बंगाल में भजपा द्वारा राजनितिक हिंसा को सांप्रदायिक रंग देने का प्रयास

रिज़वान रहमान

बंगाल में बीजेपी जनमत को पटरी से उतारने के लिए हिंसा को धर्म से जोड़ रही है। हिंदू समुदाय को असुरक्षित बताया जा रहा है ताकि धारणा बने कि बंगाल राष्ट्रपति शासन के लिए उपयुक्त है। अब तक इस राजनीतिक संघर्ष में 17 मौत की सूचना है। बीजेपी ने 9 समर्थक मारे जाने का दावा किया है। रिपोर्ट के मुताबिक टीएमसी के 6 और संजुक्ता मोर्चा के 2 कार्यकर्ता के मारे जाने की खबर है। इनमें एक सीपीएम और एक आईएसएफ के हैं। लेकिन राजनीतिक हिंसा के सांप्रदायिकरण पर तुली बीजेपी ने इसके लिए फर्जी खबरें फैलाई जिनमें से कई का भंडाफोड़ भी हुआ। राइट विंग की ऐसी कोशिश बंगाल और भारत के लिए बुरे स्वप्न की तरह है। वैसे भी बंगाल सहित पुरे देश में लोग कोरोना की वजह से काफी परेशान हैं।

इस पर देश भर में भगवा चैंबर द्वारा हाई स्केल सोशल मीडिया कैंपेन के बाद जे पी नड्डा कोलकाता में जम गए हैं। नड्डा की यात्रा अच्छी तरह से तैयार की गई उस 360-डिग्री प्लान का हिस्सा है जिसमें मसालेदार तरीके से धार्मिक संदर्भों और फेक वीडियो-तस्वीर के साथ राजनीतिक संघर्ष और धार्मिक असुरक्षा के बीच समानताएं स्थापित की जा रही है। इसका मकसद फेक और मैन्युपूलेटेड विजुअल के अथाह सागर के साथ ममता बनर्जी को डिस्टेबलाइज करना है। केंद्रीय बलों की तैनाती और हमले के आरोपों पर सीबीआई जांच की मांग को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दो अलग-अलग जनहित याचिका दायर भी कर दी गई हैं।

यह भी साफ जाहिर है कि राष्ट्रपति शासन के पक्ष में माहौल बनाने के लिए नड्डा की यात्रा को रणनीति के रूप में योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया गया है। सोशल मीडिया पर राइट विंग फोर्स इसे भी उछाल रहे हैं। राष्ट्रपति शासन को लेकर नैरेटिव बनाया जा रहा है। व्यापक जनादेश के साथ चुनाव जीतने वाली टीएमसी, ममता की अपील के बावजूद हिंसा को नियंत्रित नहीं कर पा रही है। जबकि मौजूदा राजनीतिक संघर्ष में सभी का नुकसान हुआ है। लड़ाई सिर्फ बीजेपी से शब्दबाण की नहीं है। असली चुनौती उस बम को डिफ्यूज करना है, जो बीजेपी के साथ टकराव से शुरू कर चुका है। ममता को यह नहीं भूलना चाहिए कि वह बीजेपी को एक और बढ़त देने का जोखिम नहीं उठा सकती हैं।

बंगाल में चुनावी हिंसा का इतिहास रहा है, लेकिन इससे पहले कभी भी इन झड़पों को इस तरह नहीं मोड़ा गया था। आरएसएस का मुखपत्र ऑर्गनाइजर लिखता है, सीपीएम ने माना है कि बंगाल में जनसंहार चल रहा है। ऑर्गनाइजर ने इस लेख में सीपीएम की महिला विंग अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (AIDWA) की कार्यकर्ता काकोली खेत्रपाल की हत्या को प्रमुखता से जगह दी है। उनकी हत्या पर सीपीएम की पूर्व सांसद सुहासिनी अली ने ट्वीट किया था कि वर्धमान में उनकी कॉमरेड काकोली खेत्रपाल की हत्या टीएमसी के गुंडों ने कर दी. बहरहाल काकोली की हत्या हुई है जो निंदनीय है।

लेकिन दिलचस्प यह है कि बंगाल में चल रही राजनैतिक हिंसा पर बीजेपी-आरएसएस और सीपीएम एक ही राग में है। दोनों धडें ने प्रमुखता से टीएमसी की आलोचना की है। यही नहीं सीपीएम ने टीएमसी को फासिस्ट फोर्स भी करार दिया है। अब मैं इसमें नहीं जाउंगा कि ऐसा सीपीएम ने क्यों बोला है, टीएमसी फासिस्ट फोर्स है या नहीं, और वर्तमान संदर्भ में ऐसा बोलना चाहिए या नहीं। बंगाल का राजनीतिक इतिहास खून से रंगा है। पिछले पृष्ठ को पलटेंगे तो साफ अंकित है कि किसने, कब, किसके साथ क्या किया है। किसी के भी दामन सफेद नहीं हैं।

