बस्तर में आदिवासी इलाके में सीआरपीएफ कैंप बनने से सुरक्षाबलों के साथ गतिरोध

रिज़वान रहमान
मैं मार्टिन निमोलर की तरफ से बोल रहा हूं। मैं बोल रहा हूं कि बस्तर पर कोई नहीं बोलेगा। न मैं, न आप, न हममें से कोई। बस्तर में तीन आदिवासी मरे हैं, तो मरने दो। 18 घायल हुए, फिर भी क्या फर्क पड़ता है। सुना है कि 9 सुरक्षा बलों द्वारा गायब कर दिए गए हैं, लेकिन क्या वे मैट्रोपॉलिटन थे? क्या उनके पास चमचमाती कार, लोन का घर या कम से कम उनके में जेब में क्रेडिट कार्ड था? और ये भी नहीं तो क्या उनका सरनेम ऐसा था जिसके होने से मंत्रालय की कुर्सी स्थिर रहती है? पुलिस महकमा हमेशा तैनात रहती है।
क्या कहा? वे आदिवासी थे। जंगलों में रहने वाले। जल-जंगल-ज़मीन की लड़ाई लड़ने वाले? क्या ये वही लोग हैं जिन्हें दशकों से इस देश की पुलिस व्यवस्था मारती आई है? जिनके बच्चें को नक्सली, माओवादी बोल कर गोली मार दी जाती है? जिनके बेटियों का कस्टोडियल रेप होता है? क्या ये वही लोग जिनके घरों को उजाड़ कर शहर का सुविधा भोगी तबका ज़िंदा है?

अगर बस्तर वाले लोग यही हैं, तो उन पर कोई नहीं बोलेगा। मैं मार्टिन निमोलर की तरफ से लिखित में दे सकता हूं कि उन पर कोई नहीं बोलेगा। ये ज्या द्रेज़, बेला भाटिया की तरह के लोग, हैं ही कितने? क्या वे उंगली की गिनती से अधिक है? नहीं, दरअसल वे उंगली की गिनती से बेहद कम हैं। कितने अखबारनवीस हैं, जो बस्तर में 10 हजार आदिवासियों पर हुई गोलीबारी पर रिपोर्ट्स लिख रहें? कितने वीडियो प्रोड्यूसर हैं, जिनके डेस्क पर इस गोलीबारी की चिंता अटकी है? कितने ऑपिनियन मेकर हैं, जो राय दे रहें? कितने सोशल मीडिया एक्टिविस्ट हैं, जिनके शब्द उनके पक्ष में है। शायद नहीं हैं और हैं भी तो उनकी संख्या बेहद मामूली है।
बंगाल में राजनीतिक हिंसा होती है और मीडिया हाउस के इनपुट डिपार्टमेन्ट में कोहराम मच जाता है। आउटपुट, “सरकार -आरएसएस-बीजेपी आईटी सेल” की शक्ल ओढ़ लेता है। एंकर तो पहले से ही प्रवक्ता हैं और हम सब पक्ष-विपक्ष की आर्मी में बंट गए थे। देश के बौद्धिक वर्ग के शब्द वातावरण में इस कदर घनीभूत होने लगे थे की उनकी बारिश हो जाती तो धरती पर प्रलय आ जाता। लेकिन देश के वहीं बौद्धिक वर्ग अब कहां हैं? कहां है वे, जब देश के मासूम लोग सरकार की गोली के शिकार हो रहें?

शायद वे किसी फैंसी कैफेटेरिया या अपने आलीशान घरों में ब्लैक कॉफी अथवा वाइन पर दार्शनिक गुत्थियां सुलझा रहे हैं। लेकिन एक दिन देश की यही जनता उनके फैशनेबल विचारों को बुहार कर किनारे लगा देगी। वो उनसे, ओतो रेने कास्तियो की तरह पत्थर जैसे सवाल पूछेगी। बस्तर में सप्ताह भर से अधिक से आदिवासी, सीआरपीएफ कैंप बनाए जाने पर विरोध कर रहे हैं। वे कह रहें, हम सुरक्षा बलों के खौफ में जीना नहीं चाहते। इस पर छत्तीसगढ़ के यंग आदिवासी इंटेलेक्चुअल अभय खाखा की एक कविता उभर कर सामने आ रही। अभय तो अब नहीं रहें, पिछले साल उनका देहांत हो गया था, लेकिन उनके शब्द जीवित रहेंगे;
I am not your data, nor am I your vote bank,
I refuse, reject, resist your labels,
your judgments, documents, definitions,
your models, leaders and patrons,
because they deny me, my existence, my vision, my space,
I make my own tools to fight my own battle,
For me, my people, my world, and my Adivasi self!”
अभय खाखा की इन चेतावनी के साथ, मैं फिर से मैं मार्टिन निमोलर की तरफ से बोल रहा हूं। हां वही मार्टिन निमोलर जिसने कहा था, “मैं चुप रहा, लेकिन जब वे मेरे लिए आए, तो बोलने वाला कोई नहीं बचा था। ” मुझे बोलते हुए उसी स्पेनिश कवि ओतो रेने कास्तियो की कविता “अपॉलिटिकल इंटेलेक्चुअल” याद आ रही जिसके शब्द उन आदिवासियों की जुबान पर होंगे। फिलहाल आप “ओतो रेनो कास्तियो” की कविता को हिंदी में इस तरह पढ़ ही सकते हैं।
एक दिन
देश के अराजनीतिक बुद्धिजीवियों से
हमारी भोली-भाली जनता
करेगी कुछ सवाल।
पूछेगी वह उनसे
क्या किया था उन्होंने,
जब मर रहा था उनका देश
सांस दर सांस–
एक मीठी, निपट अकेली,
मद्धम आँच की तरह।
फिर वो पूछेंगे,
“क्या किया था तुमने
जब ग़ुरबतज़दा ये लोग
लाचार थे,
हलकान थे,
और उनकी मासूमियत,
उनकी मुस्कानें
फ़ना हो रहीं थीं
धुआं होकर?”
उस रोज़
मेरे प्यारे हमवतन,
अराजनीतिक बुद्धिजीवियो,
देते न बनेगा
तुमसे कोई जवाब !
तुम्हारी बेज़ुबानी ही
एक मनहूस गिद्ध बनकर
नोंच लेगी तुम्हारी अंतड़ियाँ।
एक बेपनाह मायूसी
तुम्हारी रूह को कचोटेगी,
घेर लेगी तुम्हें ताउम्र
एक ख़ामोशी,
शर्मसार ख़ामोशी!