल देने के लिए सैकड़ों मेमोरंडम ओफ़ अंडरस्टैंडिंग साइन करती है। ये ख़नीज-सम्पदा उन्हीं ज़मीनों पर ज़्यादा मौजूद हैं जहां ये आदिवासी सदियों से रहते आए हैं। सरकार उनको उनकी ज़मीनों से हटाती है और इसे ही विकास का नाम देती है। क्या मालूम हमारी समझ कब विकसित होगी कि ये ‘विकास’ आदिवासियों के लिए जानलेवा है। ऐसा ही कुछ माहौल था जब बिरसा ने भाला-बरछी उठा लिया था। खड़े हो गए थे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़। भूले-बिसरे जब कोई बिरसा की आवाज़ से आवाज़ मिला दे, सरकार और पुलिस के दमन के ख़िलाफ़ खड़े हो जाएँ, तब उसे सरकार नक्सली और माओवादी बता कर जेल में ठूँस देती है।
नवीकृत राज्य प्रायोजित हमले और दमन के समय में आदिवासियों और किसानों की जमीन, जंगल, खनिज और आजीविका छीनने के लिए कॉर्पोरेट हितों को बढ़ावा देने के लिए, बिरसा मुंडा के वीर प्रतिरोध की भावना को फिर से स्थापित करने की ज़रूरत है और समय की मांग भी। जाने माने इतिहासकार सुमित सरकार अपनी किताब ‘मोडर्न इंडिया’ में कहते हैं कि बिरसा एक बटाईदार आदिवासी के घर में पैदा हुए थे। ईसाई मिशनरी की वजह से उनको कुछ शिक्षा हासिल हुई थी। फिर उन्होंने ‘फारेस्ट डिपार्टमेंट’ के ज़रिये आदिवासियों की ज़मीन हथियाए जाने के खिलाफ लड़ाई लड़ी मगर उनको गिरफ़्तार कर जेल भेज दिया गया जहाँ जवानी में ही जेल में उनकी शहादत हुई।
ऐसा भी नहीं है कि ये सब बीती हुई शताब्दियों में हुआ हो कि आप अपनी गर्दन रेत में छुपा लें। ये सब इसी सदी में हमारे-आपके ज़िंदा रहते हो रहा है। हम और आप ये नहीं कह सकते कि हम नहीं जानते थे। हमारा दिल जानता है कि हम सब जानते हुए ख़ामोश थे। इसी खामोशी की सूली पर हम रोज़ बिरसा को टांग देते हैं और कहते हैं—बिरसा मुंडा अमर रहे..!