यह एक शैतानी दुस्साहस है, जिसमें रातों-रात राजनीतिक संघर्ष का रंग बदल कर सांप्रदायिक कर दिया गया। मुसलमानों को आक्रामक और हिंदुओं को पीड़ित के रूप में चित्रित किया गया। फेक न्यूज और प्रोपागंडा के जरिए बताया जा रहा कि मुसलमान बीजेपी समर्थकों और उनकी संपत्तियों पर हमला कर रहे हैं। इस पर बीजेपी के कई नेता अपने फेवरेट पत्रकारों को बाइट दे रहे हैं। सोशल मीडिया पोस्ट, मुसलमानों पर आरोपों से भर दी गई हैं। हर जगह धार्मिक पहचान उद्धृत है। बीते दिनो बीजेपी नेता, जैसे सांसद सौमित्र खान और अग्निमित्र पॉल ने अपने सोशल मीडिया हैंडल पर पोस्ट किया कि बीरभूम के नानूर में एक महिला पार्टी कार्यकर्ता का तृणमूल के गुंडों ने सामूहिक बलात्कार किया है। इस पोस्ट को बंगाल बीजेपी के आधिकारिक ट्विटर हैंडल पर भी साझा किया गया। यहां तक की इंडिया टुडे के एक वरिष्ठ पत्रकार ने भी रेप वाला ट्वीट किया था। इसके पीछे का कैंपेन था कि एक हिंदू महिला का मुसलमानों ने सामूहिक बलात्कार किया। लेकिन जब पुलिस ने इसकी पड़ताल की तो बीजेपी का दावा गलत निकला। एक समुदाय को इस तरह फोकस किए जाने के परिणाम विनाशकारी होंगे और बीजेपी यही करना चाहती भी है।

चुनाव के दिनों में राइट विंग के लोग अल्पसंख्यक समुदाय को नारों के साथ ताना मारने और उकसाने में लगे थे ताकि माहौल खराब हो और मतदाताओं का ध्रुवीकरण हो, जो नहीं हो पाया। बीजेपी इस कोशिश में विफल रही, तो अब चुनाव परिणाम के बाद दूसरे रास्ते अपनाए जा रहे हैं। गवर्नर जगदीप धनखड़ ने ट्वीट करके बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें कानून-व्यवस्था की स्थिति पर अपनी चिंता व्यक्त करते हुए बुलाया था। उनके इस ट्वीट के बाद मोदी की चिंता को काफी फैला कर लोगों का ध्यान भी आकर्षित किया गया, लेकिन उनमें बहुतों ने यह नहीं पूछा कि क्या मोदी ने राज्य में कोरोना की स्थिति के बारे में पूछताछ करने के लिए गवर्नर को फोन किया था।

केंद्रीय एजेंसियों के साथ मिलीभगत, मेनस्ट्रीम मीडिया प्रोपागंडा और गवर्नर के बल पर बीजेपी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार पर कभी भी गाज गिरा सकती है। केवल शांति के लिए की गई अपील पर्याप्त नहीं होगी। ममता को हिंसा के अपराधियों के साथ-साथ उन लोगों पर भी कड़ी कार्रवाई करनी होगी जो इसे ध्रुवीकरण के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं। बंगाल में 30 प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं जिनमें से अधिकांश आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों से आते हैं। देश में हिंदू राष्ट्रवाद के उदय के बाद से उनकी रातों की नींद हराम है। ऐसे में बंगाल सांप्रदायिक हिंसा नहीं झेल सकता है।

आज सीपीएम सिर्फ राजनीतिक हिंसा पर ही क्यों बात कर रही है। क्यों सिर्फ अपने कार्यकर्ता को हुए नुकसान को ही बार बार फोकस में ला रही है। क्या बंगाल की इतनी बड़ी पार्टी से इस सीमित दायरे की राजनीति की उम्मीद की जा सकती है? ऐसे वक़्त में भी जब वहां बीजेपी द्वारा सांप्रदायिक उन्माद खड़ा किया जा रहा और जनमत को येन-केन-प्रकरेण पलटने की साजिश चल रही है। सीपीएम और सुहासिनी अली जैसी लीडर से यह उम्मीद तो रखी ही जानी चाहिए कि वह बीजेपी की सांप्रदायिक चाल और एक चुनी हुई सरकार को पलटने की साजिश पर भी बोलें।

बंगाल में चल रही राजनीतिक हिंसा के लिए टीएमसी को क्लीन चीट नहीं दी जा सकती। कोई नहीं कह रहा कि टीएमसी को लौंड्री से व्हाइट वॉस करवाया जाए। हिंसा गलत है, किसी भी सूरत में गलत है। लेकिन इसमें सिर्फ टीएमसी की हिंसा को फासिस्ट करार देना और बीजेपी की कम्यूनल टैक्टिस पर चुप रह जाने को सही नहीं ठहराया जा सकता। हिंसा गलत है, लेकिन असल फासिज्म के रास्ते पर बीजेपी है जो अपने मशीनरी के बूते एक चुनी हुई सरकार को पलट देना चाहती है। ऐसी आशा है कि सीपीएम के कॉमरेड्स, बीजेपी के फासिस्ट ऑपरेशन पर भी बोलें। नहीं तो ऑपनियन दीर्घा में बैठे लोगों के पास कुछ और भी संदेश जा सकता है।

अंतत: अभी सीपीएम की लड़ाई सिर्फ टीएमसी से नहीं होनी चाहिए। इन दोनों पार्टियों की भले ही एक दूसरे से राजनितिक लड़ाई है। लेकिन एक वैचारिक लड़ाई बीजेपी से भी है। इस लड़ाई को बंगाल छोड़ कर शेष भारत में लड़े जाने को भी उचित नहीं ठहराया जा सकता है। बीजेपी और टीएमसी, दोनों को एक ही तराजू पर नहीं तौला जा सकता, कम-से-कम फ़िलहाल तो क़तई नहीं। संघ-भाजपा के फासिज्म के मद्देनजर अगर बड़ा दुश्मन-छोटा दुश्मन का फर्क लेफ्ट समग्र रूप से नहीं तय कर पाएगा तो गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। ममता पर जिम्मेदारी है कि वो वह राज्य को हिंसा और राइट विंग के कम्यूनल कैंपेन से बचाए और शांति बहाल करे।